जयपुर के खगोल-विज्ञान प्रेमी राजा और उनकी वेधशालाएं

राजस्थान की राजधानी जयपुर के महलों, स्मारकों और वास्तुकला को देखकर कोई भी चकित हो सकता है। लेकिन इनमें सबसे ख़ास है जंतर मंतर जो सन 1724 और सन 1727 के बीच कभी बनया गया था। पत्थर से बनाया गया ये जंतर मंतर एक विश्व धरोहरहै जो भारत के वैज्ञानिक- इतिहास एवं कौशल का जीवंत उदहारण है। यहाँ के जयमितीय यन्त्र आपको आकाश को नापना सिखा सकते हैं। भारत इस मामले में बहुत भाग्यशाली रहा है कि यहां ऐसे अक़्लमंद राजा हुए जिन्होंने खगोल विज्ञान के लिये इस तरह के यंत्रों पर पैसा ख़र्च किया अन्यथा तो पश्चिम, मध्य- पूर्व या और जगहों के राजा तो बस युद्ध और अपना साम्राज्य फ़ैलाने पर शाही ख़ज़ाना लुटा दिया करते थे।

कौन था खगोल विज्ञान प्रेमी राजा?

ये भारतीय राजा कौन था जिसने युद्ध की बजाय अपने लोगों को खगोल विद्धा में वर्तमान सीमाओं के बारे में जानकारी हासिल करने के लिये चारों तरफ़ भेजा और फिर आधुनिक वेधशालाएं के निर्माण में पत्थरों का इस्तिमाल करने के निर्देश दिये? इस राजा ने न सिर्फ़ जयपुर बल्कि अन्य शहरों में भी वेधशालाएं बनवाई थीं। आज हमारे देश और विश्व में कई वेधशालाएं और टेलिस्कोप हैं जिससे हम खगोल के बारे में जानकारी हासिल कर सकते हैं। हमें ये नहीं भूलना चाहिये कि ये 18वीं शताब्दी में जब यह वेधशालाएं बन वाई गई थीं तब हवाई जहाज़, टेलीग्राम और टेलिस्कोप ईजाद नहीं हुये थे।

सवाई जय सिंह द्वतीय का जन्म राज्सथान के शहर आम्बेर में, तीन नवंबर सन 1688 को एक शाही राजपूत परिवार में हुआ था जिसका मुग़ल काल में क्षेत्रीय साम्राज्य में शासन हुआ करता था हालंकि उसके पास बहुत ज़्यादा शक्ति नहीं थी। जिस युग में सवाई जय सिंह का जन्म हुआ और जिस तरह की उन्हें शिक्षा मिली उसका खगोल विज्ञान में उनकी गहरी दिलचस्पी से गहरा नाता था। उनके पिता विष्णु सिंह, जिनका शासन सन 1689 से लेकर सन 1700 तक रहा था । वह शिक्षा के महत्व को समझते थे जो उन्हें विरासत में मिली थी। उन्होंने अपने दोनों बेटों को उच्च शिक्षा दिलवाई। मुग़लों के काम की वजह से वजह से अक़्सर उन्हें बाहर रहना पड़ता था इसलिये उन्होंने अपने बेटों को वाराणसी के एक संस्कृत कॉलेज में दाख़िल करवा दिया था। इसी कॉलेज में जय सिंह ने हिंदी, संस्कृत, फ़ारसी, गणित और मार्शल आर्ट में पारंगत हासिल की। बचपन से ही उनकी दिलचस्पी गणित और खगोलशास्त्र में थी। कहा जाता है कि 13 साल की उम्र में ही उन्होंने खगोल विज्ञान की पाण्डुलीपियों की कॉपियां तैयार कर ली थीं जो आज भी जयपुर के संग्रहालय में मौजूद हैं। पिता की मृत्यु के बाद 12 साल की उम्र में ही वह राजा बन गए थे लेकिन उन्होंने गणित और खगोलशास्त्र की पढ़ाई जारी रखी।

सवाई जयसिंह द्वतीय ऐसे समय में शासन कर रहे थे जब औरंगज़ेब की मौत के बाद शाही परिवार में झगड़ों की वजह से मुग़ल साम्राज्य पतन की ओर जा रहा था। उठापटक औऱ विवादों के बीच सवाई जयसिंह ने अपने साम्राज्य को मज़बूत किया और अपने क्षेत्र में सम्मान हासिल किया। फ़्रांस के समकालीन यात्री क्लॉड बौडियर ने लिखा है कि सवाई जयसिमह के नाम पर जारी पासपोर्ट की मुग़लों द्वारा जारी पासपोर्ट से कहीं ज़्यादा एहमियत होती थी।

सवाई जयसिंह एक बार औरंगज़ेब से मिलने दक्षिण की तरफ़ गए थे जहां उनकी दोस्ती पंडित जगन्नाथ नाम के विद्वान से हो गई जिनकी खगोलशास्त्र औऱ गणित में महारत थी। दोनों अक्सर पारंपरिक भारतीय और इस्लामिक खगोल ग्रंथों के आधार पर चर्चा किया करते थे। इन्हीं ग्रंथों के सिद्धांतों पर कैलंडर बनाये जाते थे जिनसे पवित्र रीति-रिवाजों और महत्वपूर्ण यात्राओं की तारीख़ें तय की जाती थीं।

तब समय और नक्षत्रों की स्थिति की पैमाइश और सारिणी में बहुत असमानताएं होती थीं। ऐसे में सटीक पैमाइश और नक्षत्रों की सही स्थित जानने के लिये एक उपकरण की सख़्त ज़रुरत थी। वेदिक युग से ही खगोलशास्त्र पर लिखे गए भारतीय लेखों या अवलोकन-उपकरणों का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। आर्यभट्ट और ब्रह्मागुप्त के सिद्धांतो में अवलोकन-उपकरणों का ज़िक्र था लेकिन उनमें इनकी डिज़ाइन के बारे में कुछ नहीं बताया गया था हालंकि इस्लामिक खगोलशास्त्र में वेद्ययंत्रों का उल्लेख था। हिंदू खगोलशास्त्रियों ने सिर्फ़ उन उपकरणों का उल्लेख किया था जिनसे समय पता लगाया जा सकता था लेकिन इनसे तारों और नक्षत्रों की स्थिति के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती थी। लेकिन इस्लामिक खगोलशास्त्रियों ने संख्यात्मक खगोलीय सारणी ज़िजेस (किताब) लिखी थी जिसमें अक्षांश, देशांतर, त्रिकोणमितीय फलन और गोलाकार खगोल विज्ञान शामिल था। ये सब सौर मंडल के टालमीय मॉडल से लिये गये थे।

इस्लामिक खगोलशास्त्रियों ने 8वीं और 15वीं शताब्दी के दौरान अलग अलग तरह की दो सौ से ज़्यादा ज़िजेस (किताबें) लिखी थीं। इनमें सबसे प्रसिद्ध पुस्तक ज़िज-ए-मोहम्मद शाही भारत में ही लिखी गई थी। ये जंतर मंतर वेधशाला के अवलोकनों पर आधारित है। इस कड़ी में अंतिम ज़िज ज़िज-ए-बहादुरख़ानी भारतीय खगोल वैज्ञानिक ग़ुलाम हुसैन जौनपुरी ने लिखी थीसूर्य केंद्रित प्रणाली को शामिल किया गया था। लगातार सुधार से पता चलता है किगणितीय तालिकाओं और अवलोकनों में बहुत असमानताएं होती थी। इसीलिये विश्व में खगोल के लगातार अध्ययन में खगोलीय उपकरणों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। उस युग में जंतर मंतर वेधशालाएं इस बात का प्रमाण हैं।

नयी खोज

जंतर मंतर वेधशालों के उपकरणों की ख़ास बात ये है कि उनसे बहु समन्वय प्रणाली के लिये व्यास नापने में मदद मिली। जय प्रकाश जिसे स्वर्ग का दर्पण कहा जाता है, से आप खगोलीय पिंड की स्थिति का पता लगा सकते हैं। इस यंत्र में संगमरमर के गोलार्धों की एक जोड़ी धंसी हुई है। सफ़ेद संगमरमरमें बने ये गोलार्ध एक दूसरे के पूरक हैं। यदि इन्हें जोड़ दिया जाय तो ये सम्पूर्ण अर्धगोला बना लेंगे। संगमरमर में कटी प्रत्येक पट्टी एक घंटे को दर्शाती है यानी हर घंटे के बाद आप बारी बारी से अर्धगोला बदलकर खड़े हो जाते हैं और माप लेते हैं।

जयपुर के जंतर मंतर की वेधशालाएं आज भी स्थिति खगोल विज्ञान के बुनियादी सिद्धांतो को समझने में मददगार हैं। नेहरु प्लेनेटोरियम की डायरेक्टर डॉ. नंदीवदा रत्नाश्री खगोल विज्ञान को पढ़ाने में इन वेधशालाओं का इस्तेमाल करती हैं। छात्रों को यहां आने के लिये प्रेरित किया जाता है ताकि उन्हें सूर्य और नक्षत्रों के मार्ग के बारे में जानकारी मिल सके।

एक सवाल पैदा हो सकता है कि क्या सवाई जय सिंह ने अपनी शक्ति और दौलत का दिखावा करने के लिये ये उपकरण बनवाये थे ? लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने खगोल विज्ञान को समझने और उसके अध्ययन के लिये इतना पैसा ख़र्चकर इतने सारे उपकरण बनवाए थे। भारतीय इतिहास में किसी भी राजा ने ऐसा काम नहीं किया है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह सभी उपकरणों के निमार्ण में तांबे के बजाये पत्थर का उपयोग किया गया है ताकि यह हिल न पायें और पश्चिमी तथा इस्लामी खगोल विग्यान की तरह एक दम सही नतीजे निकल पायें ।

बुनियादी यंत्र –

सम्राट यंत्र : जंतर मंतर में दो सम्राट यंत्र या धूप-घड़ियाँ हैं, एक छोटी और एक विशाल। ये ज्यामितीय आकृति जिसे शंकु भी कहा जाता है, ज़मीन से 73 फुट ऊंची है। इसका मुख्य उद्देश्य सौर समय दिखाना है। शंकु की दिशा ध्रुव की तरफ है और ये वृत्तखंड के सहारे खड़ा है जो 45 फुट ऊंचा है।इन यंत्रों में एक त्रिकोणीय भित्त की परछाई इसके पूर्वी तथा पश्चिमी दिशाओं में स्थित चतुर्थांश चापों पर पड़ती है जिससे जयपुर के स्थानीय समय की जानकारी मिल सकती है।। इस यंत्र में देखने का उपकरण भी है जिससे रात को भी तारों को निहारा जा सकता है। इससे सूर्य के झुकाव और चढ़ाव का भी अध्ययन किया जा सकता है। एक अन्य उपकरण है जिसे षष्ठांश यंत्र कहते हैं जो सम्राट यंत्र के पास एक 60 अंश का वृत्तखंड है। सूर्य प्रकाश इस अन्धकोष्ठ के भीतर एकछिद्र से प्रवेश करता है। इससे सूर्य से दूरी नापी जाती है।

जयप्रकाश यंत्र : ये यंत्र जंतर मंतर का सबसे आश्चर्यजनक उपकरण है जिसकी उवधारणा ग्रीको-बेबीलोन युग (क़रीब 300 ई.पू.) की है। 300 ई.पू. खगोल वैज्ञानिक बेरोसस ने पहली बार धूप-घड़ी बनाई थी। इस यंत्र में संगमरमर के गोलार्धों की एक जोड़ी धंसी हुई है। सफ़ेद संगमरमरमें बने ये गोलार्ध एक दूसरे के पूरक हैं। यदि इन्हें जोड़ दिया जाय तो येसम्पूर्ण अर्धगोला बना लेंगे। संगमरमर में कटी प्रत्येक पट्टी एक घंटे को दर्शाती है। जयपुर जयप्रकाश यंत्र का व्यास 17.5 फुट है जबकि दिल्ली का यंत्र 27 फुट है। इस विलक्षण यंत्र का केंद्र एक लघु धातुका टुकड़ा है जिसके मध्य एक छिद्र है। इस छिद्र के द्वारा इसे अर्धगोले के मध्य में लटकाया हुआ है। इस टुकड़े के द्वारा अर्धगोले पर बनायी गयी परछाई ही इसके सर्व मापों का आधार है। किनारे को क्षितिज मानकर यह अर्धखगोल कापरिदर्शन कराता है।

राम यंत्र : ये यंत्र बेलनाकार का है जिससे खगोलीय पिंडों की ऊंचाई और दिगंश मापा जाता है। भारतीय और इस्लामिक खगोल विज्ञान के इतिहास में ये अपनी तरह का पहला उपकरण था।

कपाल यंत्र : यह जय प्रकाश यंत्र के ही समान यंत्र है। इसमें किनारे को क्षितिज मानकर प्रकाश गोले को देखा जा सकता है। इसे जय प्रकाश यंत्र के पहले बनाया गया था।

राशि वलय यंत्र : राशिवलय यंत्र से खगोलीय अक्षांश व देशांतर रेखाओं को मापा जाता है।इसमें 12 यंत्र हैं जो 12 राशियों को दर्शाते हैं। प्रत्येक यंत्र का उपयोग उस समय किया जाता है जब उससे सम्बंधित राशि मध्यान्ह रेखा से पार होती है। हालंकि हर यंत्र की रचना सम्राट यंत्र के सामान है लेकिन फिर भी ये यंत्र शंकु के आकार एवं कोण के आधार पर भिन्न हैं।

विरासत और अवसर

सवाई जयसिंह ने ये वेधशालाएं शोहरत कमाने के उद्देश्य से नही बनई थीं। वह खगोलीय अवलोकन तालिका में असंगतियों को दूर करने को लेकंर बहुत गंभीर थे और इसीलिये उन्होंने ये वेधशालाएं बनवाई थीं। इन वेद्यशआलाओं से मिली खगोलीय तालिका से ही आज भी राजस्थान में पंचांग बनाया जाता है। खगोलीय चार्ट के अलावा सवाई जय सिंह ने भौतिक विज्ञान, खगोल विज्ञान औऱ गणित विषय की शिक्षा के लिये खुली कक्षाएं भी बनवाई थीं।

जैसा कि पहले भी उल्लेख किया जा चुका है, नेहरु प्लेनेटोरियम की डायरेक्टर डॉ. एन. रत्नाश्री दिल्ली की वैधशाला में खगोल विज्ञान से संबंधित विषयों को पढ़ाती हैं। इसका मक़सद न सिर्फ़ खगोलशास्त्र में रुचि रखने वाले लोगों को इसकी जानकारी देना है बल्कि इस तरह इन उपकरणों की देखरेख भी होती रहती है। सवाई जयसिंह ने पांच वेधशालाएं बनवाई थीं जिनमें से अब दिल्ली, जयपुर, मथुरा औऱ वाराणसी में चार वेधशालाएं रह गई हैं। इनमें से जयपुर और उज्जैन की वेधशालाएं तो पुन:स्थापित हो चुकी हैं लेकिन मथुरा की वेधशाला अब नहीं है।

भारत को अपनी इस धरोहर पर गर्व होना चाहिये जो सवाई जयसिंह ने पत्थरों और गारे से बनवाई थी। ये वेधशालाएं विशुद्ध रुप से विज्ञान पर आधारित हैं मगर दुर्भाग्य से इस धरोहर के रखरखाव पर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया जाता। हालंकि ये भारतीय पुरातत्व विभाग के अंतर्गत हैं लेकिन यहां कोई ऐसे प्रशिक्षित गाइड नहीं हैं जो इनके बारे में लोगों को ठीक से समझा सकें।

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