कभी हुआ था एक ऐसा नायब जिसकी न्यायप्रियता की शान में गायी जाती थी कजरी
“ख़ुदा करे गुण्डे पकड़े जांय
लाल खां के खूँटे में जकड़े जांय। “
आज से लगभग २ शताब्दी पूर्व लिखे गये इस शेर की तर्ज़ पर बनारस में वर्षों तक कजरी गायी जाती थी, यह सब कुछ एक ऐसे व्यक्ति की शान में किया जाता था जिनकी न्यायप्रियता की मिसाल उस काल में समूचा उत्तर भारत देता था। इस बहमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति का नाम था लाल खां जो कि तत्कालीन काशी नरेश के सेनापति थे, उन्होंने अपनी वीरता से काशी के विस्तार और विकास में बड़ा योगदान दिया।
लाल खां, न सिर्फ एक प्रसिद्द नायब थे बल्कि एक न्यायप्रिय अफसर भी थे और उन्हें गुण्डे बदमाशों से सख्त नफरत थी। उन्होंने उस दौर में नगर में अलग अलग स्थानों पर सार्वजनिक खूँटे गड़वाये थे जिसमें वे चोरों और बदमाशों को बँधवा दिया करते थे और उन्हें कुछ दिनों के लिए वहीँ रहने देते थे। ऐसा करने से सारा शहर उन्हें देखता था और आता जाता व्यक्ति उन बदमाशों का उपहास भी करता था। इस सजा की वजह से बदमाश अपनी पहचान जाहिर होने के कारण या तो अपराध छोड़ देते थे या फिर वे नगर छोड़ कर कहीं दूर चले जाते थे। इन खूँटों के खौफ के कारण नगर में अमन चैन बना रहता था और प्रशासन सुचारु रूप से चलता था।
जीवन के अंतिम दिनों में तत्कालीन काशी नरेश ने लाल खां से कुछ मांगने के लिए कहा तो उन्होंने अपनी आख़िरी इच्छा के रूप में दरख़्वास्त करते हुए कहा कि कुछ ऐसा इंतजाम करें कि उनकी मृत्यु के बाद भी वो महल और दुर्ग की चौखट के दीदार कर सकें। उस ज़माने में काशी राज का सञ्चालन राजघाट किले से होता था, काशी नरेश ने उनकी अन्तिम इच्छा का सम्मान करते हुए लाल खां की मृत्यु के बाद राजघाट किले के दक्षिण पूर्व कोण पर दफन कराया और इसी स्थान पर उनका भव्य मकबरा बनवाया।
मध्ययुगीन काल में काशीराज के उद्भव के गवाह थे लाल खां –
ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि लाल खां के जीवनकाल के दौरान काशीराज का नियंत्रण महाराजा बलवन्त सिंह के हाथ में था जिन्होंने सन्-१७३९ से १७७० ई. तक शासन किया। उनके पिता जमीन्दार मनसाराम ने जान-माल लूट लेने वाले क्रूर दस्युओं से अपनी राजनीतिक सूझबूझ एवं रण-कौशल द्वारा प्रजा की सुरक्षा की और इन अराजक तत्वों की गतिविधियों पर पूर्ण अंकुश लगाकर छिन्न-भिन्न शासन को सुदृढ़ करते हुए नये राजवंश की स्थापना का श्रेय प्राप्त किया। मनसाराम की पत्नी नन्दकुमारी से बलवन्त मिंह (बरिबन्ड सिंह) का जन्म हुआ, जिन्होंने अपनी शूरवीरता से जीते हुए भूखण्डों का पिता से भी अधिक विस्तार करते हुए गंगापुर से हटकर रामनगर को अपनी राजधानी बनाया और साल १७४० ई. के आस-पास काशी के पूरब में वहीँ एक विशाल दुर्ग का निर्माण कराया। इस समस्त विस्तार में लाल खां की महती भूमिका थी, एक कारण और भी था कि महाराजा बलवन्त सिंह एक शौर्य सम्पन्न शासक के साथ-साथ धर्मनिष्ठ, संस्कृत्यनुरागी राजपुरुष भी थे। उनकी गुण-ग्राहकता से तत्कालीन राज दरबार में सरस्वती पुत्रों एवं विद्यानुरागियों को पूर्ण आदर एवं सम्मान प्राप्त था, और उनके शासन काल में प्रत्येक क्षेत्र के विद्वानों को आदर एवं आश्रय मिलता रहा। महाराजा बलवन्त सिंह की प्रथम पत्नी ‘प्रतिप्राण’ से दो पुत्र हुए जो चेतसिंह और सुजान सिंह थे एवं द्वितीय पत्नी से एकमात्र कन्या का जन्म हुआ, जो दरभंगा के नरहन स्टेट के नरेश को ब्याही गई थी।
महाराजा बलवंत सिंह के निधन के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र महाराजा चेत सिंह (१७७०-१७८१ ई.)- सन् १९७० ई. में महाराज काशिराज की गद्दी पर आसीन हुए, चेतसिंह भी अपने पिता की तरह एक कुशल शासक थे और लालखां की मृत्यु उनके शासन सँभालने के तीन साल बाद हुयी। हालांकि चेतसिंह के सत्ताधीश बनने के कई साल पहले लाल खां वृद्ध हो चुके थे लेकिन उनकी आख़िरी इच्छा का सम्मान महाराज बलवंत सिंह समेत महाराज चेत सिंह ने भी किया था। लाल खां ने महाराज बलवंत सिंह के समस्त शासन काल समेत महाराज चेत सिंह के भी प्रारंभिक शासन काल को देखा था।
लाल खां का रौज़ा –
यह कहना गलत न होगा कि न सिर्फ यह स्मारक काशी या वाराणसी या बनारस की गँगा जमुनी तहज़ीब का नायाब नमूना है बल्कि इस शहर की ऐतिहासिक पहचान से जुड़ी पुरातात्विक थाती को समझने का रास्ता भी काशी के विस्तार-विकास में योगदान देने वाले लाल खां का रौजा से होकर जाता है। 1773 में मुगल वास्तु शिल्प के अनुसार बने इस मकबरे में एक आयताकार आंगन है जिसके चारों कोण पर मीनारों के अलावा एक विशाल गुंबद है जिसे तराशे हुए पत्थरों से सज्जित किया गया है। इसी स्थान पर लाल खां के परिवार के सभी लोगों के भी मकबरे हैं। एक विशाल हरे भरे बगीचे से घिरा यह मकबरा और उसके पार्श्व में मालवीय सेतु और सबके पीछे गँगा को एक साथ एक सीध में देखने का अपना ही आनंद है।
उद्यान के चारों कोनों पर चार पथरीली छतरियां बनीं हैं, मक़बरे की मुख्य ईमारत को एक चौकोर चबूतरे पर बनाया गया है, मक़बरे के चारों बाहरी दरवाज़ों पर तीन मेहराब बने हैं जिनमें बीच वाला मेहराब तुलनात्मक रूप से बाकी मेहराबों से थोड़ा ऊँचा है। मक़बरे में प्रवेश करने के लिये दक्षिण एवं पश्चिम दिशा से दो दरवाज़े बनाये गये हैं। मक़बरे के ऊपरी हिस्से में बने विशाल गुम्बद को नीले रंग खपरैल से सजाया गया है। मक़बरे के चारों कोनों पर चार छोटी छतरियां भी बनायी गयी हैं।
प्राचीन नहीं अपितु अति प्राचीन इतिहास को समेटे है यह स्थान –
वाराणसी शहर के पूर्वी छोर पर जीटी रोड से पड़ाव की ओर बढ़ते ही मालवीय पुल से थोड़ा पहले बायीं ओर बने इस भव्य स्मारक लाल खां का रौज़ा (मकबरा) की संरचना सबको प्रभावित करती है। इसके उत्तर दिशा में हरी घास व पेड़-पौधों के बीच प्राचीन ईंटों से बनी संरचनायें आकर्षण का केंद्र हैं। दरअसल यह संरचनायें काशी के अति प्राचीन इतिहास के अभिलेख स्वरुप हैं जो इस बात की पुष्टि करती हैं कि उस काल में काशी महाजनपद की राजधानी वाराणसी थी जिसकी पहचान ब्रितानी शासनकाल में राजघाट के समीप स्थित इस टीले से की गई। यह संरचनाएं वस्तुतः प्राचीन वाराणसी की गलियों-बाजारों के अवशेष हैैं, जहां कभी अफगानिस्तान से पांडिचेरी तक के व्यापारी आया जाया करते थे।
हुआ यह कि ब्रितानी शासन के दौरान जब रेल पटरियाँ बिछाने का काम शुरू हुआ तो उत्तर और पूर्वी भारत को जोड़ने के लिहाज से वाराणसी में गँगा के ऊपर एक रेल-रोड पुल बनवाने की आवश्यकता महसूस हुयी। उसी क्रम में वाराणसी से पूरब दिशा में गंगा के किनारे काशी रेलवे स्टेशन और तत्कालीन डफरिन ब्रिज (वर्तमान में मालवीय सेतु ) बनवाने के उद्देश्य से वर्ष 1939 में खोदाई शुरू हुयी तो इस इलाके के एक बड़े भूभाग से अति प्राचीन सामग्री प्राप्त हुयी। पुरातत्व के जानकारों ने जब इस प्राचीन सामग्री की पड़ताल की तो इस स्थान पर काशी की प्राचीन राजधानी के अस्तित्व के संकेत मिले। इसके अगले साल जब पुरातात्विक रीति से इस इलाके और प्राप्त सामग्रियों की जांच-परख की गई तो वाराणसी का संपूर्ण अस्तित्व पूरे प्रमाण के साथ सामने आ गया और विश्वविख्यात महाजनपद काशी की तत्कालीन राजधानी वाराणसी का रहस्य खुल गया। कालांतर में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पुरातत्व शास्त्रियों ने कई वर्षों तक शोध कर लगभग तीन हजार साल पुराने प्राचीन नगर के कुछ भाग के वैशिष्ट्य को दुनिया के सामने प्रस्तुत किया। इन अवशेषों से यह सिद्ध हुआ कि वरुणा और अस्सी के बीच विस्तार पाने से शताब्दियों पूर्व वाराणसी नगरी इसी सीमा में आबद्ध थी।
ऐतिहासिक साक्ष्यों के अलावा जातकों में भी अनेकश: ऐसे विवरण प्राप्त हुए हैं जिनसे विदित होता है कि वाराणसी में गंगा नदी में उस समय नावें चला करती थीं जिनका उपयोग यातायात के अलावा व्यापार में भी होता था और इस नगर का सम्पर्क सुदूर इलाकों तक था। सीलानिसंस जातक में स्पष्ट है कि उस काल में व्यापारी समुद्र से नदी द्वारा वाराणसी पहुँचते थे। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि प्राचीनकाल में वाराणसी जलमार्गों द्वारा भारत के अधिकांश प्रसिद्ध व्यापारिक नगरों से जुड़ा हुआ था। संख जातक से भी प्रमाण मिलते हैं कि वाराणसी के व्यापारी नौका द्वारा ताम्रलिप्ति होते हुए व्यापारिक वस्तुएं सुवर्ण भूमि (बर्मा) तक ले जाते थे। सुसन्धि जातक में वर्णित है कि सुवर्ण भूमि उस समय प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था जहां वाराणसी एवं भरुकच्छ (भड़ौच) के व्यापारी नौका द्वारा पहुंचते थे।
दिव्यावदान एवं अवदान कल्पलता से इस तथ्य का भी बोध होता है कि वाराणसी का व्यापार समुद्र द्वारा रत्नद्वीप (श्रीलंका) तक था। दिव्यावदान में स्पष्ट रुप से यह भी कहा गया है कि वाराणसी में राजा ब्रह्मदत्त के शासनकाल में सुप्रिय नामक सार्थवाह (महासार्थवाह) समुद्री मार्ग से रत्नद्वीप गया और वहां से जलमार्ग से ही वाराणसी लौटा। मार्ग में पड़ने वाले एक महाकान्तार का भी उल्लेख है। इसके अलावा बावेरु जातक में वाराणसी के कुछ वणिकों द्वारा दिशाकाक लेकर जहाज से वावेरु (बेबीलोनिया) जाने के भी उल्लेख मिले हैं। पं. कुबेरनाथ शुक्ल ने भी अपनी पुस्तक में लिखा है कि परवर्ती काल में वाराणसी के व्यापार की पहुँच ताम्रलिप्ति – सुवर्णभूमि – मलाया – इण्डोचाइना तक थी। इसी प्रकार बेबीलोन तथा यूनान एवं रोम से भी वाराणसी के व्यापारिक संबंधों को जोड़ा गया है।
राजघाट इलाके में ब्रितानी शासन काल और स्वतन्त्रता के बाद हुयी खुदाई से प्राप्त मुहरों एवं मृण्मुद्राओं से पश्चिमी देशों के साथ वाराणसी के व्यापारिक संबंधों की सूचनाएं प्राप्त होती है। खुदाई में चौथे स्तर से अर्थात् ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी की नीके पल्लास, अपोलो, हेराक्लस की आकृतियों सहित अन्य मृण्मुद्राएं मिली है। इतिहासकारों का मानना है कि ये मुद्राएं वाराणसी और पश्चिमी देशों के बीच व्यापारिक संबंधों की सूचक है। इसी प्रकार भारतीय हाथीदाँत की कृतियां रोमन स्थलों से प्राप्त होने के कारण कुछ विद्वान पुरातात्विक दृष्टि से यह सम्भावना भी व्यक्त करते हैं कि संभवत: वाराणसी ही उस काल में उन वस्तुओं का एक स्रोत रहा होगा। डॉ. अल्तेकर भी यह मानते हैं कि यह असम्भव नहीं है कि उस काल में वाराणसी के किसी एक भाग में विदेशियों के आवास रहे हों। उनका मानना है कि यह भी हो सकता है कि ये मृण्मुद्राएँ वाराणसी के वस्त्र व्यापारियों ने रोम के व्यापारियों से प्राप्त किये गये हों जिनके अवशेष राजघाट की खुदाई में प्राप्त हुए है। इन प्रमाणों और साक्ष्यों के बाद इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि उस काल में वाराणसी का व्यापारिक संबंध सुदूर पश्चिमी देशों यूनान, रोम आदि से भी था।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद वहां से जुड़े पुरातत्वविदों एवं इतिहासकारों ने शोध के दौरान पाया कि राजघाट में प्राप्त अवशेष लगभग ८ वीं से लेकर १८वीं शताब्दी तक के हैं। विश्वविद्यालय के विद्वानों दवारा वर्ष १९५७ में पहला शोध शुरू हुआ और कालांतर में वर्ष १९६० से १९६९ तक पर अनेकों साक्ष्य मिले। ऐतिहासिक अभिलेख यह भी बताते हैं कि भले ही इस स्थान से स्पष्ट साक्ष्य ८वीं एवं ९वीं शताब्दी के मिले हैं लेकिन वाराणसी एक नगर के रूप में तीसरी शताब्दी में भी अवस्थित था।
सिर्फ रौज़ा ही नहीं बल्कि एक पूरा मोहल्ला भी है लाल खां के नाम पर –
लाल खां के मकबरे से थोड़ी ही दूर पर स्थित है बनारस का एक मुग़लकालीन मोहल्ला जिसे कभी लाल खां का निवास स्थान होने के कारण “चौहट्टा लाल खां” के नाम से जाना गया। आज भी यह मोहल्ला उसी नाम से आबाद है, इस मोहल्ले से भारतीय हिंदी सिनेमा के प्रसिद्ध सितारे आमिर खान का भी एक जज़्बाती रिश्ता है क्यूंकि इसी मोहल्ले में उनका ननिहाल है जहाँ कभी उनकी माँ ने अपना बचपन बिताया था।
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