चूड़ियां, अनादि काल से भारत में एक गहने के रूप में लोकप्रिय रही हैं। बीकानेर से लगभग 205 किलोमीटर दूर सिंधु घाटी सभ्यता के एक शहर कालीबंगा का नाम, यहां मिली चूड़ियों के नाम पर ही पड़ा है! लेकिन यही नहीं- इस शहर में अग्नि वेदियों के साक्ष्य भी मौजूद है। यहां उत्खनन में बहुत पहले आए भूकंप का भी पता चला है। और-तो-और, जुताई वाले कृषि क्षेत्र का भी यहां प्रमाण मिलता है।
राजस्थान की पीलीबंगा तहसील में अब सूख चुकी घग्गर (सरस्वती) नदी के तट पर स्थित कालीबंगा सिंधु घाटी सभ्यता के सबसे महत्वपूर्ण स्थलों में से एक है।
कालीबंगा का शाब्दिक अर्थ है काली चूड़ियां। इसका नाम यहां मिली भारी संख्या में टेराकोटा चूड़ियों के कारण पड़ा है।
कालीबंगा का सबसे आरंभिक दस्तावेज़ ब्रिटिश अधिकारी और विद्वान जेम्स टॉड की किताब “एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ राजस्थान” में दर्ज था। सन 1917 में इतालवी इंडोलॉजिस्ट लुइज पियो तैस्सीतोरी ने इस क्षेत्र के पुरातात्विक रूप से महत्वपूर्ण सभी स्थलों को सूचीबद्ध करने के लिए राजपूताना के ऐतिहासिक सर्वेक्षण के तहत इस क्षेत्र का दौरा किया था। अपनी यात्रा के दौरान उन्हें उस जगह पर ऐसे साक्ष्य मिले थे, जो उनके अनुसार, प्रागैतिहासिक या पूर्व-मौर्य काल के थे। दुर्भाग्य से सन 1919 में तैस्सीतोरी की मृत्यु हो गई और काम रुक गया। तैस्सीतोरी की यात्रा के वर्षों बाद, सन 1950 में पुरातत्वविद् अमलंदा घोष जब बीकानेर के उत्तरी क्षेत्र में सूखी हुई नदी-घाटियों की खोज कर रहे थे, तब कालीबंगा पर एक बार फिर नज़र पड़ी। घोष, हड़प्पा सभ्यता से संबंधित इस स्थल की पहचान करने वाले पहले व्यक्ति थे। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तहत सन 1961-1969 तक लगातार कालीबंगा में खुदाई की गई, जिसका नेतृत्व भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तत्कालीन महानिदेशक बी. बी. लाल और पुरातत्वविद् बी .के. थापर कर रहे थे।
खुदाई के दौरान कालीबंगा में हड़प्पा-पूर्व और हड़प्पा-काल के तीन सांचे पाए गए। पश्चिमी हिस्से के निचले भाग में मिले सांचे पूर्व हड़प्पा-काल के थे। हड़प्पा-पूर्व समय के घर योजना के तहत बने हुये थे, जिन्हें मिट्टी की ईंटों से बनाया गया था और दीवारों पर मिट्टी तथा भूसी का पलस्तर किया गया था। अमूमन घर में कुछ कमरे और एक आंगन हुआ करता था। कुछ आंगनों में ज़मीन के नीचे औऱ ज़मीन के ऊपर दो प्रकार के अवन के प्रमाण मिले हैं। दिलचस्प बात यह है, कि ये अवन कुछ हद तक आधुनिक समय के तंदूर से मिलते जुलते हैं। इसके अलावा विशाल बेलनाकार गड्ढे मिले थे, जो शायद भंडारण के लिए उपयोग किए जाते होंगे।
इस अवधि की सबसे आकर्षक खोज वह थी जिसमें, उस ज़माने में जुताई से खेती का प्रमाण मिले थे। क़िलेबंदी के बाहर यह खेत हल से जोते गये लगते थे यानी हल चलाने से उभरी रेखाएं, जो एकदम सही कोण में एक दूसरे को को काटती थीं। हल से बनी इन रेखाओं से तरह तरह की फ़सलों की खेती का पता चलता है। लेकिन जो बात इसे और भी दिलचस्प बनाती है, वह यह है कि इस प्रकार की जुताई से खेती आज भी होती है।
यहां इस काल की कई कलाकृतियों मिली हैं। धारदार पत्तियां, साबुन-पत्थर के मोती, मिट्टी और चीनी के बेल बूटेदार बर्तन, तांबा, सोना और इंद्रगोप, टेराकोटा केक, कुल्हाड़ी जैसे तांबे के हथियार और टेराकोटा खिलौने भी मिले थे। इस अवधि के मिट्टी के बर्तन विशिष्ट थे, जिन पर अच्छी तरह से पॉलिश की हुई थी, और पत्तियों, फूलों, रेखाओं, ग्रिड और कई अन्य रूपांकनों से सजे हुए थे।
माना जाता है, कि पूर्व-हड़प्पा-काल में लगभग 2600 (ई.पू.) में भूकंप आया था, जो संभवत: सबसे पहले दर्ज किए गए भूकंपों में से एक था। शायद इसी वजह से लोग इस क्षेत्र से भाग गए थे।
यह क्षेत्र लंबे समय तक वीरान पड़ा रहा, और अंत में लगभग तीसरी सहस्राब्दी (ई.पू.) में हड़प्पा सभ्यता के लोग यहां बसे। इन लोगों में नगर बसाने का कौशल था। हड़प्पा सभ्यता के लगभग सभी शहर योजनाबद्ध थे और कालीबंगा भी इससे अछूता नहीं है। शहर को दो भागों में बांटा गया था- गढ़ और निचला शहर। यह अन्य हड़प्पा शहरों के समान ग्रिड जैसे पैटर्न वाला शहर था। घर बड़े-बड़े थे, जिनमें कई कमरे और एक आंगन होता था, और कुछ घरों में कुआं भी होता था। एक घर में छत तक जाने के लिए सीढ़ियां भी थीं, जबकि दूसरे में जली हुई टाइलों से बनी एक मंजिल थी, जिस पर ज्यामितीय डिज़ाइन बनी हुई थी। गढ़ में जहां नालियां होती थीं वहीं निचले शहर में सड़क जल निकासी व्यवस्था नहीं थी, जो आमतौर पर हड़प्पा शहरों में देखी जाती थी। घरों से निकलने वाले कचरे को घरों के बाहर मिले बड़े-बड़े घड़ों में इकट्ठा किया जाता था।
इस काल की शायद सबसे मोहक खोज अग्नि वेदियां थीं, जो गढ़ और निचले शहर में पाई गई थीं।इन वेदियों में यज्ञ अनुष्ठानों में, बलि का प्रसाद अग्नि को चढ़ाया जाता था। गढ़ के दक्षिणी भाग में मिट्टी-ईंट के चबूतरे मिले थे, जिस पर मिट्टी से पलस्तर किये गड्ढे बने हुए थे। इन अग्नि वेदियों के पास ही एक कुआं मिला था। विद्वानों के अनुसार अनुष्ठान से पहले लोग यहां स्नान करते होंगे। दक्षिणी गढ़ में कोई मकान नहीं थे, लेकिन गढ़ के उत्तरी भाग के मकानों संभवतः इन अनुष्ठानों से संबंधित लोग रहा करते होंगे। निचले शहर में घरों में आयताकार अग्नि वेदियां थीं। इन अग्नि वेदियों के आसपास चारकोल, राख और टेराकोटा केक पाए गए, जो संभवत: प्रसाद के रूप में उपयोग किए जाते थे। गढ़ की एक वेदी में जानवरों की हड्डियाँ मिलीं जिनसे पशु बलि के संकेत मिलते हैं।
हड़प्पावासी कृषि, व्यापार और वाणिज्य में शामिल थे जैसा कि कई खोजों से स्पष्ट होता है। यहां लकड़ी के दस्ते और लंबे धारदार पत्तियों के साथ गेहूं और जौ मिला था। लकड़ी के दस्ते और लंबे धारदार पत्तियों का उपयोग शायद कृषि उद्देश्यों के लिए किया जाता था। इनके अलावा, बाट, नाप, मुहरें और मुद्रण, टेराकोटा खिलौने और वस्तुएं, मोती, हड्डी और हाथी के दांत की वस्तुएं और बड़ी संख्या में चूड़ियां भी मिलीं। इनमें दो चीज़े विशिष्ट थीं- एक सजीव-सा लगने वाला टेराकोटा का मानव सिर और एक हमला करता हुआ बैल।
कालीबंगा में हड़प्पा-काल की एक और दिलचस्प विशेषता यह थी, कि मृतकों को दफ़्न करने के तीन तरीक़े थे। इनमें से एक तरीक़ा यह था कि, शव को आयताकार या अंडाकार गड्ढे में दफ़्न करना होता था। इसमें शव को सीधे लेटा दिया जाता था, औऱ उसके आसपास मिट्टी के बर्तन रख दिये जाते थे। अन्य दो तरीकों में लगता है, कि अंत्येष्टि प्रतीकात्मक होती होगी क्योंकि वहां उनके आसपास केवल कुछ वस्तुएं होती थीं लेकिन कोई कंकाल नहीं होता था। इनमें से एक तरीक़ा यह भी था, कि शव को एक गोलाकार गड्ढे में,एक बड़े मटके में दफ़्न किया जाता था। मटके के आसपास बर्तन, मोती और शंख रखे होते थे। तीसरे तरीक़े में आयताकार या अंडाकार जगह में शव को दफ़्नाया जाता था, जिसमें सिर्फ़ मिट्टी के बर्तन और अंत्येष्टि की वस्तुएं रखी होती थीं।
ऐसा लगता है, कि अधिकांश हड़प्पा शहरों में,लोगों की प्राकृतिक आपदाओं से मुठभेड़ एक सामान्य बात रही होगी । कालीबंगा की हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने शायद घग्गर (सरस्वती) नदी के सूखने के कारण ही शहर को छोड़ दिया होगा।
सन 1983 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने कालीबंगन में एक पुरातत्व संग्रहालय की स्थापना की, जिसमें हड़प्पा-पूर्व और हड़प्पा-काल की खुदाई में मिली वस्तुएं रखी गई हैं।
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