‘‘सियालै खाटू भलो, ऊनालै अजमेर,
नागाणौ नित रो भलो, सावण बीकानेर..”
आज आपको मारवाड़ क्षेत्र के उस क़स्बे की ऐतिहासिक यात्रा पर ले चलते हैं, जहाँ की जलवायु भारतीय इतिहास के मध्यकाल के दौरान सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी। नागौर ज़िले में एक ही नाम के दो क़स्बे हैं। पहला छोटी खाटू जो डीडवाना तहसील में है और दूसरा बड़ी खाटू, जो जायल तहसील में है। मगर इन दोनों के बीच का फासला बहुत कम है। खाटू, ज़िला मुख्यालय से 60 किमी दूर डेगाना वाया रतनगढ़, दिल्ली रेल्वे लाइन के समीप बसा हुआ है। यहीं के एक मुख्य निवासी गिरधारी सिंह राठौड़ बताते हैं, कि मारवाड़ी कहावत के अनुसार बड़ी खाटू गाँव में कड़ाके की सर्दी का असर इतना नहीं होता है, जितना ज़िले के अन्य जगहों पर होता है। इस जगह का तापमान अधिकतर 4-5 डिग्री ज़्यादा होने के कारण, यहाँ चारों ओर फैली पहाड़ियों को महत्वपूर्ण माना जाता है। इसलिए शीतकाल में उत्तर की ओर से आने वाली बर्फ़ीली ठंडी हवाएं, यहाँ कम असर डालती हैं।
इन पहाड़ियों से कई क़िस्मों के पत्थर निकलते हैं, मगर इनमें से रनबो और चेज़ा पत्थरों की देश-विदेश में बहुत भारी मांग है, इसीलिए यहां रोज़गार के अवसरों में बहुत उछाल आया है। वैसे तो ज़िले में कई जगहों पर सेंड स्टोन की खाने हैं, मगर खाटू क्षेत्र के इस ख़ास पत्थर की मांग दिनों-दिन बढ़ने से, ये जगह किसी पत्थर-मंडी से कम प्रतीत नहीं होती। गाँव में चारों ओर, घरों की आंतरिक साज-सज्जा की सामग्री के अलावा कई प्रकार के खिलौने और मूर्तियाँ भी बनाई जाती हैं। पत्थर व्यवसायी महावीर जोधा बताते हैं, कि खाटू का यह पत्थर देश भर के कई स्मारकों, भवनों और हवेलियों के अलावा ऑस्ट्रेलिया, इटली सहित अन्य देशों में इंटीरियर डिज़ाइनिंग में उपयोग किया जा रहा है। ऐसा माना जाता है कि इस पत्थर के उपयोग से बिजली की खपत भी कम होती है।
सन 1982 में दिल्ली एशियाड खेलों के दौरान, खाटू के इस विशेष पत्थर की काफ़ी सराहना हुई थी। तत्कालीन निदेशक एन.के. पुरी ने भी इसके प्रचार-प्रसार में काफ़ी सहयोग दिया था, जिसकी वजह से विदेशों में इसकी मांग बढ़नी शुरू हो गयी थी। वर्तमान समय में यहां से प्रतिवर्ष करोड़ों रूपये का पत्थर विदेशों में निर्यात किया जाता है। यह पत्थर अपनी खूबसूरती और चमक के अलावा भवनों को ठंडा रखने के लिए भी विख्यात है। साथ-ही-साथ इस पत्थर पर एसिड का अधिक प्रभाव नहीं पड़ता।
बड़ी खाटू का सांस्कृति वैभव और स्थापत्य कला
चौहान काल में खाटू एक समृद्धशाली नगर हुआ करता था। पृथ्वीराज रसो, ब्रज भाषा की एक रचना जो पृथ्वीराज चौहान के बारे में बताती है, में इसे खट्टवन तथा कान्हड़दे प्रबंध में षट्कड़ी वाड़ी भी कहा गया है। कालान्तर में यह नगर दो क़स्बों में बंट गया। यहाँ मौजूद ऐतिहासिक धरोहरों के बारे में कई इतिहासकारों और साहित्यकारों ने लिखा है। पहाड़ी पर बसा हुआ यह क़स्बा अपने आप में एक धरोहर है। यहाँ के प्रवेश-द्वार पर पुरातन कलाकृतियों से सजे स्तम्भ आज भी मौजूद हैं, जो अपनी वैभवशाली संस्कृति की याद दिलाते हैं।
इस क़स्बे की पहाड़ी पर प्रतिहार, चौहान, राठौड़ और मुग़ल काल से जुड़े अनेक धरोहर और धार्मिक स्थल बने हुए हैं। इनमें से महल, परकोटा, क़िला, सुंरगें, पहाड़ी कुआं, तालाब, छतरियां, हनुमान मंदिर, हवेलियां, दरगाह, मस्जिद, दीपापुरी महाराज का आश्रम और धुणा प्रमुख स्थल हैं। मध्यकाल में यह क़स्बा, नागौर, अजमेर, बयाना से मुलतान तक व्यापारिक मार्ग के द्वारा जुड़ा हुआ था। कई युद्धों का साक्षी होने के कारण इसे रणस्थली के रूप में भी जाना जाता था।
छोटी खाटू
ईसवी शती के प्रारंभ काल में यह क्षेत्र जांगल प्रदेश में सम्मलित रहा था, जिसकी राजधानी नागपट्टन, अहिच्छपुर या नागौर रही थी। यहां शक, कुषाण और नागवंशी शासकों का अधिकार रहा था। पुरातत्त्व विभाग के अधिकारी श्री किशनलाल मारू बताते हैं, कि 7वीं से लेकर 12 वीं सदी में इस क्षेत्र पर प्रतिहार और चौहान शासकों का आधिपत्य रहा। इस दौरान यहां कई स्मारकों का निर्माण भी करवाया गया, जो आज भी सांस्कृतिक विरासत के रूप में मौजूद हैं। मगर सैकड़ों की संख्या में ऐसे कई स्मारक आक्रान्ताओं द्वारा नष्ट कर दिए गए थे, जिनके खण्डहर आज भी मौजूद हैं। इस क्षेत्र का एक उच्चकोटि का स्मारक, छोटी खाटू में फूल बावड़ी के रूप में मौजूद है। प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार जब शक शासक भारत आए थे, तब वे अपने साथ दो प्रकार के कूप (कुएं) के डिज़ाइन लाए थे, जिन्हें शकन्धु (बावड़ी) तथा कर्कन्ध (रहट) कहा जाता है।
प्रतिहार-काल के दौरान बने इस बावड़ी में स्थित स्तंभों और मेहराबों पर फूल-पत्तियों की अनूठी शिल्पकारी एवं अंग्रेज़ी के “एल” आकार की सीढ़ियों वाली बावड़ी में दो दरवाज़े हैं, जिनके स्तंभ और ताक़ों पर मनोहारी सजावट है। इसके प्रथम प्रवेश-द्वार के चार स्तंभ पर द्वारपाल, घटपल्लव (घड़ा और कोमल पत्ता), कीर्ति मुखों, वल्लरी, सुन्दरियों, चैत्य, पूर्ण खिले कमल की सजावट के साथ-साथ वहां एक ऐसा अनूठा प्राणी भी बना हुआ है, जिसकी देह मानव के समान है तथा हाथों के स्थान पर पंख और एक समान पांव हैं। इस बावड़ी की अन्य मूर्तियों में कच्छपवाहिनी यमुना, मकरवाहिनी गंगा, लघु देव प्रतिमाओं सहित स्तंभों फूल-पत्तियों से युक्त हैं।
यहाँ नाग युग्म, कुबेर और कार्तिकेय का भी सुंदर अंकन किया हुआ है। बावड़ी में चार पोलों के आगे गहरी बावड़ी बनी हुई है। ऐतिहासिक, वास्तु शिल्प एवं सांस्कृतिक दृष्टि से इस बावड़ी का बड़ा महत्त्व है। जहाँ एक ओर यह बावड़ी प्रतिहार शासकों की कला के प्रति गहरी रूचि को दर्शाती है, वहीं प्राचीन-काल में यहाँ छह बावड़ियाँ होने के कारण इसे षट्कूप के नाम से भी जाना जाता था।
यहीं की साहित्यकार अंजू सिंह कोचर बताती हैं, कि यह दोनों ही गाँव ऐतिहासिक दृष्टिकोण से बहुत ही समृद्धशाली रहे हैं। यहाँ की फूल बावड़ी जो पहले मिट्टी में दबी हुई थी, उसे ब्रिटिश काल में खोजा गया था। यहां के हिन्दी पुस्तकालय में मशहूर उपन्यासकार हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, कन्हैयालाल सेठिया सहित कई साहित्यकार भी आ चुके हैं।
गाँव की एक ओर वर्षाजल का विशाल सरोवर और दूसरी ओर बालू रेत की खान हैं। साथ ही टीले और खांडिया नामक पहाड़ी पर कई धार्मिक स्थलों के अलावा संत निर्भयरामजी की बग़ीची, प्राचीन मठ कोट, कलात्मक हवेलियों के अलावा अन्य सभी धर्मों- सम्प्रदायों के आस्था स्थल दर्शनीय हैं।
मुख्य चित्र: पहाड़ी पर स्थित प्राचीन धरोहर /लेखक
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