क़िस्सा-ए-संजान…पारसी समुदाय की दिलचस्प कहानी  

अगर कोई ये कहे कि टाटा, गोदरेज, मिस्त्री या फिर बॉम्बे डाइंग के वाडिया विदेशी शरणार्थियों के वंशज हैं तो शायद आपको यक़ीन न हो पायेगा लेकिन ये सच है। इन पारसी शरणार्थियों ने 1200 साल पहले भारत के पश्चिमी तट पर शरण ली थी। आज हमारे देश में जो पारसी हैं वे पारसी शरणार्थियों के ही वंशज हैं जो सन 641 में अरब सेना के हाथों सैसानी शासक यज़्देगर्द शहरियार की हार के बाद ईरान से भाग गए थे। हम क़िस्सा-ए-संजान कविता के ज़रिये उनके भारत आने की दिलचस्प कहानी आपको सुनाने जा रहे हैं। काफ़ी लंबे समय तक लोगों को लगता था कि क़िस्सा-ए-संजान कोई लोक कथा है लेकिन हाल ही में पुरातत्व-प्रमाण से इस बारे में कुछ दिलचस्प बातें सामने आई हैं।

क़िस्सा-ए- संजान कविता दस्तूर बहमन कैकोबाद ने लिखी थी जो सन 1599-1600 के बीच गुजरात के नवसारी में एक स्थानीय पारसी पुजारी थे। वह उन मूल पुजारियों के वंशज थे जिन्होंने पवित्र अग्नि ईरानशाह जलाई थी। क़िस्सा-ए-ज़रथ्रुस्ट-ए-हिंदुस्तान नाम की भी एक कविता है लेकिन ये क़िस्सा-ए-संजान की महज़ एक नक़ल है जिसमें नवसारी की कुछ पंक्तियां बाद में जोड़ी गई थीं।

क़िस्सा शुरु होता है सन 641 में नेहावंद के युद्ध में ईरान के अंतिम सैसानी बादशाह यज़्देगर्द की हार के साथ। ये क़िस्सा है एक छोटे मगर बहादुर धार्मिक शरणार्थियों का जो भाग कर ख़ोरासन की पहाड़ियों में सैसानी राजकुमारों के बीच छुप गए थे। ये सैसानी राजकुमार अरब हमलावरों से मुक़ाबला कर रहे थे। इसके बाद कहानी सौ साल आगे बढ़ जाती है जब ज़रथ्रुष्ट्र राजकुमार की पराजय हो जाती है। इसके बाद शरणार्थी (या उनके वंशज) होरमुज़ (मौजूदा समय का ईरान) चले जाते हैं जहां वे तीस साल तक रहते हैं।

इसके बाद वे ईरान छोड़कर भारत रवाना हो जाते हैं और दीव पहुंच जाते हैं। दीव में 19 साल रहने के बाद पश्चिम भारत के स्थानीय शासक जदी राणा उन्हें पनाह देदेते हैं। दीव में रहने के बाद वे वहां से भी निकल पड़े हैं लेकिन यात्रा के दौरान उन्हें भयंकर तूफ़ान का सामना करना पड़ता है। वे ईश्वर से वादा करते हैं कि अगर उन्हें तूफ़ान से बचा लिया गया तो वे महादूत बहरम की शान में अगियारी बनवाएंगें। कहा जाता है इसके बाद तूफान थम गया था। यात्रा पूरी करने के बाद वे एक शहर बनाते हैं जिसका नाम संजान रखते हैं।

संजान दरअसल वो शहर था जिसमें वे ख़ोरासन प्रवास के दौरान रहते थे। उत्तरी ईरान में मज़ानदरन के पास ये शहर आज भी मौजूद है जिसका नाम सिंदन है। शहर के अलावा पारसियों ने अपने वादे के मुताबिक़ आतश बहरम नाम का एक अगियारी भी बनवाया। अग्नि का नाम उन्होंने अपनी खोई मातृभूमि की याद में ईरानशाह रखा। पारसियों ने वादा किया कि अगर उन्हें उनके धर्म का पालन करने दिया जाता है तो वे स्थानीय रीति-रिवाज अपनाएंगे, स्थानीय भाषा बोलेंगे और स्थानीय लोगों की तरह ही कपड़े पहनेंगे। राजा राणा ने उनसे हथियार नहीं रखने को कहा जो वे मान गए।इसके बाद अगले 300 साल तक पारसी यहां फलेफूले।

लंबे समय तक यहां रहने के बाद पारसी उत्तर और दक्षिणी संजान की तरफ़ फैल गए लेकिन तभी उनकी शांति भंग हो गई। संजान पर सुल्तान महमूद ( संभवत: महमूद अलाउद्दीन ख़िलजी-1297-98) के आदेश पर जनरल अलफ़ ख़ान ने हमला बोल दिया। स्थानीय शासक के कहने पर पारसियों ने हथियार उठा लिये और दुश्मनों से मुक़ाबला किया लेकिन युद्ध के दूसरे दिन उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा और संजान पर दुश्मनों का कब्ज़ा हो गया। लेकिन हार के पहले उन्होंने महिलाओं और बच्चों को पुजारियों और ईरानशाह के साथ बहरोट के पहाड़ों में भागने का मौक़ा दे दिया। यहां वे 12 साल तक छुपे रहे और फिर वंसदा शहर चले गए। 14 साल बाद नवसारी के पारसी,संजान आते हैं और पुजारियों तथा अग्नि को नवसारी ले जाते हैं।

क़िस्सा तो यहां ख़त्म हो जाता है लेकिन कहानी जारी रहती है। ईरानशाह (अग्नि ज्योति) नवसारी में सन 1741-42 तक रही और तभी संजान के पुजारियों और स्थानीय नवसारी के पुजारियों के बीच विवाद हो जाता है। ये विवाद इतना बढ़ जाता है कि संजान के पुजारी ईरानशाह को छोटे शहर उडवाड़ा ले जाते हैं और वहां इसे स्थापित कर देते हैं। नवसारी छोड़ने के 280 साल बाद भी आज भी यहां ईरानशाह ज्योति प्रज्वलित है। ये ज्योति क़रीब 1240 साल पहले जलाई गई थी। ईरानशाह पारसी समुदाय का सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक प्रतीक है। यहां दोना पारसी (मूल शरणार्थियों के वंशज) और ईरानी (19वीं शताब्दी में भारत आने वाले पारसी शरणार्थी) पूजा करते हैं। इस स्थान की यात्रा के बिना कोई धार्मिक अनुष्ठान या शादी- ब्याह नहीं होता है।

भारत में अगर पारसी समुदाय का इतिहास जानना हो तो क़िस्सा-ए -संजान ज़रुर पढ़ा जाना चाहिये। कई इतिहासकारों के पहले इसे लेकर संदेह था लेकिन संजान की खुदाई के बाद ये संदेह ख़त्म हो गया। सन 2002-2004 में संजान की खुदाई में इस बात की पुष्टि हुई कि पारसी यहां
आकर बसे थे। खुदाई में मिट्टी के पश्चिम-एशियाई बर्तन, पश्चिम-एशियाई कांच और मुद्राएं मिली हैं जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि उनका संबंध ईरान से था।

इसके अलावा कोंकण के चिनचानी गांव में तांबे की पांच प्लेटें भी मिली हैं जो अप्रत्यक्ष रुप से 10वीं और 13वीं शताब्दी में पारसियों की मौजूदगी तथा संजन बंदरगाह की तरफ़ इशारा करती हैं। इसकी पुष्टि अरब के कई यात्रियों के वृतांत से भी होती है। अल बिलादुरी, इब्न हौकल, अल इश्ताकारी और अल मसूदी जैसे भूगोल शास्त्रियों ने संजान का ज़िक्र किया है। इसके अलावा उन्होंने संजान बंदरगाह से फ़ारस की खाड़ी में जहाज़ के ज़रिये सामान लाने ले जाने का भी उल्लेख किया है। क़िस्से को कभी संदेह की नज़र से भी देखा जाता था लेकिन आज ये पारसियों के इतिहास का एक पक्का दस्तावेज़ है। कभी क़िस्से को एक कहानी मात्र माना जाता था लेकिन आज ये एक सच्चाई है। आज भारत का पारसी समुदाय क़िस्से को अपने इतिहास और पूर्वजों के संघर्ष का एक प्रमाणिक ग्रंथ मानता है।

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