हिमाचल प्रदेश राज्य में लाहौल और स्पीति घाटी भारत और विदेश के कई यात्रियों, मोटर साइकिल स्वरों और ट्रेकिंग के शौक़ीनों की बेहद पसंदीदा जगह रही है, जहां वे हर वर्ष मनोरम दृश्यों, पहाड़ों और घाटियों को देखने आते हैं। यहां ताबो, धनकर और शेरखांग जैसे प्रमुख बौद्ध मठ हैं। लेकिन स्पीति नदी के पास 13,668 फ़ुट की ऊंचाई पर “की गोम्पा” भी है, जो उतना ही महत्वपूर्ण है, लेकिन लोग इसके बारे में कम ही जानते हैं। यह घाटी में सबसे बड़े मठ के रूप में जाना जाता है, और बौद्ध लामाओं के लिए सबसे बड़े धार्मिक प्रशिक्षण केंद्रों में से एक है।
इसके वास्तुकला शैली की विशेषता ये है, कि इसमें दो या इससे अधिक मंज़िलें होती हैं, और अक्सर ये एक “क़िला-मठ” की तरह होता है। इसमें तीन मंज़िलें होती हैं- भूमिगत-तल, भूतल और पहली मंज़िल। भूमिगत-तल का उपयोग मुख्य रूप से सामान रखने के लिए किया जाता है ,जबकि भूतल का उपयोग सभागार के रूप में किया जाता है, जिसमें भिक्षु रहते भी हैं। यह गेलुगपा (येलो हैट) संप्रदाय से संबंधित स्पीति घाटी के तीन मठों में से एक है। अन्य दो ताबो और धनकर गोम्पा हैं। कई हमलों का सामना करने के बावजूद और तिब्बती बौद्ध धर्म के विभिन्न संस्थाओं के दौर से गुज़रने के बाद आज भी “की गोम्पा” लामाओं, शिक्षार्थियों और पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है।
8वीं से 10वीं शताब्दी के बीच, पश्चिमी तिब्बती साम्राज्य ने लाहौल और स्पीति घाटी पर शासन किया, जो अंत में कई हिस्सों में बंट गई। उसके बाद गुग साम्राज्य बन गया, जिसमें लद्दाख़ और लाहौल और स्पीति घाटी भी शामिल थे। 11वीं शताब्दी में तिब्बत और उसके आसपास के इलाक़ों में बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ और ‘गोम्पा’ नामक मठ स्पीति घाटी में स्थापित होने लगे। इन मठों ने तिब्बती बौद्ध धर्म के दो संप्रदायों का अनुसरण किया- शाक्य और गेलुग्पा। उसी समय अतिश दीपांकर श्रीज्ञान (982-1054) ने एक स्वतंत्र संप्रदाय “कदम” की स्थापना की थी, जो करुणा, अनुशासन और अध्ययन पर ज़ोर देता था। यह नाम उन लोगों से संबंधित है, जो बौद्ध धर्मग्रंथों को और व्यक्तिगत निर्देशों के माध्यम से बौद्ध धर्म की शिक्षा प्रदान करते हैं।
अपनी शिक्षाओं में, अतिश ने एक व्यापक बौद्ध महायान प्रणाली पर ध्यान केंद्रित किया। उनके शिष्यों में ड्रोमटन (1008-1064) थे , जिन्होंने “कदम” परंपरा को आगे बढ़ाया। अन्य शिष्यों के साथ उन्होंने मध्य और पश्चिमी तिब्बत में “कदम” संप्रदायों के मठों की स्थापना की ,जो शास्त्रीय भारतीय बौद्ध शिक्षा के अध्ययन के लिए जाने जाते थे, और विशेष रूप से ज्ञान-मीमांसा, मनोविज्ञान और घटना-विज्ञान में। इन मठों में पुस्तकों और धार्मिक चित्रकला का एक समृद्ध संग्रह होता था। कहा जाता है, कि इसी दौरान उन्होंने “की गोम्पा” की स्थापना की थी। कुछ दस्तावेज़ इसकी उत्पत्ति रंग्रिक (या चरंग) मठ, (किन्नौर ज़िला) से जोड़ते हैं, जिसे इस क्षेत्र में मंगोलों के बार-बार हमलों के कारण, 14वीं शताब्दी में यहां स्थानांतरित कर दिया गया था।
भारत और तिब्बत को जोड़ने वाले व्यापार मार्गों में से एक पर स्थित “की गोम्पा” प्रमुख बौद्ध शिक्षा केंद्र के रूप में उभरा। 17वीं शताब्दी के मध्य तक पांचवें दलाई लामा न्गवांग लोबसंग ज्ञत्सो (1617-1682), जिन्होंने गेलुग संप्रदाय अपनाया था, मंगोलों के साथ हाथ मिला लिया, और क्षेत्र पर नियंत्रण करने के लिए लद्दाख़ के नामग्याल शासकों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी। उनके शासनकाल में गेलुग एक प्रमुख संप्रदाय के रूप में उभरा और “की गोम्पा” उसके अधीन हो गए। नतीजे में, “कदम वंश” और उसकी परम्पराएं तिब्बती बौद्ध धर्म के गेलुग संप्रदाय में समाहित हो गईं। इसकी वजह से और अधिक बौद्ध विद्वान यहां अध्ययन के लिए आने लगे।
19वीं शताब्दी में कुल्लू, लद्दाख, डोगरा और सिखों की सेनाओं ने हमले किए और लूटपाट की, जिसकी वजह से मठ को भारी नुक़सान पहुंचा। बार-बार होने वाले हमलों की वजह से यहां मरम्मत और पुनर्निर्माण का कार्य अक्सर होता गया। इसी वजह से मठ एक अजीब बक्से की तरह बन गया है। इमारत एक मठ के बजाय एक रक्षात्मक क़िले की तरह दिखाई देने लगी है। इसमें कमरे कम हैं और गलियारे संकरे हैं। प्रार्थना कक्षों तक जाने के लिए मंद रोशनी वाले रास्तों, कठिन सीढ़ियों, और छोटे दरवाज़ों से होकर गुज़रना पड़ता है। यह कमरे भी एक ही डिजाइन में नहीं बने हुए हैं। मठ की रक्षा के लिए भिक्षुओं ने जिन हथियारों का सहारा लिया था, वह भी संग्रह का हिस्सा हैं, जो यहां देखे जा सकते हैं।
लेकिन एंग्लो-सिख जंगों (1845-46 और 1848-49) के बाद, जब अंग्रेज़ों ने पंजाब प्रांत पर कब्ज़ा कर लिया और लाहौल और स्पीति घाटी को अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया, तो हमले रुक गए। सन 1850 के दशक में, जब ब्रिटिश क्षेत्रों और जम्मू और कश्मीर के महाराजा गुलाब सिंह (शासनकाल 1846-1856 ईस्वी) के क्षेत्रों के बीच सरहद तय करने के लिए एक राजनीतिक मिशन भेजा गया तो कहा जाता है, कि प्रसिद्ध अंग्रेज़ पुरातत्वविद् अलेक्जेंडर कनिंघम “की गोम्पा ” गए थे। तब उन्होंने मठ में लगभग सौ भिक्षुओं की मौजूदगी का उल्लेख किया था, जो उस समय वहां बौद्ध धर्म की शिक्षा ले रहे थे।
सन 1947 में भारत की आज़ादी के बाद, सन 1960 में नए राज्य हिमाचल प्रदेश के बनने के बाद “की गोम्पा” लाहौल और स्पीती ज़िले में आ गया। सन 1975 में, एक बड़े भूकंप के बाद मठ का पुनर्निर्माण किया गया, जिसके बाद यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संरक्षण में आया। आज यहां चित्रकारी, भित्ति चित्र और थंगका से सजी दीवारें, ध्यान मुद्रा में बुद्ध की छवियां, मूल्यवान तंग्यूर (बौद्ध शिक्षाएं) पांडुलिपियां, प्लास्टर छवियां, पुराने हथियार और संगीत वाद्ययंत्र जैसे तुरही, झांझ और ढ़ोल देखे जा सकते हैं। इन वाद्ययंत्रों का उपयोग बौद्ध भिक्षु छंग (मुखौटा नृत्य) प्रदर्शन के दौरान करते हैं। नृत्य का विषय बुराई पर अच्छाई की जीत होता है।
हाल ही में फ़िल्म ‘हाईवे’ (हिंदी/ निर्देशक-इम्तियाज़ अली/ 2014) के कुछ हिस्सों की शूटिंग के बाद “की गोम्पा” सुर्ख़ियों में आ गया था। इसके प्रार्थना सभागार (2000 में दलाई लामा की उपस्थिति में स्थापित) को सन 2018 में, दिल्ली में आयोजित 69वें गणतंत्र दिवस समारोह की एक झांकी के माध्यम से भी दिखाया गया था।
सड़क के रास्ते, काज़ा (12 किमी), मनाली (210 किमी) और शिमला (250 किमी) से “की गोम्पा” जाया जा सकता है। इस सफ़र के लिए अप्रैल से सितम्बर तक का वक़्त सबसे बेहतर माना जाता है। पुराने तिब्बती आकर्षण की यादों को ताज़ा करनेवाला “की गोम्पा” आज बौद्धों के लिए शोध और संवाद के सबसे महत्वपूर्ण केंद्रों में एक के रूप में विकसित हो चुका है।
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