कुचामन सिटी: भामाशाहों की नगरी

‘‘जननी जण तो दो जण, कै दाता कै सूर,
नहीं तो रहज्या बाँझड़ी, मती गंवाजै नूर।।
माता-पिता ने जन्म दियो, कर्म दियो करतार,
हाथी रे घोड़ा, माल-खजानो, जातानी लागे वार।

कुचामन शहर को भामाशाह, दानदाता और शूरवीरों के साथ-साथ शिक्षा की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। यह नागौर ज़िले के मध्य में स्थित अत्यन्त विकासशील क़स्बा है। यहाँ के लोग, अपने शहर के चौतरफ़ा विकास के लिये, अपनी हैसियत के हिसाब से कुछ ना कुछ सहयोग ज़रूर करते रहते हैं। इस क़स्बे में सेवा भावी, सज्जनों, दानदाताओं, भामाशाहों की कमी नहीं है। इस शहर के विकास के लिए कई समाज सेवी संस्थाएँ हरदम कार्यरत हैं । इनमें से एक कुचामन विकास समिति की स्थापना वर्षों पहले हुई थी। सभी लोगों के सहयोग एवं सद्भावना से विकास समिति ने अपने आरंभिक दिनों से ही जनसेवा के अनेक कामों को अंजाम दिया है। इस संस्था ने पुस्तकालय और गौशालाएं बनवाई हैं, साथ ही राष्ट्रीय कला मंदिर जैसी संस्थायें स्थापित की हैं।

कला, साहित्य एवं संस्कृति की जननी :-

यह क़स्बा माँ सरस्वती पुत्रों की जननी रहा है। यहाँ कुचामणी ख़्याल के जनक पं. लच्छीराम, नीति परक (राजिया रा दुहा) दोहों की स्थापना करने वाले कृपाराम खिड़िया के अलावा भविष्यवेता, गीत संगीत के साधक, चित्रकार, भवन निर्माता, खेल-खिलाड़ी, पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशक और चलचित्रों के माध्यम से मायानगरी में फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में भी यहाँ के युवाओं ने लौहा मनवाया है। इनमें से मदनगोपाल काबरा ने सन 1937 में कलकत्ता में कॉर्पोरेशन ऑफ़ इण्डिया नाम से प्रोडक्शन कम्पनी बनाकर 1938 से 1943 तक आशा, राइस, रूकमा, दिल ही तो है, हिन्दूस्तान हमारा है, क़ैदी, चित्रलेखा, औलाद सहित अन्य कई फिल्मों का निर्माण किया था।

वहीं दूसरी ओर मायानगरी मुम्बई में ताराचंद बड़जात्या परिवार ने अपने राजश्री प्रोडक्शन एवं राजश्री पिक्चर्स के माध्यम से पारिवारिक एंव नैतिक पृष्ठभूमि की कई फ़िल्में बनाईं। जिनमें भारती, दोस्ती, सौदागर, गीत गाता चल, तपस्या, चितचोर, नदिया के पार, हम आपके हैं कौन, मैंने प्यार किया, प्रेम रतन धन पायो जैसी कई सुपरहिट फिल्में शामिल हैं ।इनमें से कई फ़िल्मों ने देश के कई प्रतिष्ठित अवार्ड जीते हैं। ऐसे फ़िल्म निर्माताओं, कलाकारों के कारण कुचामनवासी गर्व महसुस कर रहे है। वहीं स्वतंत्रता सेनानी माणिकचन्द्र कोठारी ने दशकों तक राजनीतिक नेतृत्व प्रदान किया था।

इतिहास के आइने में कुचामन :-

ठाकुर जालिमसिंह मीठड़ी बचपन से ही कुशल संगठक, वीर पुरूष थे। इनके बारे में लिखा है कि ‘‘लड़ी लड़ायी दूसरी, जालिम जित्यों जूसरी’’ बड़े भाई से मनमुटाव होने के कारण गाँव से अपनी माँ हाड़ी रानी और परिवार सहित दिल्ली के लिए रवाना हुए तो वर्तमान कुचामन खारड़ा के पास एक ढ़ाणी में आश्रय लिया। वहाँ के लोगों ने अपने संरक्षक के रूप में उनसे यहीं रूकने का आग्रह किया। यह ठाणी कुचबंधिया लोगों की थीं, जो इस क्षेत्र में ज़्यादा मात्रा में होने वाले कुंचो सरकंड़ो का काम करते थे। यहाँ विश्राम कर रहे जालिमसिंह ने देखा की पास के त्रिकोण पर्वत पर धुआँ उठ रहा है। पता करने पर जानकारी मिली की पहाड़ी पर बाबा हरिदास (बनखण्डी) की धूणी है जिन्हें लोग अल्लू या आलूनाथ जी भी कहते थे। जालिमसिंह ने पहाड़ी पर जाकर बाबा को प्रणाम किया तो बाबा ने आशीर्वाद स्वरूप सात पत्थर दिये और कहां “ गढ़ का निर्माण कर , तेरा वंश यहाँ राज करेगा”। “कुचामन का इतिहास” के लेखक नटवरलाल बक्ता के अनुसार कहा जाता है कि बाबा ने सात पीढ़ी राज करने का आशीर्वाद दिया था। संवत् 1791 की कार्तिक मास कृष्णा पक्ष 14 को छोटी दीपावली के दिन कुचामन क़िले की नींव रखी गई थी। यहाँ कई लड़ाईयाँ हुई जिनके के बारे में एक दोहा प्रचलित है :-

‘‘सोने चिड़ी सरनाटे बोली, तीतर बोल्यो घाटे, मीरों मर्द गढ़ी में बोल्यो, ज़ालिम बोल्यों झाँटे,,

अहमदाबाद के युद्ध विजय के दौरान भगवान नटवरजी और नवनीत प्रिया जी की मूर्तियाँ प्राप्त हुईं जिन्हें क़िले में स्थापित कर भगवान नटवरजी के नाम से राज्य स्थापित किया गया। इस स्थल को वैदिक कालीन देवयानी, शर्मिष्ठा, ययाति, कच व गुरु शुक्राचार्य से भी जोड़ा जाता है। कुचामन में स्थित काव्यर्षि कुण्ड को शुक्राचार्य का आश्रम, इसी जंगल में असुर चंड द्वारा कच को सरकन्डों में जलाना, देवमाली और शर्मिष्ठा की भूमि समीप के सांभर क़स्बे को माना जाता है। इस प्रकार पौराणिक काल से गुर्जर-प्रतिहार, चौहान, गौड़, मुग़ल व राठौड़ शासन काल तक के यहाँ प्रमाण मिलते हैं।

कुचामन की टकसाल एवं सिक्के :-

मारवाड़ (जोधपुर) राज्य के शहर कुचामन का महत्त्वपूर्ण स्थान था। यहाँ के शासक को एक हज़ार सैनिक रखने, क़िला बनवाने और अपनी मुद्रा चलाने, माप-तौल प्रणाली लागू करने का अधिकार था। यहाँ चाँदी के सिक्के चलाये गये थे। जिसे बोरसी रूपया, बापू शाही सिक्का कहाँ जाता था। इन सिक्कों का मूल्य 166 ग्रेन यानी ब्रिटिश सिक्कों के 10 आना 3 पाई के बराबर होता था।

 

कुचामन का किला :-

त्रिकुट पर्वत पर 1455 फ़ुट की ऊँचाई पर यह क़िला दूर से ही पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व बाबा बनखण्डी के आशीर्वाद से इस क़िले का निर्माण शुरू हुआ था। बाबा ने कहा था कि ‘‘मेरी धुणी जलती रहेगी और तेरी करणी रहेगी’’ और अपने चिमटे से ज़मीन खोदकर सात पत्थरों से नींव भर दी थी। यह ऐसा क़िला है जिस पर कभी किसी दुश्मन ने हमला नहीं किया। इस क़िले के हर कोने में संस्कृति और स्थापत्यकला की छाप दिखलाई देती है। यहाँ बर्जु, सुदृढ़ प्राचीरें, शीशमहल, शस्त्रागार, हवामहल, सिहलख़ाना, हाथी टीबा, हस्तिशाला के अलावा क़िले में राठौड़ राजवंश राजाओं और राजसभाओं के चित्र, पंचपोल मुख्य आकर्षक के केन्द्र हैं। यहाँ भ्रमण करने से अपने आप में एक बड़ा रोमांच महसूस होता है।यहां प्रतिदिन सैंकड़ों पर्यटक आते हैं। वर्तमान में इस क़िले की व्यवस्था आनन्दमयी माँ ट्रस्ट के मेघराज सिंह शेखावत देख रहे हैं। इस दुर्ग में द्रोण, जोधा-अकबर, सहित अन्य कई फ़िल्में, और धारावाहिकों की शूटिंग होने से यहाँ के पर्यटन उद्योग को बढ़ावा मिला है। इस शहर में भगवान गणेश, और प्रसिद्ध सूर्य मंदिर के अलावा कई मंदिर, मस्जिद, देवरे, बाग़-बग़ीचे, कलात्मक भवन, दरवाज़े, सैरगाह तथा बागर बने हुए हैं। यहाँ की जाव की बावड़ी को जल-स्वावलम्बन योजना का मॉडल बनाया गया था।

इसकी तारीफ़ स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने की है। यहाँ के प्रसिद्ध और प्रमुख उत्सव गणगोंर पर्व को देखने देश-विदेश के पर्यटक आते है।

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