राजस्थान में अलवर अपने ख़ूबसूरत महलों, क़िलों और टाइगर रिज़र्व के लिए मशहूर है। अलवर कभी कछवाह महाराजाओं का सत्ता केंद्र हुआ करता था, जिसकी शाही झलक इसके अवशेषों में हर जगह देखी जा सकती है। लेकिन अलवर स्टेशन के पास स्थित एक शानदार मक़बरा है, जिसका अलवर के इतिहास में कम ही ज़िक्र होता है। ये मक़बरा ‘ख़ानजादा‘ का है, जो मुग़लों के आने के पहले यहां शासन करता था। इसे अलवर शहर में ‘फ़तेह जंग का गुंबद‘ या ‘फ़तेह जंग का मक़बरा‘ के नाम से जाना जाता है। दुर्भाग्य से शहर आने वाले अधिकांश सैलानी इसके बारे में जानते नहीं हैं।
अगर आप दिल्ली से जयपुर की तरफ़ जाते हैं, तो अलवर राजस्थान का पहला ज़िला और शहर है, जो आपका स्वागत करता है। दिल्ली और जयपुर दोनों से इसकी दूरी 150 कि.मी., यानी अलवर, दिल्ली-जयपुर दोनों से समान दूरी पर है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के जनक मेजर जनरल सर अलेक्ज़ेंडर कनिंघम के अनुसार, शहर का नाम सलवा जनजाति के नाम पर पड़ा था, जो पहले सलवापुर, फिर सलवार, हलवार हुआ करता था। अंत में इसका नाम अलवर हो गया।
मध्ययुग के दौरान अलवर और इसके आसपास के क्षेत्र पर यदुवंशी राजपूतों का शासन होता था। दिल्ली में सुल्तानों की हुकूमत के दौरान राजा सोनपर पाल ने इस्लाम क़बूल कर लिया था। उस समय अलवर मेवात क्षेत्र की राजधानी हुआ करता था, जिसमें नूह (अब हरियाणा) अलवर और भरतपुर (अब राजस्थान) ज़िले शामिल थे।
धर्म परिवर्तन करने वाला ये शासक परिवार ख़ानज़ादा राजपूतों के रूप में जाना जाने लगा। अपने शासन के शुरुआती दिनों में इंदौरी, कोटला और तिजारा उनकी राजधानी हुआ करते थे। बाद में उन्होंने अपने क्षेत्र को अलवर शहर तक बढ़ा दिया, जो बाद में उनकी राजधानी बन गया।
ख़ानज़ादा ख़िताब को लेकर दो बातें कहीं जाती हैं। पहली बात ये, कि सबसे पहले यह ख़िताब दिल्ली के सुल्तान ने दिया था। खानज़ादा नाम दरअसल ख़ान जदु (मालिक,भगवान) शब्द से बना था। दूसरी बात ये, कि इसे ‘ख़ानज़ाद‘ (यानी ग़ुलाम) ख़िताब का एक परिवर्तित रूप कहा जाता है। यह खिताब मेवाती प्रमुख को तब दिया गया था, जब उसने दिल्ली के सुल्तानों की अधीनता स्वीकार कर ली थी।
इन ख़ानज़ादा शासकों में से एक राजा ने खानवा (भरतपुर ज़िला-राजस्थान) की लड़ाई में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह लड़ाई 16 मार्च,सन 1527 में हुई थी। इसी दिन, पहले मुग़ल शासक बाबर की हमलावर सेना ने इब्राहीम लोदी को हराया था, और उसे मार डाला था। उसके बाद बाबर को भारत की अफ़ग़ानों और राजपूतों की सामुहिक सेना का सामना करना पड़ा था।
ख़ानज़ादा हसन ख़ान मेवाती अपनी सेना लेकर आया और मेवाड़ के राणा सांगा के नेतृत्व में युद्ध लड़ा। राना सांगा की सेना में कुल दो लाख सैनिक शामिल थे। सैनिकों की इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद राणा सांगा की सेना हार गई। इसी के साथ भारत में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना हो गई।
हसन ख़ान मेवाती इस लड़ाई में मारा गया और उसके ख़ानज़ादा मेवाती क्षेत्रों को मुग़ल साम्राज्य में मिला दिया गया। लेकिन ख़ानज़ादा परिवार को सम्मान देते हुये उन्हें मुग़ल दरबार में नौकरियां दी गयीं।
ख़ानज़ादा परिवार के, मुग़लों से वैवाहिक संबंध स्थापित हो गए थे। ऐसा कहा जाता है, कि बाबर के बेटे हुमायूं ने, बाबर के हाथों मारे गये हसन ख़ान मेवाती के भतीजे जमाल ख़ान की बड़ी बेटी से गुपचुप शादी की थी। यही नहीं हुमायूं ने अपने मंत्री बैरम ख़ान की भी, उसी मेवाती ख़ानज़ादा की एक छोटी बेटी से शादी करवा दी थी। हसन ख़ान मेवाती के वंशजों में से एक फ़तेह जंग, मुग़ल शहंशाह शाहजहां के सबसे भरोसेमंद मंत्रियों में से एक था।
ऐसा लगता है, कि सन 1547 में जब अलवर के सूबेदार फ़तेह जंग की मृत्यु हुई तो उसके कुछ ही समय बाद ही उसका एक भव्य मक़बरा बनाया गया होगा। कनिंघम ने क्षेत्र की जांच पड़ताल के समय इस इमारत का उल्लेख किया था:
“मक़बरा चोकोर है। इसका आकार चारों तरफ़ से 60-60 फ़ुट लम्बा। तीन मंज़िला इस इमारत की सभी मंज़िलों की चौड़ायी एक समान है। हर मंज़िल के सात दरवाज़े हैं। चारों कोनों पर, आठ–आठ कोने वाले मीनार हैं। गुंबद, चौथी मंज़िल पर बने, चोकोर चबूतरे से निकलता हुआ लगता है। उस छोटे चबूतरे का आकार चारों तरफ़ से 40-40 फ़ुट है।“ इसके अंदर, पलस्तर पर, हल्के से उभरे हुये सजावटी काम की भी तारीफ़ की गई है।
आज यह विशाल मक़बरा अलवर जंक्शन से गुज़रने वाली लगभग हर ट्रेन से देखा जा सकता है। इस छोटे से शहर के एक धुंधले हिस्से में स्थित इस मक़बरे को देखने शायद ही कोई आता है और ज़्यादातर स्थानीय लोगों को तो यह तक पता नहीं था, कि यह किसका मक़बरा है या कितना पुराना है।
राजस्थान पर्यटन विभाग बहुत अच्छे तरीक़े से इसका रखरखाव कर रहा है। इस मक़बरे में जाने, कि लिये कोई फ़ीस नहीं है। ग़ौर से देखने पर लगता है, कि यहां ईरानी चार बाग़ शैली के बग़ीचे रहे होंगे। वैसे ही जैसे मुग़ल काल के दौरान बड़े या छोटे हर मक़बरे में हुआ करते थे। ख़ासतौर पर यह मक़बरा बेमिसाल इस लिये भी है, कि यह मुग़ल और राजपूत वास्तुकला का मिश्रण है। जहां इमारत मुग़ल शैली में बनी है,वहीं रंग और जमावट का अंदाज़ राजपुताना से लिया गया है।
इस मक़बरे के बारे में जो सबसे अनोखी बात है, वह ये है कि यह एक बहु-मंज़िला इमारत है जिसमें चारों तरफ़ छज्जे हैं। यहां आज भी सीधी चढ़ायी वली सीढ़ियाँ हैं, जो सभी मंज़िलों तक जाती हैं। ये सीढ़ियां मक़बरे के चारों ओर बनी हुयी हैं। मक़बरे के अंदर जाने के लिये, भारी लकड़ी से बने बड़े बड़े दरवाज़ों के पट खोलने पड़ते हैं। भीतर दाख़िल होने पर, बरसों पहले दुनिया से गुज़र चुके फ़तेह जंग की कब्र के पास, आज भी किसी मौलवी को क़ुरान की आयतें पढ़ते देखा जा सकता है।
दीवारों पर हालांकि अब चित्रकारी थोड़ी बहुत ही नज़र आती है, लेकिन बारीकी से देखने पर सब्ज़ियों के रंगों से बनाये गये फूल-पत्तियों के निशान दिखाई पड़ते हैं। पांच सौ साल बाद भी, हरे पत्तों के बीच लाल और नीले रंग के फूल देखे जा सकते हैं।
‘फ़तेह जंग का गुंबद‘ एक विशाल वास्तुशिल्प है, जो ख़ानज़ादा शासक, अलवर के लिए छोड़कर गए हैं। शहर में आने वाले सैलानियों को इसे ज़रुर देखना चाहिये।
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