भव्य और सुसज्जित रथ के रुप में किसी मंदिर का निर्माण कोई साधारण बात नहीं है लेकिन ओडिशा के कोणार्क सूर्य मंदिर को तो साधारण श्रेणी में माना ही नहीं जा सकता । यूनेस्को की विश्व धरोहर की सूची में शामिल सूर्य मंदिर 13वीं शताब्दी का है लेकिन क्या आपको पता है कि कोणार्क में इस तरह के सूर्य मंदिर पहले भी रहे हैं ? कहा जाता है कि यहां ऐसा ही एक मंदिर ढ़ाई हज़ार साल पहले हुआ करता था।
ओडिशा में उत्तर-पूर्वी तटीय शहर पुरी की तरफ़ कोणार्क में स्थित सूर्य मंदिर अपने नाम के अनुरुप सूर्य देवता को समर्पित है। ये मंदिर रथ के आकार में है जिसमें चौबीस पहिये हैं और रथ को सात घोड़े खींच रहे हैं। इसे भारत का ब्लैक पगोडा (काला देवालय) भी कहा जाता है। ये भारत में मंदिर वास्तुकला का एक बेहतरीन नमूना है।
इतिहास और किवदंतियां
5वीं और छठी शताब्दी के दौरान ऐतिहासिक कलिंगा प्रांत, आज के पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों पर मध्यकालीन भारत के पूर्वी गंग राजवंश का शासन हुआ करता था। सन1244 में राजवंश के नरसिम्हा देव प्रथम (1236-1287) ने कोणार्क में सूर्य मंदिर बनाने का आदेश दिया था। लेकिन कोणार्क कोई मामूली जगह नहीं थी क्योंकि प्राचीनकाल से ही इसे सूर्य देवता का निवास माना जाता रहा था। विभिन्न शास्त्रों में कोणार्क को सूर्य देवता की अराधना का केंद्र बताया गया है। शिव पुराण और स्कंद पुराण में इसका उल्लेख सूर्य क्षेत्र जैसे नामों से मिलता है। इसके अलावा कपिल संहिता जैसे कुछ प्राचीन ग्रंथों में मैत्रेय वन नाम से भी उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि मैत्रेय बोधिसत्व ने यहां रहकर साधना की थी।
ऐसा माना जाता है कि कोणार्क दो शब्दों को मिलाकर बना है, कोण और आर्क (सूर्य)। कोणार्क की भौगोलिक स्थिति, यानी यहां सूर्य उदय एक ख़ास कोण से होता होगा और तभी शब्द कोर्ण यहां से लिया गया होगा। एक अन्य लोककथा के अनुसार इस शहर को और पवित्र इसलिये भी माना जाता है क्योंकि यहां भगवान शिव ने अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिये ख़ुद सूर्य देवता की पूजा की थी। एक तरफ़ जहां कई अन्य ग्रंथों में कोणार्क का, सूर्य देवता की अराधना के केंद्र के रुप में ज़िक्र है, वहीं एक ग्रंथ में यहां पहले सूर्य मंदिर की स्थापना के बारे में बताया गया है।
सूर्य देवता को समर्पित प्राचीन ग्रंथ साम्ब पुराण में कृष्ण के पुत्र साम्ब का उल्लेख है। कथा के अनुसार साम्ब को कुष्ठ रोग का श्राप मिला था। इस श्राप से बचने के लिये उसने मौत्रेय वन (कोणार्क) में बारह साल तक सूर्य की पूजा की थी और फिर 19वीं ई.पू. में यहां सूर्य मंदिर बनवाया था। कहा जाता है कि तभी से कोणार्क में सूर्य की पूजा करने की परंपरा शुरु हुई जो आज भी जारी है।
माना जाता है कि कोणार्क में मौजूदा समय के सूर्य मंदिर के पहले सोमजवंशी शासकों ने 9वीं शताब्दी में यहां सूर्य मंदिर बनवाया था। सोमजवंशियों को केशरी राजवंश भी कहा जाता है जिनका शासन पूर्वी भारत पर होता था। केशरी राजवंश ने 9वीं से 12वीं शताब्दी के दौरान आधुनिक ओडीशा के कुछ हिस्सों पर शासन किया था। इन क्षेत्रों को कौशल कहा जाता था। पूर्वी गंग राजवंश ओडीशा के भिन्न हिस्सों और पड़ोसी क्षेत्रों पर शासन करता था। पूर्वी गंग राजा अनंतवर्मन चोडगंग ने केशरी राजा को हराकर क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया था और इस तरह केशरी राजवंश के शासन का अंत हो गया। 12वीं शताब्दी के शास्त्र मदल पणजी के अनुसार केशरी राजवंश के राजा पुरंदर केशरी ने सन 870 में कोणार्क में सूर्य मंदिर बनवाया था, जिसका उल्लेख मदल पणजी में भी किया गया है। मदल पणजी एक प्राचीन लेख है जिसमें ओडीशा के जगन्नाथ मंदिर का इतिहास मिलता है। कहा जाता है कि इस मंदिर के अवशेष सूर्य मंदिर के परिसर में देखे जा सकते हैं। इन्हें छाया देवी या मायादेवी मंदिर के रुप में जाना जाता है।
ओडीशा में 7वीं और 13वीं शताब्दी के बीच मंदिर निर्माण की गतिविधियां अपने चरम पर थीं। पूर्वी गंग राजवंश के शासन के दौरान सूर्य-पूजा का चलन एक बार फिर शुरु हो गया, ख़ासकर कोणार्क में। राजा नरसिम्हा देव प्रथम द्वारा सूर्य मंदिर बनवाने के कारण के पीछे कई कहानियां हैं। एक कथा के अनुसार नरसिम्हा देव के पिता अनंगभीम देव ने कोणार्क में सूर्य देवता की उपासना की थी और तभी पुत्र के रुप में उन्हें नरसिम्हा देव की प्राप्ति हुई थी। अपने माता-पिता की इच्छा को पूरी करने के लिये नरसिम्हा देव ने विशाल सूर्य मंदिर बनवाया। नरसिम्हा देव द्वतीय के समय सन 1295 के तांबे के शिला-लेख के अनुसार नरसिम्हा देव के पिता पुरी के जगन्नाथ मंदिर का विस्तार करना चाहते थे और उनकी यही इच्छा पूरी करने के लिये नरसिम्हा देव प्रथम ने कोणार्क में सूर्य मंदिर बनवाया था। जगन्नाथ का मंदिर अनंगभीम देव के पूर्वज चोडगंग (1077-1150) ने बनवाया था।
मंदिर की अनोखी वास्तुकला
सूर्य मंदिर में कलिंगा वास्तुकला की विशेषताएं साफ़ झलकती हैं। यहां जगमोहन (जन सभागार), शिखर, विमन और नट मंदिर जैसी कलिंगा वास्तुकला की विशेषताएं देखी जा सकती हैं। ये मंदिर परंपरा के अनुसार बनाया गया है। ऐसा कहा जाता है कि इसका डिज़ाइन इस प्रकार है कि सूर्य की पहली किरण मुख्य मंदिर के गर्भगृह में स्थापित सूर्य की प्रतिमा पर पड़ती थी।
ये मंदिर भगवान सूर्य के वाहक रथ के रुप में बनाया गया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार सूर्य देवता अपने रथ पर सवार होकर आकाश की परिक्रमा करते हैं। इस रथ को सात घोड़े खींचते हैं। मंदिर के चबूतरे पर सुंदर तरीक़े से उकेरे गए 24 चक्र हैं। ये चक्र या पहिये 24 पखवाड़े, बारह महीने या फिर दिन के 24 घंटे को दर्शाते हैं। माना जाता है कि सात घोड़े सप्ताह के सात दिनों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जबकि कुछ का मानना है कि सात घोड़े सूर्य की किरण के सात रंगों को दर्शाते हैं। प्रत्येक पहिये में आठ छड़े लगी हुई हैं जो दिन के आठ पहरों की प्रतीक हैं। एक अन्य विवेचना के अनुसार चूंकि सूर्य पृथ्वी पर जीवन का स्रोत है इसलिये पहिये जीवन-चक्र के प्रतीक हैं।
रथ के पहियों के बीच में मंदिर की चौकी पर पशुओं, संगीतकारों और नृतकों के चित्रों की सुंदर नक़्क़ाशी है। इनके अलावा इस पर उत्तेजक चित्र भी बने हुए हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों पर ऊपर से लेकर नीचे तक देवी-देवताओं, इंसानों आदि के चित्र बने हुए हैं। नट मंदिर की दीवारों पर अंकित कलाकृतियों में रोज़मर्रा के जीवन को दर्शाया गया है।
पहले क्या था
आज जो मंदिर आप देखते हैं वह एक बड़े परिसर का हिस्सा हुआ करता था और एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल भी था। 8वीं शताब्दी में चीनी बौद्ध भिक्षु ह्वेन त्सांग वर्तमान समय के ओडीशा आया था। उसने लिखा है कि कोणार्क बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। अबुल फ़ज़ल (1556-1605) ने आईन-ए-अकबरी में लिखा है कि सूर्य मंदिर के अलावा परिसर के अंदर छह और सूर्य मंदिर के आसपास 22 और मंदिर थे।
किसी अज्ञात कारणवश मंदिर का ढांचा ढ़ह गया और आज हम जो देखते हैं वो एक विशाल मंदिर का एक हिस्सा मात्र है। अब सिर्फ़ जगमोहन ही बचा हुआ है। अन्य बचे हुए मंदिर के हिस्सों में रेखा देउल की चौकियां और निचली दीवारें और नट मंदिर के कुछ स्तंभ हैं। मंदिर परिसर में रेखा देउल सबसे बड़ा ढांचा है। इसके तीन तरफ़ मंदिर हैं जहां क्लोराइट में सूर्य की आदम क़द प्रतिमाएं लगी हैं। जगमोहन के तीन तरफ़ के दरवाज़े और सीढ़ियां नक़्क़ाशीदार हैं। इन पर घोड़ों और हाथियों के चित्र अंकित हैं। यहां संगीतकारों की भी मूर्तियां हैं।
19वीं शताब्दी के दौरान अलग अलग समय में कोणार्क आए डब्ल्यू. डब्ल्यू हंटर, एंड्रू स्टर्लिंग और जैम्स फ़र्गुसन जैसे इतिहासकारों और विद्वानों ने सूर्य मंदिर के बारे में लिखा और रेखा-चित्र बनाये। उनके रिकॉर्ड से हमें मुख्य मंदिर के अवशेषों के बारे में पता चलता है। उनके रिकार्ड्स से ये भी पता चलता है कि कैसे मंदिर धीरे धीरे इस दौरान तक क्षय होता रहा। इतिहासकार राजेंद्र लाला मित्रा भी यहां सन 1868 में आए थे। वह लिखते हैं “मंदिर पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है, इसके आस पास पत्थरों का ढ़ेर और पीपल के पेड़ हैं। यहां सापों का भी बसेरा हो गया है जिसकी वजह से लोग इससे दूर ही रहते हैं।”
20 शताब्दी में अलग अलग समय पर यहां खुदाई का काम हुआ। खुदाई में मायादेवी मंदिर और वैष्णव मंदिर जैसे अन्य मंदिरों का पता चला जिन्हें आज भी देखा जा सकता है। इसी तरह भोगमंडप (रसोई) भी मौजूद है हालंकि जर्जर अवस्था में है। मंदिर के ज़्यादातर अवशेष और पैनल्स कोणार्क संग्रहालय में रख दिये गए हैं जो इसी परिसर में है और जो भारतीय पुरातत्व विभाग की देखरेख में आता है।
भारत के कोणार्क सूर्य मंदिर को देखने आज सबसे ज़्यादा लोग जाते हैं। इससे पता चलता है कि एक समय सूर्य की उपासना कितनी चलन में थी। कोणार्क के अलावा कश्मीर, गुजरात में मोढेड़ा, महाराष्ट्र में लोनर और तमिलनाडु में भी सूर्य मंदिर हैं। कणार्क सूर्य मंदिर कलिंगा वास्तुकला और परंपरा का एक शानदार उदाहरण है जिसे ज़रुर देखना चाहिये।
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