पहली नज़र में इसमें कोई भव्यता नज़र नहीं आती क्योंकि ये मंजूषा सिर्फ़ 19 सें.मी. ऊंचा और 10 सें.मी. चौड़ा है। ये इतना छोटा है कि इसे दोनों हाथों में थामा जा सकता है। लेकिन किसी समय इस बक्से में गौतम बुद्ध के अवशेष रखे होते थे।
जिस जगह मंजूषा मिला था वो कोई प्रसिद्ध स्थान नहीं है। यहां आज बस एक टीला मौजूद है लेकिन एक समय था जब ये पुरातात्विक गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था। खोज और खुदाई के बाद जो चीज़ें यहां मिली हैं वे बेहद दिलचस्प हैं। इससे हमें कुषाण राजवंश की बौद्ध कला के बारे में पता चलता है। पहली और तीसरी शताब्दी तक कुषाण राजवंश का उत्तरी भारत और आज के पाकिस्तान के ज़ंयादातर हिस्सों पर शासन हुआ करता था।
कुषाण मौजूदा समय के तुर्केमेनिस्तान से भारत आए थे। इसके पहले दूसरी शताब्दी में उन्हें क़बायली समुदाय हिड़्ग-नू( जो बाद में हूंणों के नाम से जाने गये) ने उनके पैतृक स्थान से खदेड़ दिया था। इसके बाद वे उज़बेकिस्तान के आमू दरिया क्षेत्र में बस गए थे। कुषाण कुनबा लगभग एक सदी तक आमू दरिया के किनारे बसा रहा गया। इस दौरान कुषाण राजकुमार कोजोला कादफ़ीस (15वीं-70 ई) ने अफगानिस्तान, गंधार और आज के पाकिस्तान की स्वात घाटी के निचले हिस्से यानी एक बहुत बड़ा क्षेत्र जीत लिया था। इसी के साथ कुषाण साम्राज की शुरुआत हुई।
कनिष्क (78-144) के शासनकाल में साम्राज अपने चरम पर था। उसेक शासनकाल में कुषाण साम्राज उज़ेबेकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, आज के पाकिस्तान से लेकर उत्तर भारत तक फैल गया था। ये साम्राज पूर्व में भागलपुर और दक्षिण में सांची तक फैला हुआ था। पूरे सम्राज का संचालन पुरुषपुर (पेशावर, पाकिस्तान) और उत्तरी भारत के मथुरा शहर से होता था।
कनिष्क बौद्ध धर्म का संरक्षक था। उसके शासनकाल में बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ा और महायान पंथ की भी स्थापाना हुई। कनिष्क के शासनकाल में ही गंधार और मथुरा कला-शैली विकसित हुई। एक तरफ़ जहां यूनानी आकृतियां गंधार कला की विशेषता होती थीं वहीं मथुरा-कला शैली में देशज आकृतियों की बहुलता होती थी।
माना जाता है कि कनिष्क ने एक विशाल स्तूप बनवाया था लेकिन आज उसके स्थान के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। चीनी यात्रियों ने कनिष्क मीनार का उल्लेख ज़रूर किया है। चीनी श्रद्धालुओं ने एक स्थानीय परंपरा के हवाले से बताया है कि सम्राट कनिष्क ने मिट्टी के एक छोटे से स्तूप के ऊपर एक स्मारक बनवाया था। ये स्तूप एक बच्चे ने बनाया था। स्तूप के ऊपर स्मारक बन तो गया लेकिन स्तूप बार बार उभरकर निकल आता था। आख़िरकार राजा ने स्मारक का ऊपरी हिस्सा गिरवाकर उसे दोबारा बनवया।
चीन में दुनहुआंग में मिली नामावली में एक कथा का उल्लेख है जिसमें बताया गया है कि कैसे कनिष्क को स्तूप मिला था। “कनिष्क को एक बड़ा स्तूप बनाने की जिज्ञासा हुई। उस समय चार राज्याधिकारी ऐसे थे जो राजा के दिल की बात पढ़ लेते थे। राजा की जिज्ञासा को पढ़कर उन्होंने बच्चों का रुप धारण कर लिया और राजा से कहा कि हे महान राजा, बुद्ध की भविष्यवाणी के अनुसार तुम्हें पूरे मन से एक बड़ा स्तूप बनाना है जिसमें अवशेष ज़रुर रखे जाने चाहिये जिससे समृद्धी आएगी।“
शताब्दियों तक ये स्तूप नष्ट होता रहा और बनता रहा। 520 ई.पू. में यहां आए चीनी यात्री सुंग युन ने स्तूप के निर्माण और आकार के बारे में बताया है। उनके अनुसार, “राजा मीनार की बुनियाद को तीन सौ ग़ज़ या अधिक चौड़ा करना चाहते थे। उन्होंने मंडप तानने के लिये सीधे स्तंभ लगवाए। उन्होंने पूरी इमारत में नक़्क़ाशीदार लकड़ी का प्रयोग किया, ऊपर जाने के लिये उन्होंने सीढ़ियां बनवाई….वहां तीन फुट ऊंचा लोहे का खंबा भी था। इस मीनार की कुल ऊंचाई 700 फुट थी।
छठी शताब्दी की शुरुआत में सुंग यूं ने देखा कि मीनार पर कम से कम तीन बार बिजली गिरी थी और हर बार इसे फिर बनाया गया। यूं के अनुसार स्तूप के ऊपर कांसे की छड़ लगा हुई थी जो बिजली को अपनी तरफ़ खींचती थी। स्तूप के नष्ट होने का एक कारण भूकंप भी हो सकते हैं जो इस क्षेत्र में बहुत आते थे। बौद्ध धर्म के इतिहासकार हू फुओक ले ने अपनी किताब “ बुद्धिस्ट आर्किटेक्चर “ में लिखा है कि स्तूप को चार बार बनाया गया था, पहली बार दूसरी और तीसरी शताब्दी में, दूसरी बार चौथी शताब्दी में, तीसरी बार पांचवी शताब्दी में और चौथी बार छठी शताब्दी में।
9वीं और 10वीं शताब्दी में इस्लाम के आने के बाद दक्षिण एशिया की तरह इस क्षेत्र में भी बौद्ध धर्म का प्रभाव इतना कम होने लगा कि ये लोगों की याद्दाश्त से भी ग़ायब हो गया क्षेत्र के लोगों ने मूर्तीव्हीन धर्म को अपनाना शुरू कर दिया था। 18वीं शताब्दी में यूरोप के विद्वानों के अथक प्रयास की वजह से बौद्ध धर्म का संबंध इस क्षेत्र से फिर क़ायम हो सका।
हालंकि स्तूप सदियों तक ग़ायब रहा लेकिन दस्तावोज़ों ख़ासकर चीनी यात्री फा श्यान और सुन यंग के लेखन में इसका लगातार ज़िक्र होता रहा। ये दोनों चीनी यात्री 5वीं और छठी शताब्दी के थे। इस स्तूप को विश्व की सबसे ऊंची ईमारत बताया गया था ऐर इसीलिये औपनिवेशिक भारत में पुरातत्वविद और इतिहासकार लगातार इसकी तलाश में जुटे रहे। इतिहासकार एम.अल्फ्ऱेड फ़ौशर पेशावर ने गंज गेट के बाहर शाह जी की ढ़ेर का पता लगाया था। सन 1908 में
पुरातत्वविद डेविड ब्रैनार्ड को खुदाई के समय कांसे का एक मंजूषा मिला था जिसका ढ़क्कन बहुत ज़ोर से बंद था। ये मंजूषा कुषाण के राजा कनिष्क के सिक्के पर रखा हुआ था।
बक्से के ढ़क्कन पर बुद्ध की मूर्तियां बनी हुई हैं। इनमें बुद्ध के आसपास इंद्र और ब्रह्मा भागवान दिखाई पड़ते हैं। चित्र में बुद्ध, कमल के फूल पर बैठे हैं और उनका एक हाथ अभय की मुद्रा में है जबकि दूसरे हाथ से उन्होंने अपने कपड़ों के सिरे को पकड़ रखा है। ढ़क्कन के मुहाने पर उड़ते हुए हंस हैं जो यूनानी शैली के हैं।बक्से पर यूनानी कलाके कई चित्र हैं जो गंधार क्षेत्र से मिलते जुलते हैं जहां मंजूषा मिला था। लेकिन न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के इतिहासकार मिरेला लेवी द् अनकोना का कहना है कि ये मंजूषा मथुरा में बना होगा जो कुषाण कला का एक अन्य केंद्र था।
बक्से पर एक छवि बनी हुई है जो कनिष्क की है। इस छवि के आसपास सूर्य और चंद्रमा भगवान की छवियां हैं बक्से के दूरी तरफ़ बुद्ध की छवि है जो ध्यान-मग्न अवस्था में बैठे हैं। बक्से में चार शिला-लेख रखे हैं जो खरोष्ठी लिपि में हैं। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि ये मंजूषा कनिष्का के समय ही बनवाया गया था। डी.बी. स्पूनर के अनुसार शिला-लेख की भाषा संस्कृतनिष्ट प्राकृत में है। पहले दो शिला-लेख बुद्ध को समर्पित हैं जबकि तीसरे शिला-लेख में बताया गया है कि मंजूषा कनिष्का के शासनकाल के पहले साल में बनवाया गया था।
चौथा शिला-लेख दरअसल बहुत दिलचस्प है। इसमें दास अगिआला को महिसेना मठ में कनिष्क के विहार के निर्माण कार्य का निरीक्षक बताया गया है। यहां अगिआला का आशय यूनानी कलाकार अगिसाला से हो सकता है जो कनिष्क विहार बनाने में शामिल था। इससे ये भी संकेत मिलता है कि अगिसाला ने ही संभवत: कास्केट बनाया था | दिलचस्प बात ये है कि कैलिफ़ेर्निया यूनिवर्सिटी के कला इतिहासकार सैंटा बारबरा अगिसाला शब्द को अग्निशाला बताते हैं जिससे इस बात पर सवालिया निशान लग जाता है कि यूनानी कलाकार अगिसाला बक्से बनाने में शामिल था भी कि नहीं। सैंकड़ों शोद्ध-कर्ताओं ने बक्सों की खोज और अध्ययन के बाद भी बक्सों को लेकर ऐसे कई सवाल किये हैं जिनका कोई जवाब आज तक नहीं मिल पाया है।
बक्सों की खोज के वक़्त हड्डियों के तीन टुकड़े मिले थे।7वीं सदी के चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के अनुसार ऐसा माना जाता है कि ये हड्डियां बुद्ध के अवशेष थे। ये हड्डियां अंग्रेंज़ो ने सुरक्षित रखने के उद्देश्य से सन 1910 में बर्मा के मंडाले शहर भेजी थीं जो आज भी वहां मौजूद हैं।
अविभाजित भारत में उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में मिले बक्से से पता चलता है कि संयुक्त युग में सदियों तक मिलीजुली संस्कृति हुआ करती थी। एक तरफ़ जहां बक्सों का इतिहास दिलचस्प है वहीं इससे जुड़ी कथा भी कम दिलचस्प नहीं है। ऐसा माना जाता है कि पेशावर संग्रहालय में रखा मंजूषा ही मौलिक है और ब्रिटिश संग्रहालय में रखा मंजूषा दरअसल इसकी नक़ल है। कुछ विद्वानों का कहना है कि दोनों ही मौलिक हैं जबकि कुछ का कहना है कि दोनों ही नक़ल हैं। ब्रिटिश संग्रहालय का कहना है कि जब मैलिक बक्से को संरक्षित किया गया था तब इसकी दो नक़ल बनाई गईं थीं। एक
नक़ल जहां उसने ख़ुद अपने लिये रख ली थी वहीं मौलिक के साथ एक नक़ल पेशावर भेज दी गई थी।
अमेरिका में ब्राउन यूनिवर्सिटी के इतिहासकार वज़ीरा फ़ैज़िला याकौबाली ज़मींदार का कहना है कि ब्रिटिश संग्रहालय और पेशावर संग्रहालय में मौजूद दोनों बक्से दरअसल नक़ल हैं और किसी को भी ये नहीं पता कि असली बक्से कहां रखे हैं। बक्सों के चित्र जो हमें ऑनलाइन दिखाई पड़ते हैं वो दरअसल ब्रिटिश संग्रहालय में रखे बक्सों की नक़ल के ही चित्र हैं।
20वीं शताब्दी के प्रारंभ में पेशावर में इस स्तूप पर विश्व भर के पुरातत्वविदों की नज़र थी लेकिन आज न सिर्फ़ लोग इसे भूल चुके हैं बल्कि इसकी स्थित भी जर्जर हो चुकी है। हालंकि बक्सों की कॉपियों को सुपरक्षित रखा गया है लेकिन दुर्भाग्य से स्तूप के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता।
एक तरफ जहां कनिष्का के बक्से का सौंदर्यात्मक और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्व है वहीं सदियों से इसके साथ रहस्य जुड़ा हुआ है जो आज भी बरक़रार है।
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