अरुणाचल प्रदेश का ईटा क़िला

सूर्योदय की धरती अरुणाचल प्रदेश अपनी प्राकृतिक छटा के लिए जाना जाता है लेकिन यहां पुरातात्विक और ऐतिहासिक अवशेष भी हैं जो बहुत दिलचस्प हैं। इन्हीं में से एक है ईटा क़िला। क्या आपको पता है कि इस क़िले के नाम पर ही अरुणाचल प्रदेश की राजधानी ईटानगर का नाम पड़ा है? जैसा कि नाम से ज़ाहिर है क़िले के निर्माण में ईंटों का इस्तेमाल ध्यान देने योग्य है। हालंकि ये क़िला आज जर्जर हालत में है लेकिन फिर भी इसके साथ इस क्षेत्र की ऐतिहासिक कहानियां जुड़ी हुई हैं। जिसे आज हम अरुणाचल प्रदेश के नाम से जानते हैं, उसके साथ कई मिथक और कथाएं जुड़ी हुई हैं। कहा जाता है कि इस क्षेत्र का उल्लेख कालिकी पुराण, महाभारत और रामायण जैसे प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। कुछ सूत्रों के अनुसार मध्यकाल में इस क्षेत्र पर अहोम और चुटिया राजवंश का शासन हुआ करता था। अरुणाचल प्रदेश का आधुनिक इतिहास सन 1826 में यान्डाबू संधि के बाद अंग्रेज़ों के शासन के साथ शुरु होता है। इस संधि के तहत असम और पड़ौसी क्षेत्रों में अंग्रेज़ों का शासन हो गया था। अंग्रेज़ सरकार ने अरुणाचल प्रदेश को अपने प्रशासनिक अधिकार क्षेत्र में ले लिया था। अरुणाचल प्रदेश को 20 फ़रवरी 1987 को ही पूर्ण राज्य का दर्जा मिला था। सन 1972 तक इसे नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी ( एनईएफ़ए) या उत्तर-पूर्व सीमांत एजेंसी के रुप में जाना जाता था। 20 जनवरी 1972 को इसे केंद्र शासित क्षेत्र धोषित किया गया और इसका नाम अरुणाचल प्रदेश रखा गया।

सन 1974 में ईटानगर को अरुणाचल प्रदेश की राजधानी बनाया गया। इसके पहले शिलॉग प्रशासनिक केंद्र हुआ करता था। ईटानगर को अरुणाचल प्रदेश की राजधानी बनवाने का श्रेय उत्तर-पूर्व सीमांत एजेंसी (NEFA) की प्रथम परिषद के सदस्य नबाम रनगी को जाता है। ऐसा नहीं है कि प्रदेश की राजधानी के साथ ईटा क़िले का सिर्फ़ नाम ही जुड़ा हुआ है। इस शहर को राज्य की राजधानी बनाने में किले की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। कहा जाता है कि नबाम रनगी, ईटा क़िले से कुछ ईंटें, शिलॉग लेकर आए थे। तब शिलॉग असम की राजधानी हुआ करता था। और इस तरह, नबाम रुंधि , असम के तत्कालीन राज्यपाल बी.के. नेहरु को ये समझाने में सफलता हासिल की थी कि ईटानगर ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत समृद्ध है और राजधानी बनाने लायक़ है। लेकिन सवाल ये है कि ईंटों के इस क़िले का महत्व क्या है?

ईटा क़िले के अवशेष ईटानगर में ही हैं। दुर्भाग्य से लिखित दस्तावेज़ और सबूतों के अभाव में इस बात को लेकर अनिश्चितता है कि क़िला कब बनावाया था। इसे किसने बनाया, इसके बारे में भी विद्वानों की अलग अलग राय है। लेकिन अवशेषों के अध्ययन के आधार पर कहा जाता है कि इसका निर्माण 14वीं या 15वीं सदी में हुआ होगा। कई सूत्रों का मानना है कि क़िला स्थानीय राजा रामचंद्र उर्फ़ मयमत्ता ने बनवाया था जिसका सम्बंध, 11वीं सदी में स्थापित जितारी राजवंश से था। क़िला बनवाने का श्रेय रामचंद्र के पुत्र अरिमत्ता को भी दिया जाता है। असम के इतिहास पर विस्तार से लिखने वाले एडवर्ड एल्बर्ट गैट के अनुसार पश्चिम से क्षत्रिय राजा धर्मपाल यहां आया था और उसने यहां साम्राज्य स्थापित कर पश्चिम गुवाहाटी में अपनी राजधानी बनाई थी। उसके बाद कई राजा हुए जिनमें से रामचंद्र अंतिम राजा था जिसने बाद में माजुली में रतनपुर को अपनी राजधानी बनाया। कहा जाता है कि वह अपनी राजधानी से भागकर यहां आया था जिसका नाम मायापुरा हुआ करता था। कुछ विद्वान मायापुरा को ईटा क़िले का स्थान बताते हैं। उसकी रानी हरामती ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम अरिमत्ता था। बाद में अरिमत्ता का उसके पिता से विवाद हो गया और उसने ना चाहते हुए भी पिता की हत्या कर दी। स्थानीय कथाओं के अनुसार असम से एक शरणार्थी राजा अपनी रानी के साथ “हिटा” आया था और यहां उसने एक क़िला बनवाया जहां उसके पुत्र का जन्म हुआ।

लेकिन कुछ सूत्रों का कहना है कि क़िले का निर्माण असम के चुटिया राजाओं ने करवाया था जो उस समय इस क्षेत्र पर शासन करते थे। एक अन्य मत के अनुसार 13वीं सदी में जब बख़्तियार खिलजी जैसे शासक अहोम साम्राज्य पर हमले कर रहे थे तब छुपने के लिए ये क़िला बनवाया गया था। लेकिन क़िला किसने बनवाया इस बारे में आज भी कोई एकमत नहीं है।

आज यहां भव्य पहाडी क़िला-परिसर के अवशेष ही रह गए हैं। बेतरतीब ढंग से बने क़िले के चारों तरफ़ प्राकृतिक टीले और ईंटों की प्राचीर थीं। आज जो बचा रह गया है वो है ईंटों से बनी, दो दीवारें और तीन दरवाज़े। ये दीवारे उबड़-खाबड़ मैदान और गहरे नालों में बनी हुई हैं जहां पुलिया और सीढ़ियों आदि के अवशेष हैं। ये तीनों दरवाजे अलग अलग आकार के हैं जिससे लगता है क़िला बनाने वाले ने प्राचीरों की नींव को मज़बूत बनाने पर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया होगा। राज्य के शोध निदेशालय के अनुसार ये प्राचीरें भू-स्तर के कुछ ही सेंटीमीटर नीचे बनाईं गईं थीं और क़िले कते क्षतिग्रस्त होने की शायद यही एक वजह हो सकती है। क़िले के ध्वस्त होने की वजह भूकंप, भारी वर्षा और बड़ी संख्या में मौजूद पेड़-पौधे भी हो सकते हैं।

ईंट को स्थानीय भाषा में ईटा या हिटा कहा जाता है। क़िले के निर्माण में ईंटों का बहुत महत्व है। क़िला बनाने में कई तरह की ईंटों का इस्तेमाल किया गया था। यहां बीस विभिन्न आकारों की ईंटों का उपयोग किया गया था। यहां अलंकृत ईंटें भी हैं। माना जाता है कि ईंटें भी वहीं बनाईं जाती थी जहां क़िले का निर्माण हो रहा था। क़िले के निर्माण में बालू-पत्थर का भी प्रयोग किया गया था।

सन 1901 और सन 1905 के गज़ैटियर और दस्तावेज़ में भी क़िले का उल्लेख मिलता है। सन 1975 में, अरुणाचल प्रदेश के शोध विभाग ने यहां खुदाई करवाई थी। उस खुदाई में ईंटों के टुकड़े, बर्तन और पत्थर जोड़ने के लोहे के क्लैंप मिले हैं। वो बर्तन मध्याकालीन युग के हैं। सन 2016-17 में क़िले की मरम्मत साथ यहां, जांच पड़ताल का काम भी किया गया था।

हालंकि ईटा क़िले के अवशेषों से इस क्षेत्र के अतीत के बारे में कुछ जानकारियां मिलती हैं लेकिन अरुणाचल प्रदेश के इतिहास के अनसुलझे पक्षों को जानने के लिए और शोध तथा अध्ययन की जरुरत है।

मुख्य चित्र: https://papumpare.nic.in

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