“महात्मा गांधी ने 30 मार्च के बाद, 6 अप्रैल,सन 1919 को अमृतसर और लाहौर में हड़ताल का ऐलान किया था। इसके बाद गिरफ़्तारियों का तांता लग गया था, जिसके कारण पूरे पंजाब में आतंक फैल चुका था। कुछ व्यक्तियों और दलों पर मार्शल-लॉ का उल्लंघन करने के लिए जो मुक़दमे चलाए गए थे, वे केवल जनता को आतंकित करने के मात्र बहाने और नाटक थे। इन मुक़दमों में उसी समय सज़ा दे दी जाती थी। मार्शल-लॉ के उल्लंघन के मामले में गिरफ़्तार व्यक्तियों में से केवल कुछ ही लोगों को हवालात में बंद किया गया था। ज्यादातर लोगों को लकड़ी या लोहे के तिकोनों से बांधकर सार्वजनिक स्थानों पर चाबुक से पीटा जाता था। इन लोगों में से कई लोगों को पीटने का कोई औचित्य भी नहीं होता था । इसीलिए ऐसे लोगों को बहुत ज़्यादा तकलीफ़ें झेलनी पड़ीं।”
ये शब्द वकील निरंजन प्रसाद की डायरी में दर्ज हैं। निरंजन प्रसाद ने ही जलियांवाला बाग़ क़त्ल-ए-आम के बाद ज़्ययादातर मुक़दमों की पैरवी की थी।
निरंजन प्रसाद ने अपनी डायरी में उन दिनों को याद करते हुए लिखा है,
“लाहौर में एक दूल्हा-दुल्हन, उन के माता-पिता, दो गवाहों और क़ाज़ी साहिब को मार्शल-लॉ का उल्लंघन करने के अपराध में पकड़ लिया गया और कोड़े लगाए गए। उन लोगों का यही अपराध था, कि उनकी संख्या पांच से अधिक थी। एक दूसरा मामला इस से भी विचित्र था। चार व्यक्तियों ने, जिनमें एक नर्तकी भी थी, कुछ पैसा इकट्ठा किया, शराब की बोतलें ख़रीदीं और मन बहलाव के लिए वे लोग लाहौर मियां मीर नहर की ओर चल दिए। उन्होंने घोड़ा गाड़ी के चालक को नहीं गिना था, उसे मिलाकर वे कुल पाँच लोग हो गए थे। मियां मीर नहर पहुँचने पर उन लोगों को मार्शल-लॉ नियम का उल्लंघन करने के इल्ज़ाम में गिरफ़्तार कर लिया गया । उन पर कोड़े बरसाये गए। उन की शराब की बोतलें गोरे सैनिकों ने अपने क़ब्ज़े में कर लीं और बाद में ख़ुद जश्न मनाया।”
विभिन्न व्यक्तियों के विरूद्ध कई मुक़दमे चलाए गए थे। उनमें अमृतसर, लाहौर और गुजरांवाला में षड्यंत्र के तीन महत्वपूर्ण मुक़दमे भी थे। मार्शल-लॉ के कारण कई वरिष्ठ वकील इतने डरे हुए थे, कि वे अभियुक्तों से मिलने या मुक़दमा स्वीकार करने को भी तैयार नहीं होते थे। कुछ वरिष्ठ वकीलों ने अवश्य निडरता के साथ मुक़दमों की पैरवी की और कुछ मामलों में फ़ीस तक नहीं ली।
वकील निरंजन प्रसाद आगे लिखते हैं, “उन सब में सबसे ज़्यादा आतंक पैदा करने वाला मामला अमृतसर षड्यंत्र- केस था। इस मुक़दमे के जज उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बाडवे थे। मैं उन्हें तब से जानता था ,जब वे ज़िला और सैशन जज थे। वे पंजाबी भाषा और छावनी की पिछड़ी बस्तियों की बोली अच्छे से बोल लेते थे। जलियांवाला बाग़-कांड और अमृतसर केस के कारण काफ़ी उत्तेजना थी। इस्तग़ासा को गवाह मिलने में काफ़ी कठिनाई हो रही थी । लेकिन सी.आई.डी. पुरस्कार और माफ़ी देने का लालच देकर लोगों को गवाही देने के लिए राज़ी कर लीती थी। इन गवाहों में ज़्यादातर सी.आई.डी. के मुख़बिर हुआ करते थे। मुझे एक गवाही खास तौर पर याद है। उस गवाह ने कहा था, ”एक अभियुक्त ने उर्दू में भाषण देते हुए यह शेर पढ़ा था:
इस मियां से कह दो अपने गधों को थामे,
खेती तमाम हज़रत-ए-आदम की चर गए
इसे सुनकर ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष जस्टिस बाडवे अपनी कुर्सी से उछल पड़े और कहने लगे, कि इस का अर्थ यह है कि यूरोपीय लोग भारतीयों को आतंकित कर रहे हैं।”
निरंजन प्रसाद आगे लिखते हैं, “इन ट्रिब्यूनलों के जज पूरी गवाही दर्ज करने के लिए बाध्य नहीं थे। वे अपनी मर्ज़ी और याद रखने के लिए कुछ लिख लेते थे। वकीलों को गवाहों के साथ जिरह का पूरा मौक़ा भी नहीं दिया जाता था। अध्यक्ष “अप्रासंगिक” और “अनावश्यक” कहकर बहुत से सवालों को पूछने की अनुमति नहीं देते थे। बहुत से सवालों को बेहूदा कहकर रोक दिया जाता था। एक दिन हम सभी लोगों ने इसका विरोध करने का निश्चय किया। जैसे ही जस्टिस लेसली जोस ने ‘बेहूदा’ … ‘अगला प्रश्न’ कहा। लाला बेनी प्रसाद ने अपने कागज़-पत्र संभाले और सभी वकीलों से ट्रिब्यूनल की कार्रवाई का बहिष्कार करने को कहा । इसका प्रभाव बहुत अच्छा पड़ा और इस केस के बाद ट्रिब्यूनल का वातावरण बिल्कुल बदल गया।”
निरंजन प्रसाद बताते हैं, “मुझे एक और घटना याद है, जिससे इस बात पर प्रकाश पड़ता है कि किस तरह धीरे-धीरे वकीलों और गवाहों ने आतंक के वातावरण पर विजय पाई। संभवतः न्यायाधीश को हिन्दू-मुस्लिम एकता पर अपने विचार प्रकट करने के लिए कोई उचित हिन्दी शब्द नहीं मिल रहा था। इस पर गवाह ने ज़ोर से पूछा, ”हुज़ूर क्या?”
”हिन्दू-मुसलमान भाई-भाई होता था। एक बर्तन से पानी पीता था।” जस्टिस लेसली जोस ने पूछा।
गवाह मुस्कराया, ”हुज़ूर मैं अब समझा। हुज़ूर, आप जाएं और बरामदे में देखें, हिन्दू-मुसलमान और सिख एक ही बाल्टी, लोटे और गिलास से पानी पी रहे हैं।”
निरंजन प्रसाद कहते हैं, “जब इन मुक़दमों की ख़बर चारों ओर फैली तो स्वतंत्रता की भावना मज़बूत हुई। हिन्दूओं, सिखों और मुसलमानों ने उस संघर्ष में साथ-साथ भाग लिया, जिससे स्वतंत्रता का मार्ग साफ़ होता गया।“
जब घोड़ा जनरल डायर की पत्नी को ले भागा!
13 अप्रैल,सन 1919 के जलियांवाला बाग़ क़त्ल-ए-आम के बाद अमृतसर में चारों ओर आतंक फैल चुका था। शहर के सभी व्यापारियों को शहर कोतवाली में अपनी-अपनी दुकान और दफ़्तर की चाबी जमा कराने का आदेश दिया गया था। व्यापारी हर रोज़ सुबह कोतवाली में दुकान की चाबी जमा करवाते और सूरज डूबने तक वहीं रूककर शाम होने पर चाबी ले आते। अमृतसर में जिनके पास भी कार, तांगा या निजी सवारी थी, उन सबको मार्शल लॉ प्रशासक ने अपने अधिकार में ले लिया था।
अमृतसर के कटड़ा आहलूवालिया में रहने वाले सेठ पहाङू मल गोयंका की बग्गी ब्रिगेडियर जनरल आर.ई.एच. डायर की पत्नी ऐनी डायर को दे दी गई। लेकिन उसे पहाङू मल का घोड़ा पसन्द नहीं आया। लेडी डायर ने बग्गी चलाने वाले से कहा कि वह घोड़े को गोली मारना चाहती है, “जाओ इसके मालिक को बुलाकर लाओ।“ तबग्गी चलाने वाला घोड़े से बहुत प्यार करता था, इसलिए उसे लेडी डायर की बात पसन्द नहीं आई। उसने लेडी डायर से कहा, “एक बार घोड़े की चाल दिखाने का मौक़ा दीजिए।” लेडी डायर सहमत हो गई।
बग्गी चालक ने शहर की बटाला रोड पर इतनी तेज़ी से घोड़े को दौड़ाया, कि लेडी डायर ने उसे धीरे चलाने के लिए शोर मचाया। चालक की बहुत कोशिश करने पर भी घोड़ा आधे रास्ते तक पहुंच कर ही रूका। तब जाकर लेडी डायर ने राहत की सांस ली। इसके बाद वह बग्गी चालक को देख कर मुस्कुराईं, घोड़े को थपथपाया और अपने हाथ का रूमाल घोड़े की गर्दन में बांध दिया। लौटते समय वह खुश थीं और पुरस्कार देने के लिए बग्गी के मालिक से मिलना चाहती थीं। यह समाचार ‘वेस्ट बंगाल पत्रिका’ के 23 अप्रैल, सन 1919 के अंक में प्रकाशित किया गया था।
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