भरमौर का प्राचीन लखना मंदिर

हिमाचल प्रदेश की ख़ूबसूरती किसी परिचय की मोहताज नहीं है। यहां की सुंदर प्राकृतिक छटा देखने के लिए हर साल यहां बड़ी संख्या में सैलानी आते हैं। लेकिन क्या आपको पता है, कि हिमाचल प्रदेश में कुछ प्राचीन मंदिर भी हैं जो 7वीं सदी के हैं और कुछ तो काष्ठ वास्तुशिल्प और कला के बेहतरीन नमूने भी हैं? इस मायने में चंबा ज़िले का छोटा-सा गांव भरमौर बहुत महत्वपूर्ण है। यहां मौजूद कई मंदिरों में एक मंदिर लखना मंदिर है। ये भारत में सबसे पुराने, लकड़ी के मंदिरों में से एक है। हालाँकि इसमें पत्थर का भी प्रयोग किया गया है, लेकिन मूल मंदिर के लकड़ी के अवशेष इसमें अब भी मौजूद हैं। ये इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये पश्चिमी हिमालय क्षेत्र की वास्तुकला शैली का प्रतिनिधित्व करता है।

भरमौर, चंबा से क़रीब 60 कि.मी. दूर स्थित है। ऐतिहासिक प्रमाणों में इसे ब्रह्मोर, भरमौर और ब्रह्मौर के नाम से भी जाना जाता है। किसी समय ये चंबा रियासत की राजधानी हुआ करता था और इस रियासत को ब्रह्मपुरा रियासत भी कहा जाता था। भरमौर का पुराना नाम ब्रह्मपुरा भी था। विद्वानों के अनुसार चंबा राज्य की स्थापना छठी सदी के मध्य में कभी हुई थी। कहा जाता है, कि रियासत का संस्थापक मारु था, जिसके वंशज अयोध्या के राजा थे। चम्बा की वंशावली में क़रीब 26 शासकों का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने 11वीं सदी तक यहां शासन किया था। वंशावली के अनुसार पहला राजकुमार, जिसने भरमौर में रियासत स्थापित की थी वो मारु का पुत्र जयस्तंभ था।

लेकिन इन शासकों में सबसे महत्वपूर्ण शासक मेरु वर्मन (7वीं सदी) था, जिसे भरमौर के कुछ प्राचीन मंदिर बनवाने का श्रेय जाता है। इन मंदिरों में लखना मंदिर भी शामिल है। हालांकि शुरुआत में रियासत बहुत बड़ी नहीं थी। इसमें भरमौर और इसके आसपास के क्षेत्र आते थे। ये रियासत छात्रारी गांव तक ही फैली हुई थी जो चंबा से 48 कि.मी. दूर है। कहा जाता है, कि मेरु वर्मन ने रियासत का विस्तार किया था। उसका साम्राज्य रवि घाटी तक फैल गया था। लेकिन मेरु वर्मन महज़ एक बहादुर और कुशल शासक ही नहीं, बल्कि एक बड़ा भवन निर्माता भी था। भरमौर में कई भवनों के अवशेष मौजूद हैं ,जिनका निर्माण उसके शासन काल में हुआ था। इससे साबित होता है, कि भरमौर के आरंभिक काल में भी ये रियासत ख़ुशहाल थी और उसके पास बहुत संपदा और माल-असबाब था।

चंबा और भरमौर क्षेत्र के प्राचीन अवशेषों पर सबसे पहले ध्यान भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के जनक अलेक्ड़ेंडर कनिंघम का गया था।

हालंकि वह इन क्षेत्रों का व्यापक अध्ययन नहीं कर सके, लेकिन उन्होंने यहां मिले कई अभिलेखों और ताम्रपत्रों के बारे में एक छोटी सी रिपोर्ट प्रकाशित की थी। सन 1901 से 1914 तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के साथ काम करनेवाले जीन पी वोगल ने सन 1900 में चंबा रियासत का दौरा किया था। वागेल ने सन 1911 में लिखी गई अपनी किताब, “एंटिक्विटी आफ़ चंबा स्टेट” में प्राचीन मंदिर के बारे में लिखा था।

भरमौर में कई प्राचीन मंदिर हैं। इनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध है, चौरासी मंदिर परिसर। जैसा की नाम से ज़ाहिर है, इस परिसर में 84 मंदिर हैं जो अलग-अलग समय के हैं। इस मंदिर परिसर में लखना या लक्षना मंदिर भी है। आधुनिक हिमाचल प्रदेश और आसपास के इलाक़ों में लकड़ी के मंदिर इस क्षेत्र की विशेषता हैं। इन मंदिरों पर लकड़ी पर बने अनगिनत पैटर्न आश्चर्यजनक हैं। इन मंदिरों के निर्माण में स्थानीय देवदार के वृक्षों की लकड़ी का इस्तेमाल किया गया है। मंदिर ख़ालिस लकड़ी के या फिर पत्थरों के साथ मिलाकर बनाए गए हैं। हिमाचल प्रदेश में लकड़ी के जो मंदिर बचे रह गए हैं, वे 7वीं सदी के बाद बनवाए गए थे। इनमें सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध हैं भरमौर का लखना (लक्षना) देवी मंदिर, उदयपुर का मृकुला देवी मंदिर, छात्रारी का शक्ति देवी मंदिर परिसर और निरमंड का दक्षिणेश्वर महादेव मंदिर।

लखना (लक्षना) मंदिर बाहर से देखने पर लकड़ी की एक छोटी सी झोंपड़ी की तरह लगता है. जिस पर पत्थरों का काम भी है। लेकिन मंदिर में प्रवेश करते ही आप लकड़ी की मूल नक़्क़ाशी को देखकर चकित रह जाएंगे, जो लगभग 1400 साल पुरानी है।

ये मंदिर लखना (लक्षना) को समर्पित है, जिसे दुर्गा के महिषासुरमर्दिनी रूप का एक रुप माना जाता है। मंदिर के गर्भगृह में लखना देवी की पीतल की मूर्ति स्थापित है। मूर्ति के बेस पर एक अभिलेख है, जिस पर कोई तारीख़ अंकित नहीं है। इस अभिलेख के अनुसार ये मूर्ति राजा मेरु वर्मन के आदेश पर गुग्गा नाम के शिल्पी ने बनाई थी। एक अनुमान के अनुसार, मंदिर का निर्माण 7वीं सदी के आरंभ में हुआ होगा। ये अभिलेख इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे हमें राजा मेरु वर्मन की तीन पीढ़ियों के बारे में पता चलता है। मंदिर की वास्तुशिल्प शैली और कला गुप्त काल के बाद की है। पिछले कई बरसों में मरम्मत, पर्यावरण और क्षेत्र के बदलते इतिहास के साथ मंदिर के ढांचे और रुप में कई परिवर्तन हुए हैं।

लेखक ओ.सी. हांडा की किताब “टैंपल आर्किटेक्चर ऑफ़ द वेस्टर्न हिमालयाज़-वुडन टैंपल्स”- (2001) के अनुसार मंदिर पर लकड़ी की नक़्क़ाशी की संरचना पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में लकड़ी पर नक़्क़ाशी की आरंभिक बानगी है। इसे मंदिर के स्तंभों, अग्रभाग और छत पर देखा जा सकता है। मंदिर का नक़्शा आयताकार है। इसका छप्पर त्रिभुजाकार और नोकदार है, जो हिमालय क्षेत्र के मंदिरों की विशेषता मानी जाती है। हांडा के अनुसार हो सकता है कि मूल नक़्शे में मंदिर खुला हुआ, दो स्तरीय रहा हो।

विद्वानों के अनुसार मंदिर का अनूठा प्रवेश-द्वार, गुप्तकाल के बाद के समय की विशेषता होती थी। इसका लकड़ी का अग्रभाग बहुत प्रभावशाली है। अग्रभाग में तीन खंड है- दरवाज़े की नक़्क़ाशीदार चौखट के कोने नुकीले हैं, एक आयताकार खंड दरवाज़े की चौखट और तिकोने क्षेत्र के बीच में है और ऊपर एक आयताकार तिकोना है। मंदिर के दरवाज़े के पल्ले देखने लायक़ हैं, जिन पर छोटी छोटी मूर्तियां, फूल और वनस्पति की नक़्क़ाशी है।

इस मंदिर में मंडप और गर्भगृह की छतों पर लकड़ी की नक़्क़ाशी भी देखने योग्य है। मंडप की छत तीन खंडों में विभाजित है। प्रत्येक खंड में आठ पांखुड़ियों वाला खिला हुआ एक कमल बना है और किनारों पर घूंघर और रंगबिरंगे पैटर्न बने हुए हैं। मध्य खंड ऊपर उल्लेखित फ़ानूस की छत का प्रतिनिधित्व करता है। अनुक्रम बनाने के लिये इसमें तिरछी तहों में परतदार चौकोर आधार बने हुए हैं। गर्भगृह की छत मंडप की छत की शैली और शिल्प की तरह ही है। बस फ़र्क इतना है, कि ये आयताकार है।

हिमाचल प्रदेश में जहां हर साल बड़ी संख्या में सैलानी आते हैं, लेकिन भरमौर और लखना (लक्षना) जैसे इसके प्राचीन मंदिरों पर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। इसे देखा और सराहा जाना ज़रुरी है।

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