महाराष्ट्र में चट्टान को काटकर बनाई गईं कई गुफाएं हैं, जो लगभग तीसरी सदी ई.पू. की हैं। इनमें सबसे लोकप्रिय लेण्याद्री गुफाएं हैं, जो पवित्र अष्टविनायक तीर्थ-स्थल का एक हिस्सा हैं। यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं, कि यह मंदिर पहली सदी के बौद्ध गुफ़ा-परिसर का एक हिस्सा हैं। लेण्याद्री, जिसे गणेश लेना के नाम से भी जाना जाता है, चट्टान को काटकर बनाईं गईं तीस गुफाओं का समूह है, जो महाराष्ट्र के पुणे ज़िले के जुन्नर तालुक़ में हैं।
जुन्नर प्राचीन काल से एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। कुकादी नदी के तट के पास स्थित यह सबसे उपजाऊ क्षेत्रों में से एक है, और सह्याद्री और पूर्वी मैदानों के बीच आता है, जिसका सामरिक महत्व है। यह शिवनेरी, तुलजा, गणेश और मनमोदी पहाड़ियों से घिरा हुआ है। यही नहीं, यह नाणेघाट के बहुत पास स्थित है, जो प्राचीन काल में पश्चिमी घाट के सबसे महत्वपूर्ण दर्रों में से एक था, और जो समुद्री बंदरगाहों सोपारा और कल्याण को पैठण, तेर और नासिक जैसे मुख्य शहरों से जोड़ता है।बड़ी मात्रा में पानी उपलब्ध होने और प्राकृतिक पहाड़ी संरक्षण की वजह से जुन्नर एक प्रमुख स्थान था। यही वजह है, कि सातवाहन शासन के दौरान इस क्षेत्र का बहुत महत्व था। सातवाहन दूसरी सदी ई.पू. से लेकर तीसरी सदी तक दक्कन पर शासन करने वाले सबसे शक्तिशाली राजवंशों में से एक थे। उनके शासनकाल के दौरान नाणेघाट का व्यापार मार्ग फला-फूला। यही वजह है, कि उन्होंने इस तरह के एक महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग के आसपास के क्षेत्र को विकसित करने का फैसला किया। इस दौरान भारत में बौद्ध धर्म भी तेज़ी से फैल रहा था।
सातवाहनों के शासन के दौरान बौद्ध धर्म को भरपूर संरक्षण मिला। जुन्नर में दो सौ से अधिक गुफाएं बनाईं गईं थीं। लेकिन सवाल यह है, कि गुफाओं का व्यापार से क्या संबंध हो सकता है? चूंकि अधिकांश व्यापारिक मार्ग पहाड़ी दर्रों से होकर गुज़रते थे, इसलिये व्यापारियों के लिये लूटपाट और जानवरों के हमलों का ख़तरा बना रहता था। इसके अलावा मौसम कभी भी बदल जाता था। इसी वजह से इन पहाड़ी दर्रों के आसपास गुफाएं बनाई गईं। यहां न सिर्फ़ बौद्ध भिक्षु ठहरते थे, बल्कि यात्री भी ठहरा करते थे। दिलचस्प बात यह है, कि कई व्यापारियों ने भी इन गुफाओं को बनाने में धन देकर सहयोग दिया था।
जुन्नर में बौद्ध गुफाओं का निर्माण पहली सदी ई.पू. से दूसरी सदी तक किया गया था। ये गुफाएं बौद्ध धर्म के प्रारंभिक हीनयान चरण का प्रतिनिधित्व करती हैं, और ज़्यादातर गुफाओं में मूर्तियों नहीं हैं। जुन्नर की सभी गुफाओं को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया है- गणेश पहाड़ी (लेण्याद्री), शिवनेरी पहाड़ी, तुलजा पहाड़ी और मनमोदी पहाड़ी। लेण्याद्री पश्चिमी भारत की सबसे महत्वपूर्ण गुफाओं में से हैं। इस परिसर की तीस गुफाओं में दो गुफाएं चैत्य-गृह हैं और अट्ठाईस विहार (भिक्षुओं का निवास) हैं। इन गुफाओं का निर्माण लगभग पहली और दूसरी सदी के आसपास किया गया था।
लेण्याद्री में चैत्य गुफा नम्बर छह और गुफा नम्बर चौदह पश्चिमी भारत की आरंभिक गुफाओं में हैं, और हीनयान चैत्य-गृहों के बेहतरीन उदाहरणों में से एक हैं। हालांकि ये आकार में छोटी हैं, लेकिन ये महाराष्ट्र में कार्ले गुफाओं की तरह हैं। दोनों चैत्यों की छतें स्तंभों पर टिकी हुई हैं। इन स्तंभों के शीर्ष पर बाघ, शेर और हाथियों जैसे जानवरों के आकर्षक चित्र बने हुए हैं।
इस परिसर की अन्य सभी अट्ठाईस गुफाएं विहार हैं, जो भिक्षुओं के आवास हुआ करते थे। विहारों में एक बरामदा है, जिसके किनारों पर कमरे बने हुए हैं। इनमें से ज़्यादातर कमरों में पत्थर की एक बेंच भी रखी है। ये सब शायद भिक्षुओं के कमरे रहे होंगे। परिसर में गुफा नंबर पांच दिलचस्प गुफा है, जिसमें दीवार के तीनों किनारों पर विभिन्न आकारों के सात कमरे हैं, और हर कमरे में एक बेंच है। कमरों के अलावा विहार में एक बरामदा और बीच में एक सभागार भी बना हुआ है। दरवाज़े के दोनों ओर खिड़कियां हैं।
गुफा नंबर सात संभवतः इस परिसर में सबसे लोकप्रिय गुफा है, जिसे गणेश लेणा के नाम से भी जाना जाता है। यह प्रसिद्ध गणपति मंदिर है। विहार के रुप में बनाई गई इस गुफा में एक बहुत बड़ा सभागार और विभिन्न आकारों के लगभग बीस कमरे हैं। ये जुन्नर की सबसे बड़ी गुफा है। इस मंदिर के निर्माण की तिथि विवादास्पद है। लेण्याद्री नाम का मराठी में शाब्दिक अर्थ पर्वत गुफा होता है, जिसका उल्लेख गणेश पुराण और स्थल पुराण में मिलता है, जिसका संबंध गणेश से है। लेण्याद्री को गणेश का जन्मस्थान माना जाता है। पुरानी कथाओं के अनुसार देवी पार्वती ने गणेश से वरदान मांगने के लिए बारह वर्षों तक ज़बरदस्त तपस्या की थी।
उनकी भक्ति से खुश होकर गणेश ने देवी पार्वती को वरदान दिया, कि वह उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। इसके बाद पार्वती ने गणेश की मिट्टी की मूर्ति बनाई, और उसकी पूजा करके उसे जीवंत कर दिया। इस मंदिर की मूर्ति को गिरिजात्माज के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ है गिरिजा (पार्वती) से पैदा हुआ। लेण्याद्री में गिरिजात्मज मंदिर महाराष्ट्र में गणेश के आठ मंदिरों में से एक अष्टविनायक का एक हिस्सा है। दिलचस्प बात यह है, कि यह अष्टविनायक का एकमात्र मंदिर है, जो पहाड़ी पर स्थित है। अन्य सभी अष्टविनायक मंदिरों की तरह गणेश की मूर्ति को एक स्वयंभू छवि माना जाता है। ये मूर्ति पीछे की दीवार पर बने दो प्रकोष्ठ में हैं। दोनों प्रकोष्ठ मिले हुए हैं।
लेण्याद्री में काफ़ी अभिलेख मिले हैं, जिनमें उन लोगों के नाम भी दर्ज हैं, जिन्होंने इन गुफाओं के निर्माण में दान किया था। दोनों चैत्य-गृहों के अभिलेख दूसरी सदी के हैं। गुफा नंबर छह के लिये कल्याण के सुलसादाता नाम के व्यक्ति ने दान किया था, जबकि गुफा नंबर चौदह आनंद नामक व्यक्ति का उपहार था। न केवल व्यापारी बल्कि विभिन्न वर्गों के लोगों ने भी गुफाओं के निर्माण में दान किया था। गुफ़ा सत्रह के दो अभिलेखों में उपहार में दिये गये कुंड का उल्लेख है। इनमें से एक कुंड सघक नाम के एक सुनार ने और दूसरा कुंड लच्छिनिका और नादाबालिका नामक महिलाओं ने बनवाया था। दिलचस्प बात यह है, कि इन सभी अभिलेखों में दान करनेवाले परिवार के सदस्यों के नामों का भी उल्लेख मिलता है।
गुफाओं की एक दिलचस्प ख़ासियत यह है, कि यहां जो कुंड हैं, उन्हें चट्टानों को काटकर बनाया गया था। इन कुंडों से प्राचीन काल की जल प्रबंधन प्रणाली के बारे में पता चलता है। पश्चिमी भारत की कई गुफाओं में पानी के कुंड मिले हैं। चूंकि ये कुंड पहाड़ियों पर बनाये गये थे, इसीलिये ऐसा व्यतीत होता है, कि भिक्षुओं के लिए पानी एक समस्या रही होगी। इन कुंडों में वर्षा का पानी जमा किया जाता था, जिसे लंबे समय तक जमा करके रखा जा सकता था। आज लेण्याद्री-परिसर, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की देखरेख में है ।साथ ही ये लोकप्रिय पर्यटक और तीर्थ स्थलों में से एक है।
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