जौनपुर पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा शहर है जो वाराणसी से 50 कि.मी. और इलाहबाद से 100 कि.मी. दूर है। लेकिन क्या आपको पता है कि ये कभी शर्क़ी सल्तनत की राजधानी हुआ करती थी जिसकी स्थापना किन्नरों के राजवंश ने की थी। आज इस अनौखे किन्नर राजवंश की धरोहर के रुप में सिर्फ़ जौनपुर का शाही क़िला ही बचा है।
फ़ीरोज़ शाह तुग़लक़ के शासनकाल में मलिक सरवर नाम का एक अफ़्रीक़ी ग़ुलाम किन्नर होता था जिसने प्रशासनिक कामों में तेज़ी से तरक़्क़ी की और जल्द ही सुल्तान के दरबार में प्रमुख किन्नर और शाही हाथियों का रखवाला बन गया। सन 1389 में मलिक सरवर को ख़जाह-ए-जहां का ख़िताब दिया गया। सन 1394 में उसे जौनपुर का सूबेदार नियुक्त किया गया और उसे नसरुद्दीन मोहम्मद शाह तुग़लक़-द्वितीय (1394-1413) ने मलिक-उस-शर्क़ का ख़िताब दिया।
सन 1398 में मध्य एशिया जीतने के बाद तैमूर लंग द्वारा दिल्ली पर हमले से दिल्ली की सल्तनत बिखर गई और जौनपुर के सूबेदार मलिक सरवर सहित अन्य सूबेदारो ने ख़ुद को ख़ुद मुख़्तार घोषित कर दिया। मलिक सरवर ने अताबक-ए-आज़म( तुर्की भाषा में अताबक यानी मालिक,पिता) का ख़िताब लेकर केरा, अवध, डालमऊ, बहराइच और दक्षिण बिहार जैसे क्षेत्रों पर अपना क़ब्ज़ा कर लिया और इस तरह से जौनपुर सल्तनत की नींव पड़ी। जाजनगर (उड़ीसा) के राय और लखनौटी के शासक ने मलिक सरवर की सल्तनत को मान्यता दी और तोहफ़े में उसे कई हाथी भिजवाए। मलिक सरवर के निधन के बाद उसका दत्तक पुत्र मलिक क़रनफल(लौंग) उसका उत्तराधिकारी बना और उसने अपना ख़िताब मुबारक शाह रख लिया।
सन 1388 में फ़ीरोज़ शाह तुग़लक़ ने मलिक सरवर को इलाक़े का सीबेदार नियुक्त किया जिसके दिन बदलने वाले थे।इसी अफ़्रीक़ी किन्नर मलिक को फ़ीरोज़ शाह तुग़लक़ के बेटे शहज़ादे मुहम्मद को दे दिया गया जिनकी छत्रछाया में वो जल्दी ही प्रधान किन्नर और हाथी ख़ाने का निरीक्षक बन गया। लेकिन मलिक सरवर सुल्तान फ़ीरोज़ शाह की बेटी के प्रेमी के रूप में कुख्यात हो गया और सन 1393 में मुहम्मद शाह ने उसे दरबार से दूर पूर्वी प्रान्त का सूबेदार बना दिया जिसकी राजधानी जौनपुर थी ।
शर्क़ी सुल्तानों के शासनकाल में जौनपुर साहित्य और शिक्षा का केंद्र बन गया था ख़ासकर अरबी भाषा के स्कूलों के लिये जिन्हें शर्क़ी सुल्तानों का संरक्षण प्राप्त था। शम्सउद्दीन इब्राहीम (1402-1440) के दरबार में कई विद्वान हुआ करते थे और मेहमूद की बैगम बीबी राजी ने लाल दरवाज़ा मस्जिद में अरबी और विज्ञान की पढ़ाई के लिये एक कॉलेज बनवाया था। जौनपुर सल्तनत पश्चिम इटावा से लेकर पूर्वी लखनौटी (बंगाल) और दक्षिण विंध्यांचल से लेकर उत्तर नेपाल तक फैली हुई थी।
विद्वानों में सबसे प्रसिद्ध नाम है क़ाज़ी शहाबउद्दीन ज़वाली दौलताबादी। क़ाज़ी शहाबउद्दीन ज़वाली का जन्म ग़ज़नी में हुआ था और वह बचपन में पहले दौलताबाद और फिर दिल्ली चले गए जहां उन्होंने ग़ाज़ी अब्दुल मुक़्तादिर और मौलाना ख़्वाजगी से शिक्षा प्राप्त की। दिल्ली पर तैमूर के हमले के बाद वह कल्पी और फिर जौनपुर भाग गए जहां शम्सउद्दीन इब्राहीम ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया और उन्हें मलिक-उल-उलेमा का ख़िताब दिया।
शर्क़ी वंश के अंतिम शासक हुसैन शाह (1465-1476) ने दिल्ली के लोदी सुल्तानों से कई युद्ध लड़े। लेकिन तीन युद्ध लड़ने के बाद आख़िरकार दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी ने उसे हरा दिया और इस तरह से जौनपुर सल्तनत का पतन शुरु हो गया। सन 1479 में शर्क़ी साम्राज्य के हाथों से जौनपुर जाता रहा और हुसैन शाह बंगाल भाग गया ,जहां सुल्तान अलाउद्दीन शाह ने उसे पनाह दी। हुसैन ने अपनी ज़िंदगी के बाक़ी दिन वहीं गुज़ारे।
ज़्यादातर शर्क़ी सुल्तानों और उनके शाही परिवार के लोगों की क़ब्रें ऐतिहासिक जामा मस्जिद के पास हैं। उनके मक़बरे वास्तुकला की दृष्टि से कभी भव्य रहे होंगे लेकिन सिकंदर लोदी ने शर्क़ी सल्तनत के पतन के बाद जौनपुर शहर को तबाह कर दिया था और मक़बरे तोड़ दिए थे। लोदी वंश ने जौनपुर पर सन 1484 से लेकर सन 1525 तक शासन किया।
सन 1526 में बाबर ने दिल्ली पर हमलाकर इब्राहीम लोदी को हरा दिया और पानीपत के युद्ध में इब्राहीम लोदी मारा गया। बाबर ने अपने पुत्र हुमांयू को, जिसने जौनपुर के शासक को हराया था, जौनपुर पर कब्ज़ा करने के लिये भेजा। सन 1556 में हुमांयू की मृत्यु के बाद 18 साल का उसका पुत्र जलालउद्दीन अकबर तख़्त पर बैठा। सन 1567 के दौरान जब जौनपुर के सूबेदार अली कुली ख़ान ने बग़ावत कर दी तो अकबर ने हमलाकर युद्ध में उसकी हत्या कर दी। इसके बाद अकबर कई दिनों तक जौनपुर में रहा और फिर बाद में सरदार मुनीर ख़ान को वहां का शासक बनाकर वापस लौट गया।
जहांगीर के समय में ,जौनपुर पर, फ़ारसी में जौनपुरनामा नामक किताब लिखी गई थी। किताब के अनुसार शाहजहां जब बंगाल से युद्ध के बाद वापस दिल्ली वापस आ रहा था तब वह और उसके सिपाही बहुत बीमार हो गए थे। कुछ सिपाहियों की तो मौत भी हो गई थी। ऐसे वक़्त में सूफ़ीवाद में गहरी आस्था रखने वाले शाहजहां सूफ़ी संत शाह नज़ीर बाबा के मज़ार पर पहुंचे और सभी लोगों की सेहत के लिये दुआ मांगी। शाहगंज में मज़ार पर शाहजहां ने जौनपुर के बारे में सुना। वहां के कवियों, लेखकों, विचारकों और दार्शनिकों की समृद्ध विरासत के बारे में सुनकर उन्होंने जौनपुर पैदल जाने का फ़ैसला किया। वहां पहुंचने पर वह जौनपुर की वास्तुकला के क़ायल हो गए। जौनपुर की संस्कृति इतनी समृद्ध थी कि शाहजहां ने शहर की तुलना ईरान की सांस्कृतिक राजधानी शिराज़ से कर दी और इसका नाम शिराज़-ए-हिंद यानी भारत का शिराज़ रख दिया।
जौनपुर डेढ़ सौ सालों तक मुग़ल साम्राज्य का हिस्सा रहा। सन 1722 में जौनपुर अवध के नवाब को सौंप दिया गया। फिर सन 1775 में जौनपुर और बनारस ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में चले गए।
शाही क़िला
शाही क़िले से गोमती नदी का सुंदर दृश्य नज़र आता है और यहां से सारा शहर भी दिखाई पड़ता है। जौनपुर के तत्कालीन शासक मुनीर ख़ान ने क़िले की पूर्वी दिशा की तरफ़ एक अतिरिक्त दालान बनवाया जहां सुरक्षा के लिये एक भव्य द्वार भी बनवाया गया। इस द्वार को नीले और पीले पत्थरों से सजाया गया था।
ये क़िला चोकोर है जो आम डिज़ाइन से अलग है। क़िले के पूर्व की तरफ़ मुख्य द्वार है और पश्चिम दिशा में बाहर जाने का दरवाज़ा है। इसके अंदर एक सुंदर मस्जिद भी है जो हिंदू मंदिरों के खंबों से बनाई गई है। मुख्य द्वार क़रीब 14 मीटर ऊंचा और क़रीब पांच मीटर गहरा है। द्वार के दोनों तरफ़ प्रकोष्ठ हैं जो आश्चर्य की बात है। क़िले का भीतरी दरवाज़ा 26.5 फुट ऊंचा और 16 फुट चौड़ा है। मध्य का द्वार 36 फुट ऊंचा है। क़िले के ऊपर एक विशाल गुंबद है। अब क़िले का पूर्वी दरवाज़ा और कुछ मेहराबें आदि ही रह गई हैं जो इसके भव्य इतिहास की कहानी बयां करती हैं।
तुग़लक़ों को हराने के बाद लोदियों ने सत्ता में आने के बाद, सौ साल पुराने इस क़िले को तहस नहस कर दिया। हुमांयू और अकबर के शासनकाल में क़िले की न सिर्फ़ मरम्मत करवाई गई थी बल्कि इसे सजाया धजाया भी गया था। बहरहाल, अंगरेज़ सरकार ने इस पर क़ब्ज़ा कर लिया लेकिन सन 1857 में भारत की आज़ादी की पहली लड़ाई के दौरान इसे भी ढ़हा दिया गया। कुछ सालों के बाद अंगरेज़ों ने इसके 40 खंबों को तोड़ दिया।
क़िले के अंदर तुर्की शैली का एक ग़ुसलख़ाना है और एक मस्जिद भी है। इब्राहीम बरबंक की बनवाई गई मस्जिद में हिंदू और बौद्ध वास्तुकला शैली की झलक मिलती है।
भूलभुलैया: ये भव्य तुर्की ग़ुसलख़ाने की तरह है जिसे हमाम कहते हैं। घुमावदार गलियारों की वजह से इस हमाम को भूलभुलैया कहा जाता है। इसकी कल्पना करते ही ख़ुशबूदार भाप का एक झौंका आता है। वज़ीरों को दूर से दुश्मनों की गंध आ जाती थी।। क़िले के नीचे हमाम में गर्म और ठंडे पानी की व्यवस्था है और पानी के निकलने का मार्ग है। हमाम के भीतर गलियारों का झुंड और धंसे हुए गड्ढ़े हैं। इन गड्ढ़ों पर कांसे के ढ़क्कन होते थे जो सूरज की किरणों से पानी को गर्म करते थे।
मस्जिद: क़िले में बंगाली शैली की एक मस्जिद है जिसके तीन गुंबद हैं। ये मस्जिद बहुत संकरी है और ये गुंबद 39.40X6.65 मीटर के है । इसका खंबा 12 मीटर लंबा है और उस पर शिला-लेख है जिससे हमें सन 1376 में नायब बरबक की बनवाई हुई मस्जिद के बारे में जानकारी मिलती है।
क़िले के बाहर के द्वार पर भी एक शिला-लेख है जो हिंदुओं को गीता, मुसलमानों को क़ुरान और ईसाईयों को बाइबिल पढ़ने को प्रेरित करता है। क़िले के बाहरी हिस्से में द्वार, दीवार और अन्य ढांचें चौकोर पत्थरों के बने हैं।
जौनपुर शर्क़ी सुल्तानों के उद्भव और पतन का जीता जागता गवाह है । इसने सांस्कृतिक और शैक्षणिक दृष्टि से दिल्ली सल्तनत और मुग़ल काल में सबसे बेहतरीन दिन देखे हैं। मौजूदा समय में जौनपुर की अनदेखी की गई है। इसके अलावा प्राकृतिक आपदा जैसे बाढ़ और भूकंप की वजह से भी इसके ख़ूबसूरत स्मारकों को नुकसान हुआ है। लेकिन लगता है कि उत्तर प्रदेश सरकार इसके संरक्षण के लिये गंभीर भी नहीं है।
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