राजस्थान के मारवाड़ प्रान्त के हर गाँव, ढ़ाणी और क़स्बे का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है। आज आपको एक ऐसे ही ऐतिहासिक गाँव की कहानी से रूबरू करवाने जा रहे हैं जिसका नाम है ख़वासपुरा । जी हां यह एक छोटा-सा गाँव है जिसे कुछ समय के लिए मारवाड़ की राजधानी होने का गौरव प्राप्त हुआ था । यह बात सन 1600 के आसपास की है । जब दिल्ली के बादशाह शेरशाह सूरी के सेनाध्यक्ष एवं सरदार खवास खां को इस गाँव की पहाड़ियों में एक पारस पत्थर मिल गया था। यह वही पारस पत्थर था जिसके बारे में कहा जाता है कि इसके छुने से सामान्य धातुएं सोने में तब्दील हो जाती हैं।
किसी समय में यहाँ डेगाना मेड़ता से होती हुई जोजरी नदी बहा करती थी। दूर दूर तक वीरान पड़ी इस जगह पर खवास खां के आदेश से ज़मीन के नीचे इसी पारस पत्थर की मदद से सोने का महल बनाने का कार्य शुरू हुआ था । लेकिन पारस पत्थर के मिलने की सूचना दिल्ली दरबार तक पहुंच गई । फिर इस पारस को प्राप्त करने के लिए पुष्कर के पास भीषण युद्व हुआ, मगर ख़वास खां ने उस पारस पत्थर को पुष्कर के पवित्र कुंड में फेंक दिया। ख़वास ख़ां की यह कहानी इस गाँव के प्रत्येक बुज़ुर्ग की ज़बानी सुनी जा सकती है। इतिहासकार मुहनौत नैणसी ,अंग्रेज़ इतिहासकार कर्नल टाड ,गौरी शंकर ओझा ने भी कई जगह ख़वासपुरा गांव का ज़िक्र किया है। ढ़ाका विश्वविद्यालय के डा.कालिका रंजन क़ानूनगो ने अपनी पुस्तक “शेरशाह सूरी और उसका समय” तथा प्रसिद्व साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द के उपन्यास“रूठी रानी” में भी वर्तमान जोधपुर ज़िले के इस ख़वासपुरा गाँव का वर्णन मिलता है ।
सुमेलगिरी युद्व में विजय प्राप्त करने के बाद शेरशाह सूरी ने अपने सरदार खवास खाँ को सेना सहित जोधपुर क़िला फ़तेह करने के लिए भेजा था कुछ दिनों के घेराव के बाद क़िले पर खवास खां का क़ब्ज़ा हो गया । इसके बाद राव मलदेव की रूठी रानी से अनुमति लेकर खवास खां ने उस गाँव का नाम अपने नाम पर ख़वासपुर रख दिया था। कुछ समय बाद मारवाड़ की सेना के साथ युद्ध करते हुए जब खवास खाँ मारा गया तब उसे यहीं लाकर दफ़नाया गया था।
खण्डहर महल: 16वीं सदी में निर्मित ख़वासपुरा के यह महल कभी चिराग़ों की रोशनी से जगमगाया करते थे, जहाँ हर रोज़ दरबार सजते थे। वहाँ सुल्तान के वज़ीर-ए-आज़म, मनसबदार और क़ाज़ी आदि हाज़िर होकर शाही फ़रमान जारी किया करते थे। यह वही महल हैं जो आज उपेक्षा का शिकार होकर खण्डहरों में तब्दील हो रहे हैं। ख़वासपुरा के इन महलों में मारवाड़ की सत्ता संभालने वाले ख़वास खां ने अपने विजय अभियान के दौरान यहाँ शाही फ़ौज का पड़ाव डाला था । यहीं पर अपनी राजधानी बनाकर एक सौ बीघा भूमि पर ऐतिहासिक धरोहरों का निर्माण करवाया था । वर्तमान में इस जगह को राजस्व विभाग में “दरगाह बनाम डोली” के रूप में दर्ज किया हुआ है ।
इन खण्डहरों में आज भी प्रतिदिन चिराग़ जलाने वाले सांई परिवार ने बताया कि यहाँ कभी बड़ा महल, बीबी का झूलना, आज के तरणताल( स्विमिंग पूल) की तरह की झील, रहस्यमयी सुरंगें, ख़वास खाँ का झूला, बड़ा चबूतरा, दरबार हाल, पूजा घर सहित कई चीज़ें मौजूद थीं । मगर समय के साथ हर चीज़ खण्डहर में तब्दील होती जा रही है । मुख्यरूप से भूमिगत महलों की छतें टूटने से अन्दर के ऐतिहासिक कक्षों की झलक देखने को मिलती है । कई लोगों ने इन महलों से आती कुछ आवाज़ें सुनने का अनुभव भी किया है । इस कारण ग्रामीण इन्हें भूत बंगला भी कहते हैं । खवासपुरा गाँव से कुछ ही दूरी पर पहाड़ी क्षेत्र में आज भी दूर-दूर तक पत्थरों का एक परकोटा मौजूद है।
बोलते पत्थर:- काश अगर ये पत्थर बोल पाते तो आज इस गाँव का समृद्वशाली इतिहास हमारे सामने होता । यहां पहाड़ियों की तलहटी पर “छोटी दिल्ली” नामक स्थान का विशाल परकोटा ,बरसाती नाले के किनारे टीले पर प्राचीन महादेव मन्दिर ,रोहित आश्रम (सूफी संतो का स्थल) के आसपास बिखरी पडी. पुरी सम्पदा और इन पर लिखी इबारतें सैकड़ों साल का फ़साना सुना रही हैं।
एक राजा ,एक रानी और एक सेनाध्यक्ष की स्मृतियां आज भी यहाँ शेष हैं ।16वीं सदी में कुछ समय तक अपने उत्कर्ष पर रही राजधानी के इन महलों पर आज तक किसी ने भी शोध नहीं किया गया है। इसीलिए कई राज़ अब तक यहाँ दफ़न हैं।
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