ख़ुर्शीद मंज़िल- बेगम का अंग्रेज़ी महल

अवध के दिल लखनऊ शहर में, आज भी नवाबी युग की झलक मिलती है। यहां बड़ा इमामबाड़ा, रुमी दरवाज़ा और असफ़ी मस्जिद आदि जैसे कई शानदार स्मारक हैं जिसे देख आप प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। लेकिन हैरानी की बात ये है कि लखनऊ शहर के बीचों-बीच एक यूरोपीय क़िला है। मीनारों और बुर्ज वाले इस क़िले के साथ एक दिलचस्प रुमानी कहानी भी जुड़ी हुई है।

लखनऊ में लड़कियों के ला मार्टियर कॉलेज में अगर आप दाख़िल होईए तब हम आपको इस क़िले और क़िले में रहनेवली बेगम की कहानी बताएंगे ।

इस क़िले या महल का निर्माण अवध के छठे नवाब सआदत अली ख़ान (शासनकाल 1798-1814) ने करवाया था। सआदत अली ख़ान ने लखनऊ में और भी कई स्मारक बनवाए थे। नवाब सआदत अली ख़ान सन 1798 में सत्ता में आए थे। उनके पहले वज़ीर अली अवध के नवाब थे लेकिन उनके शासनकाल के चार महीने बाद ही अंग्रेज़ों ने उन्हें नाक़ाबिल घोषित कर गिरफ़्तार कर लिया और बनारस से सआदत अली ख़ान को बुलवाकर लखनऊ की बीबियापुर कोठी में उनकी ताजपोशी कर दी। नवाब असफ़उद्दौला के छोटे सौतेले भाई सआदत अली ख़ान को तभी सत्ता सौंपी जब वह अंग्रेज़ों को अवध साम्राज्य का आधा हिस्सा देने पर राज़ी हो गए। उन्हें मुख्य हज़रतगंज बाज़ार की सड़क, लाल बारादरी और दिलकुशा बनवाने का श्रेय जाता है। उन्होंने अपने रहने के लिए फ़्रांसिसी मेजर जनरल क्लॉड मार्टिन से फ़रहत बक्श महल ख़रीद लिया था।

सआदत अली ख़ान के पहले के नवाब जहां बहुत फ़िज़ूल ख़र्च थे वहीं सआदत अली ख़ान के साथ ऐसा नहीं था। उन्होंने ख़ज़ाने के पैसे का इस्तेमाल भव्य स्मारक बनाने में किया जिनमें से ज़्यादातर स्मारकों पर यूरोपीय शैली का प्रभाव नज़र आता है। इन्हीं में एक स्मारक है ख़ुर्शीद मंज़िल।

इस क़िले को सआदत अली ख़ान ने अपनी प्रिय बेगम ख़ुर्शीद ज़ादी के लिए बनवाया था। इस क़िले को “पैलेस ऑफ़ द सन” भी कहते हैं क्योंकि फ़ारसी में ख़ुर्शीद का अर्थ सूर्य होता है। अंग्रेज़ वास्तुकार कैप्टन डंकन मैक्लेओड द्वारा तैयार की गई डिज़ाइन में क़िला कुछ झुका हुआ-सा था लेकिन देखने में सुंदर था। दो मंज़िला क़िले कs छह षट्कोणीय मीनार हैं जिनके ऊपर मोर्चे के लिए स्थान और बुर्ज बने हुए हैं। क़िले में प्रवेश के लिए बारह फ़ुट चौड़ी खंदक़ के ऊपर खुलने और बंद होने वाला एक पुल बना हुआ था। ये शाही क़िला उठी हुई ज़मीन पर था, जहां से नहर नज़र आती थी।

क़िले का निर्माण कार्य मैक्लेओड की निगरानी में सन 1810-12 में शुरु हुआ था। नवाब की इस परियोजना के लिए कंपनी ने मैक्लेओड को लखनऊ भेजा था। सआदत अली ख़ान ने जब उसके सामने बेहतर नौकरी की पेशकश की तो उसने कंपनी से इस्तीफ़ा दे दिया। नवाब ने उसे रहने के लिए मुफ़्त मकान, नौकरों का अमला और एक हज़ार पांच सौ रुपए मासिक वेतन दिया जो उस समय बड़ी रकम मानी जाती थी। दिलचस्प बात ये है कि दशकों बाद मैक्लेओड ने बंगाल के नवाबों के लिए मुर्शीदाबाद में मशहूर हज़ारद्वारी महल भी बनाया था।

माना जाता है कि सआदत अली ख़ान की मृत्यु के बाद नवाब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर के शासनकाल में ख़ुर्शीद मंज़िल सन 1818 में बनकर तैयार हुई। नवाब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर की मां ख़ुर्शीद ज़ादी के लिए दो स्मारक बनवाए गए थे- एक मक़बरा है जो मुग़ल शैली का है और दूसरा महल है जो ठेठ यूरोपीय शैली में बना हुआ है। ख़ुर्शीद मंज़िल बनाते समय मैक्लेओड ने कुछ हद तक रॉबर्ट स्मिथ नामक वास्तुकार की डिज़ाइन की देखादेखी की थी जिसने नवाब सआदत अली ख़ान के लिए एक दो मंज़िला भवन बनवाया था जिसके बीच में एक चौड़ा गुंबद, आठ अष्टकोणीय मीनार, मीनारों के ऊपर बुर्ज थे। माना जाता है कि मैक्लेओड ने लखनऊ में फ़्रांसिसी मैजर जनरल क्लॉड मार्टिन के भवनों की कुछ नक़ल भी की थी जैसे खंदक़ और सीढ़ी वाला पुल। इसके अलावा उसने क्लॉड मार्टिन के कॉन्स्टेंशिया और टाउनहाउस की भी नक़ल की थी जिसे बाद में फ़रहत बक्श के नाम से जाना गया।

निर्माण कार्य पूरा होने के बाद क़िले का इस्तेमाल कई कामों के लिए किया गया। ग़ाज़ीउद्दीन हैदर के शासनकाल में इसका इस्तेमाल मेहमानों को ठहराने के लिए किया जाता था जहां अतिविशिष्ट अंग्रेज़ ठहरा करते थे। बाद में सन 1856 में इसे भोजनगृह में तब्दील कर दिया गया।

कई नवाबी इमारतों की तरह सन 1857 के विद्रोह के दौरान भारतीय क्रांतिकारियों ने ख़ुर्शीद मंज़िल का भी इस्तेमाल किया। वे यहां बैठकें करते थे। उनके नेता फ़ैज़ाबाद के अहमदुल्लाह शाह ने महल में दरबार लगाया था। अंग्रेज़ों ने जब लखनऊ पर फिर कब्ज़ा करने की कोशिश की थी तब महल में ज़बरदस्त लड़ाई हुई थी। 17 नवंबर सन 1857 को महल पर तीन तरफ़ से हमला किया गया था जिसका नेतृत्व जनरल ओटरम और हैवलॉक तथा उनका कमांडर-इन-चीफ़ कॉलिन कैंपबेल ने किया था।

दिलचस्प बात ये है कि महल पर दोबरा क़ब्ज़े के बाद ये तीनों जब क़िले में मिले तो इन्होंने ख़ुशी में एक दूसरे से हाथ मिलाया। मुख्य द्वार के भीतर एक स्तंभ पर एक अभिलेख है जिस पर लिखा है-“यहां हैवलॉक, ओटरम और सर कॉलिन 17 नवंबर 1857 को मिले थे।” महल पर दोबारा कब्ज़ा विद्रोह के दौरान अंग्रेज़ों के लिये एक महत्वपूर्ण घटना थी।

सन 1871 में श्रीमती अबोट द्वारा स्थापित लखनऊ गर्ल्स स्कूल को मोती महल पैलेस के पास ही ख़ुर्शीद मंज़िल शिफ़्ट कर दिया गया। अंग्रेज़ सरकार ने महल के परिसर को स्कूल के लिए मुफ़्त में इस्तेमाल करने की इजाज़त दे दी थी। स्कूल का नाम बदलकर ला मार्टिनियर कर दिया गया क्योंकि इसे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के मेजर जनरल क्लॉड मार्टिन द्वारा स्थापित ट्रस्ट से धन मिला था। मार्टिन समाज सेवी, बैंकर, वास्तुकार और भवन निर्माता भी था। नवाब के संरक्षण में लखनऊ में रहते हुए उसने ख़ूब धन कमाया और बहुत ताक़तवर भी हो गया था।

बेगम के क़िले से लेकर, यूरोपीय पब्लिक स्कूल और फिर अब लड़कियों का स्कूल….ख़ुर्शीद मंज़िल के अतीत के साथ कई दिलचस्प कहानियां जुड़ी हुई हैं।

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