लखनऊ की जामा मस्जिद की मीनारें मीलों दूर से देखी जा सकती हैं। क्षितिज को छूनेवली यह छतरीदार मीनारें एक ऐसे शहर की पहचान हैं जिसे अवध के नवाबों ने सजाया-संवारा था। नज़र ज़रा तिरछी करने पर आपको मस्जिद की सिर्फ़ दो मीनार ही दिखेंगी, बाक़ी दो मीनार अधूरे हैं। उनका क़द मस्जिद की बुलंद छत के बराबर ही है।
जामा मस्जिद लखनऊ के उन कई शानदार स्मारकों में से एक है जो अवध के बेहतरीन वास्तुकला के नमूनों के लिए जाने जाते हैं। 18वीं सदी के आरंभ में मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद नवाब, जो पहले मुग़लो के हाकिम हुआ करते थे, अवध के शासक बन गए। पहले उनकी राजधानी फ़ैज़ाबाद शहर हुआ करता था जो बहुत दूर नहीं था, लेकिन नवाब असफ़उद्दौला (शासनकाल 1775-97) ने सन 1775 में लखनऊ को अपनी राजधानी बना लिया।
कला, वास्तुकला और संस्कृति के संरक्षक नवाबों की कई पीढ़ियों ने लखनऊ में ख़ूबसूरत बाग़, शानदार इमामबाड़े या धार्मिक सभागार और महल बनवाए थे। इस वजह से लखनऊ 19वीं सदी में उत्तर भारत के भव्य शहरों में से एक गिना जाने लग था।
लखनऊ के शानदार स्मारकों में से एक है जामा मस्जिद जो हुसैनाबाद के तहसीनगंज इलाक़े में है। इसे नवाब मोहम्मद अली शाह (शासनकाल 1837-42) ने बनवाया था। वह इसे पुरानी दिल्ली में शाहजानाबाद की ऐतिहासिक जामा मस्जिद से भी कहीं ज़्यादा बड़ी और भव्य बनाना चाहते थे।
मोहम्मद अली शाह साठ साल की उम्र में अवध के नवाब बने थे। विनम्र और सजन्न नवाब को लोग बहुत प्यार करते थे। उन्होंने अपने से पहले के नवाबों की तरह फ़िज़ूल ख़र्ची नहीं की और उन्होंने ख़ज़ाने में इज़ाफ़ा किया। उन्होंने इस धन का इस्तेमाल भव्य सार्वजनिक भवनों बनाने में किया ताकि इतिहास में उन्हें याद किया जाएगा।
इन भवनों में सबसे प्रमुख है हुसैनाबाद इमामबाड़ा जिसे छोटा इमामबाड़ा भी कहा जाता है। उन्होंने शहर में एक विचित्र बुर्ज सातखंडा (सात मंज़िला) भी बनवाया। कुछ लोगों का कहना है कि इसे उन्होंने “लीनिंग टावर आफ़ पीसा” ( पीसा की टेढ़ी मीनार) के मुक़ाबले में बनवाया था जबकि कुछ लोगों का कहना है कि इसे क़ुतुब मीनार से मुक़ाबला करने के लिए बनवाया गया था। शायद ये मीनार अवलोकन या वेधशाला के लिए बनवाया गया था जिसकी सात में से सिर्फ़ चार ही मंज़िलें पूरी हो सकीं। सन 1842 में नवाब के निधन के बाद इसका निर्माण कार्य बंद हो गया और आज तक ये स्मारक अधूरा है।
इसी तरह नवाब मोहम्मद अली शाह ने हुसैनाबाद में जामा मस्जिद भी बनवाई। उन्होंने मस्जिद बनवाने का काम सन 1839 में शुरु किया था लेकिन तीन साल बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। दिलचस्प बात ये है कि वह मस्जिद निर्माण के लिए दस लाख रुपये छोड़ गए थे। बाक़ी अधूरा काम उनकी बेगम मल्लिका जहां ने पूरा करवाया । हालंकि मस्जिद की दो मीनार, आज भी अधूरे हैं लेकिन इसके बावजूद वास्तुकला की दृष्टि से ये मस्जिद उस युग की सबसे ज़्यादा सुसज्जित और अलंकृत मस्जिदों में से एक है।
ज़्यादातर अवधी स्मारक लाहौरी ईंटों और चूना पलस्तर के बने हुए हैं। ये मस्जिद भी इसी तरह बनवाई गई थी। जामा मस्जिद में एक बहुत बड़ा दालान है जहां लोग नमाज़ अदा करते हैं और जहां से आप नमाज़ के लिये बने दो सभागारों में प्रवेश कर सकते हैं। मस्जिद के ऊंचे मेहराबदार प्रवेश द्वार के शीर्ष पर दो मेहराबें हैं जो लखनऊ के प्रसिद्ध रुमी दरवाज़े के मधुमक्खी के छत्ते के पैटर्न से काफी मिलते जुलते हैं। प्रार्थना स्थल के भीतर ऊंची छतों और स्तंभों पर बेलबूटों की अस्तरकारी है।
बड़ा इमामबाड़ा की मस्जिद की तरह जामा मस्जिद दूसरे प्रार्थना सभागार के फ़र्श पर पेश इमाम के लिए बना स्थान (मिम्बर) नीचे की तरफ़ धंसा हुआ है। शिया परंपरा के अनुसार ये धंसा हुआ इसलिए है ताकि इमाम बाक़ी नमाज़ियों से ऊपर न दिखाई दे। मेहराबें पश्चिम दिशा की तरफ़ हैं जिस पर सुंदर अस्तरकारी है। इस पर क़ुरान की आयते भी लिखी हुई हैं।
पहले प्रार्थना सभागार के दक्षिण-पूर्व कोने की तरफ़ सीढ़िया जाती हैं जहां से मस्जिद के कमल के आकार के तीन गुंबदो और मेहराबदार प्रवेश द्वार पर बनी अस्तरकारी साफ़ नज़र आती हैं। दोनों मीनारों के ऊपर बनी छतरियां, मीनारों के अंदर बनी सीढ़ियों को ढ़कने का काम भी करती हैं। यहां से हुसैनाबाद और पुराने लखनऊ शहर के अन्य इलाक़ों का शानदार नज़ारा दिखाई पड़ता है।
सन 1856 में अंग्रेज़ों ने आख़िरी नवाब वाजिद अली शाह को अपदस्थ कर कोलकता निर्वासित कर दिया। उसके अगले साल यानी सन 1857 में अवध में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह हो गया और लखनऊ में बहुत ख़ूनख़राबा हुआ। सन 1858 में लखनऊ पर कब्ज़ा करने के बाद अंग्रेज़ों ने शहर के कई भवनों को गिरा दिया ताकि फिर और कोई अचानक हमला या विद्रोह न हो सके। इन भवनों को गिराने का मक़सद ये था ताकि स्वतंत्रता सैनानी यहां छुपकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ साज़िश न रच सकें। सौभाग्य से जामा मस्जिद बच गई लेकिन हुसैनाबाद की कुछ इमारतों सहित मस्जिद के ऊंचे बुलंद प्रवेश-द्वार वाले परिसर को अंग्रेज़ों ने ध्वस्त कर दिया।
सन 1902 में आगरा और अवध के संयुक्त प्रांत के लेफ़्टिनेंट गवर्नर एंथनी पैट्रिक मैक्डोनैल ने मस्जिद की मरम्मत के लिए 12 हज़ार रुपये मंज़ूर किए । तब से लेकर अब तक लखनऊ की जामा मस्जिद में शहर के हज़ारों मुसलमान हर जुमे (शुक्रवार) को नमाज़ अदा करते हैं।
तो क्या इस जामा मस्जिद की वजह से नवाब मोहम्मद अली शाह का नाम इतिहास में दर्ज हो गया? आकार के मामले में ये मस्जिद भले ही दिल्ली की जामा मस्जिद का मुक़बला न करती हो लेकिन इसकी ख़ूबसूरती उससे कमतर नहीं है।
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