कुशीनगर – प्राचीन बौद्ध तीर्थ स्थल

465 ई.पू. के आसपास कभी, जब गौतम बुद्ध के प्राण निकल रहे थे, तब उनका सबसे पुराना, सबसे पहला और सबसे वफ़ादार शिष्य आनंद अकेला उनके साथ था। उन्होंने अच्छे से भोजन किया था जो चुंडा नाम के एक लौहार ने बनाया था। भोजन उन्हें पचा नहीं। तब उनकी उम्र 80 साल थी और उन्हें पता था कि उनका अंत नज़दीक आ गया है। ऐसी स्थिति में बुद्ध ने आनंद से दो महत्वपूर्ण बात कहीं। पहली ये कि उनकी मृत्यु के लिये चुंडा को बिल्कुल दोषी न माना जाय, ये बुद्ध का कर्म था। और ये कि चुंडा ने उन्हें पृथ्वी पर उनका अंतिम भोजन देकर महान कर्म किया है। दूसरी बात ये कि शिष्य उन्हें सिर्फ़ चार स्थानों पर याद करें-लुंबिनी जहां उनका जन्म हुआ, बोध गया जहां उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ, सारनाथ जहां उन्होंने, डियर पार्क में अपना पहला धर्मोपदेश दिया था और कुशीनगर जहां उन्होंने अंतिम सांस ली। आनंद को कहे बुद्ध के अंतिम शब्द थे-“हर चीज़ का नाश होता है, लगन से तुम अपने लक्ष्य की तरफ़ बढ़े चलो।”

कुशीनगर, जहां बुद्ध ने अंतिम सांस ली थी, उत्तर पूर्व उत्तर प्रदेश का एक ज़िला है जिसका नाम भी कुशीनगर है। ये नेपाल की सीमा के बहुत पास है और लुंबिनी से ज़्यादा दूर नहीं है जहां बुद्ध का जन्म हुआ था। बुद्ध की मृत्यु के समय कुशीनगर कुशवती कहलाता था और पौराणिक साहित्य के अनुसार ये कौशल साम्राज्य की राजधानियों में से एक होता था। बुद्ध के समय ये मल्ल महाजनपद की राजधानी था। कुशवती नाम शायद वहां कुश घास के बहुतायात की वजह से पड़ा था। ये घास बुद्ध का पसंदीदा केंद्र था जो आज भी बौद्धों के लिये पूज्नीय है।

मल्ल 16 महाजनपदों में से एक था और आज के उत्तर प्रदेश के उत्तर पूर्व में हिमालय की गिरिपीठों में स्थित था। ये छोटे जनपदों में से एक था। इसकी राजधानी कुशीनगर हुआ करती थी। मल्ल मूल रुप से एक राजवंश था। बाद में यहां मल्ल के सीमित लोगों का शासन हो गया। यहां जैन और बौद्ध दोनों धर्म बहुत फूलेफले और कुशीनगर बौद्ध धर्म का सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल बन गया। मल्ल का लिच्छिवियों के साथ गहरा गठबंधन था और दोनों के बीच रक्षा संधी भी थी। 5वीं ई.पू. सदी के अंत में मल्ल जनपद का मगध राज्य में विलय हो गया था।

सिद्दार्थ गौतम जिन्हें बुद्ध नाम से भी जाना जाता है, आज के महान धर्मों में से एक बौद्ध धर्म के संस्थापक और दूत थे। वह छठी ई.पू. सदी के शाक्य जनजाति के राजकुमार थे और उनके पिता कपिलवस्तु से शासन करते थे। उन्होंने जीवन को समझने और दुखों के निवारण का मार्ग तलाशने के लिये अपना परिवार और धनदौलत त्याग दी थी। ज्ञान प्राप्त होने के बाद उन्होंने समानता, कर्म, सम्मान और शांति के धर्म का प्रचार किया। इस धर्म ने भारतीय उप-महाद्वीप की नियति बदलकर रख दी और ये असम से लेकर अफ़ग़ानिस्तान, कश्मीर और श्रीलंका तक पूरे दक्षिण एशिया में फैल गया। बौद्ध धर्म दक्षिण पूर्व एशिया, चीन, कोरिया और जापान तक भी न सिर्फ़ फैला बल्कि मध्य एशिया और मंगोलिया सहित इन देशों में स्थापित भी हो गया। 19वीं सदी में पश्चिमी देशों में बौद्ध धर्म का पुनर्जागरण हुआ अब बौद्ध श्रद्धालु कहीं बड़ी संख्या में भारत आते हैं।

कुशीनगर में बुद्ध का निधन हुआ था। बौद्धों के शब्दों में उन्हें महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ था। बौद्ध धर्मग्रंथों के अनुसार अंत के समय बुद्ध अपनी दाहिनी तरफ़ करवट लेकर लेट गए थे और उन्होंने अपने दाहिने हाथ को सिर के नीचे तकिये की तरह रख लिया था और फिर धीरे से उनके प्राण निकल गए। बुद्ध के अंतिम समय की घटनाओं की जानकारी हमें दीघ निकाय के महापरिनिर्वाण सुत्त (सूत्र) से मिलती। दीघ निकाय सुत्त पिटक का एक हिस्सा है जो थेरवाद बौद्ध धर्म के ज्ञान के तीन भंडारों में से एक है। बौद्ध धर्म के विद्वान, पाली भाषा के विशेषज्ञ और भारतीय विधा के जानकार ऑस्कर वान हिनुबर के अनुसार पाली रुप के ग्रंथ में प्राचीन स्थानों के नाम और व्याकरण के खंड मिलते हैं जो 35-320 ई.पू. के बाद के नहीं हो सकते। इससे हमें सही इतिहास का बोध होता है।

बुद्ध की मत्यु के बाद मल्लाओं ने अंतिम संस्कार के लिये बुद्ध के सबसे पुराने शिष्यों में से एक महाकश्यप का इंतज़ार किया। बुद्ध के अंतिम दर्शन के लिये कई लोग आए थे। अंतिम संस्कार के बाद मल्लों ने बुद्ध के अवशेष रखने चाहे लेकिन तभी सात अन्य राजवंशों के राजा आ गए जो बुद्ध के अवशेष रखना चाहते थे। ऐसे में युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो गई थी। आख़िरकार द्रोण नाम के एक ब्राह्मण ने अवशेषों के दस हिस्से किये। इनमें आठ हिस्से अस्थियों के, एक हिस्सा भस्म का और एक हिस्सा वह बर्तन था जिससे तमाम हिस्से किए गए थे। फिर अवशेषों को मगध के राजा आजातशत्रु ,, वैशाली के लिच्छिवि, कपिलवस्तु के शाक्य (बुद्ध का राजवंश), अलकप्प के बुली, रामग्राम के कोलिय, ब्राह्मण द्रोण, पाव के मल्ल और कुशीनगर के मल्ल शासकों ने स्तूपों में प्रतिष्ठित कर दिया।

12वीं सदी में बौद्ध धर्म की अवनति के साथ ही कुशीनगर भी यादों से जाता रहा। आज कुशीनगर में ईंटों का एक विशाल स्तूप मौजूद है जहां बुद्ध का अंतिम संस्कार किया गया था। इसके पास परिनिर्वाण मंदिर के अवशेष हैं। पुरातत्वविद सर एलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने उत्तर प्रदेश के सर्वेक्षण के दौरान कुशावती/कुशीनगर स्थान की खोज की थी। यहां बुद्ध की प्रतिमा मिली थी जिसका उल्लेख चीनी यात्री ह्वान त्सांग ने 637 शताब्दी में किया था। कनिंघम ने ह्वान त्सांग को पढ़कर ही कुशीनगर की खोज की थी। कनिंघम ने सन 1877 में यहां खुदाई कर स्तूप और मंदिर की खोज की थी।

बौद्ध धर्म के शांति के संदेश का भारत के कई राजनितिज्ञों पर प्रभाव रहा है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु भी इससे बहुत प्रभावित थे जो उनके लेखन में नज़र आता है। आज़ादी के बाद पहले दशक में भारत ने बौद्ध धर्म के निहित मूल्यों और सिद्धांतो पर आधारित अपनी सार्वभौमिक नीति बनायी थी। बुद्ध के अवशेष कई दूर दराज़ के द्वीपों में भेजे गए थे और सरकार द्वारा प्रायोजित कई कार्यक्रमों में बौद्ध चिन्हों का इस्तेमाल किया गया था। इसके अलावा पूरे एशिया में एकता के लिये भी बौद्ध धर्म का सहारा लिया गया था।

राजनीतिक विश्लेषक और लेखक डगलस एफ़. ओबर ने कैम्ब्रिज की पत्रिका मॉडर्न एशियन स्टडीज़ में लिखा है, “ एक दशक से भी ज़्यादा समय की ये कोशिश भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु और उनके मंत्रीमंडल के प्रमुख सदस्यों की दूरदर्शिता का ही नतीजा था। नेहरु के बौद्ध धर्म के दो तरफ़ा लक्ष्य थे। एक लक्ष्य था नये भारत में लोगों को इसके सिद्धांतों से अवगत कराना और दूसरा लक्ष्य विदेश नीति में इसका प्रयोग करना। इन दोनों का लक्ष्य दक्षिण एशिया के विभिन्न लोगों में एक व्यापक राष्ट्रीय चेतना जगाना और एशिया में उपनिवेषवाद के बाद लोगों में शांति संदेश देना।“

नेहरु के प्रयासों की वजह से पूरे एशिया में सन 1956 में बौद्ध धर्म की 2500वीं वर्षगाठ मनाई गई। नेहरु के दिशा निर्देश में भारत ने पश्चिमी देशों की तरह यहां भी बैद्ध स्मारकों को चमका दिया। आज जो कुशीनगर हम देखते हैं, वो नेहरु की योजना का ही हिस्सा था।

परिनिर्वाण मंदिर भारत सरकार ने बुद्ध के महापरिनिर्वाण की 2500वीं वर्षगांठ मनाने के लिये सन 1956 में परिनिर्वाण मंदिर का पुनर्निमाण करवाया था। इस मंदिर में बुद्ध की लेटी हुई मुद्रा में 6.1 मीटर लंबी ईंट की प्रतिमा है। इस स्थल पर कई स्तूप हैं जहां लोग मन्नत मांगते हैं। ये स्मारक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की देखरेख में हैं। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार मल्ल द्वारा बनवाया गया मौलिक स्तूप सम्राट अशोक ने 260 ई.पू. में अपनी यात्रा के समय खुलवाया था। उसने सभी मौलिक स्तूपों को खुलवाकर 84 हज़ार स्तूपों में बुध के अवशेष वितरित किए थे। इस स्थान का आने वाली सदियों में बहुत महत्व हो गया था और कुषाण तथा गुप्त शासनकाल में इसका विस्तार हुआ था। परिनिर्वाण मंदिर गुप्तकाल का है।

बुद्ध की महानिर्वाण की सभी छवियां इसी मुद्रा में हैं जिनमें से एक अद्भुत छवि कुशीनगर के एक मंदिर में है। इसी तरह अजंता में चैत्य गुफा नंबर 21 की भी एक छवि बहुत प्रसिद्ध है जो गुफा में प्रवेश करते ही दिखती है। गंधार कला (प्रथम ई.पू- प्रथम सदी) से लेकर पाल कला (10वीं सदी) तक महापरिनिर्वाण के कई वर्णन मिलते हैं। थेरवाद वर्णन में बुद्ध को मानव रुप में वर्णित नहीं किया गया है जो सांची तथा बहरुत में दिखाई पड़ते हैं।

कुशीनगर आज एक सुंदर तीर्थ स्थल है जहां बाग़-बाग़ीचे हैं। यहां देश-विदेश से हज़ारों की संख्या में बौद्ध श्रद्धालु आते हैं। ये बौद्ध के सबसे पवित्र स्थलों में से एक है। ये विश्व के चार महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों में गिना जाता है।

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