धार का लोह स्तंभ  

विश्व में भारतीय कलाकृतियों में दिल्ली का लोह-स्तंभ काफ़ी प्रसिद्ध है लेकिन ज़्यातर लोगों को ये नहीं मालूम कि मध्य प्रदेश के धार शहर में भी एक लोह-स्तंभ है जो हालंकि दिल्ली के लोह स्तंभ की तरह चकाचौंद करने वाला तो नहीं है लेकिन फिर भी है उतना ही महत्वपूर्ण । मामूली सा दिखने वाला ये स्तंभ धार में लाट मस्जिद के सामने है। धार का ये लोह-स्तंभ तीन खंडों में है-एक खंड 24, दूसरा 11 और तीसरा खंड 7 फुट लंबा है। सरसरी तौर पर देखने पर ये मामूली सा स्तंभ लग सकता है लेकिन इसके साथ बेहद दिलचस्प कहानी जुड़ी हुई है। आपको आश्चर्य होगा कि इसकी मूल लंबाई दिल्ली के स्तंभ से भी दोगुना रही होगी।

धार मध्य प्रदेश में इंदौर के पास एक छोटा सा शहर है। किसी समय ये मालवा की राजधानी हुआ करता था। बाद में मांडु को मालवा की राजधानी बनाया गया। माना जाता है कि मालवा के राजा भोज ने 11वीं शताब्दी के आरंभ में धार शहर बसाया था। बाद में 1300 ई.के क़रीब धार पर पहले अलाउद्दीन ख़िलजी और फिर बाद में दिल्ली के सुल्तानों का कब्ज़ा हो गया। सन 1390 में दिलावर ख़ान धार का सूबेदार बन गया और धार आज़ाद भी हो गया।

दिलावर ख़ान का पुत्र होशंग शाह (1405-1435) मालवा का पहला मुसलमान शासक बना था। उसने धार की जगह मांडू को अपनी राजधानी बनाया लेकिन धार का कितना सामरिक महत्व था इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि मुग़ल बादशाह अकबर अपनी मुहिम के दौरान ख़ुद धार आया था।

धार लोह-स्तंभ की वास्तिक्ता को लेकर रहस्य बना रहा है। इस पर कोई शिला-लेख या चिन्ह नहीं है जिससे इसे बनाने वाले या इसके मक़सद का पता चल सके। स्थानीय लोगों का मानना है कि 11वीं शताब्दी में परमार राजा भोज की विजय के उपलक्ष्य में ये स्तंभ बनाया गया था। राजा भोज ने सन 1010 और सन 1053 के दौरान मालवा पर शासन किया था। 19वीं शताब्दी के अंत में और 20वीं शताब्दी के आरंभ में भारतीय इतिहास के विशेषज्ञ और कला इतिहासकार आयरलैंड के विंसेंट स्मिथ का मानना है कि दिल्ली के स्तंभ की तरह धार का स्तंभ भी गुप्तकाल का है। दूसरी तरफ़ 20वीं शताब्दी में भारतीय पुरातत्व विभाग के साथ काम कर चुके पुरातत्वविद और फ़ोटोग्राफ़र हेनरी कैसेंस का मानना है कि ये स्तंभ राजा अरुण वर्मा (1210-1218) ने सन 1210 में बनवाया था। राजा अरुण वर्मा ने गुजरात पर हमला किया था और हमले के बाद दुश्मनों के, छोड़े गए हथियारों को पिघलाकर स्तंभ बनाया था।

ज़्यादातर विद्वानों का मानना है कि उत्तर की इस्लामिक सल्तनत के हमले में स्तंभ के दो टुकड़े हो गए थे। दिल्ली के क़ुतुब मीनार परिसर में जिस तरह से स्तंभ का एक हिस्सा रखा हुआ है, ठीक उसी तरह स्तंभ का बड़ा हिस्सा धार में दिलावर ख़ान द्वारा बनवाई गई मस्जिद के सामने रखा हुआ है। शायद इसीलिये इसे लाट मस्जिद कहा जाता था।

ये स्तंभ दूसरी बार तब टूटा जब 1531 में गुजरात सल्तनत का बहादुर शाह मालवा साम्राज को हराने के बाद स्तंभ को अपने साथ ले जा रहा था। इस दौरान स्तंभ के दो टुकड़े हो गए, एक 22 फ़ुट लंबा और दूसरा 13 फ़ुट लंबा था। इस घटना का वर्णन जहांगीर की आत्मकथा में मिलता है। आत्मकथा में जहांगीर ने लिखा है कि उसने दूसरे स्तंभ को आगरा ले जाने का हुक्म दिया था ताकि उसे अकबर के मक़बरे में रखा जा सके लेकिन ऐसा हो नहीं सका। जहांगीर इसे मक़बरे में लैंपपोस्ट की तरह इस्तेमाल करना चाहता था।

स्तंभ जिस सतह पर खड़ा था वहां वह लोग जो सदियों से इसे देखने आते रहे है वह अपनी छाप छोड़ गए है। इन निशानों से स्तंभ की स्थिति का भी पता चलता है। कौंसेन्स का कहना है कि स्तंभ पर देवनागरी में कई पत्र और नाम लिखे हुए हैं जो शहर में आने वाले लोगों ने लिखे होंगे। स्तंभ पर सोनी और सुनार जैसे नाम लिखे हुए हैं जिससे लगता है कि आने वाले लोगों में ज़्यादातर लोग सुनार होंगे।

कैसेंस का मानना है कि स्तंभ पर जिस ऊंचाई और दिशा में लिखा गया उसे देखकर लगता है कि ये लिखावट स्तंभ गिरने के पहले की है। सन 1598 में शहंशाह अकबर ने खुद भी स्तंभ पर कुछ लिखा था। अकबर ने दक्कन पर हमले की महिम के दौरान धार में डेरा डाल रखा था। अकबर ने स्तंभ पर इसी मुहिम के बारे में लिखा है। जिस तरह से अकबर ने स्तंभ पर लिखा उसे देखकर लगता है कि उस समय तक स्तंभ गिर चुका था।

स्तंभ के बारे में सदियों से अध्ययन किया जाता रहा है लेकिन सबसे गहन अध्ययन हेनरी कैसेंस ने 1902-3 में और मेटलर्जी ( धातु-कर्म) इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ टैक्नोलॉजी, कानपुर के प्रो. बाल सुब्रह्मण्यम ने सन 2002 में किया है। कैसेंस ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि स्तंभ में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर छेद हैं जो 1.75 इंच गहरे और 1.25 इंच चौड़े हैं।

स्तंभ की बनावट का विस्तार से अध्ययन करने वाले प्रो. बाल सुब्रह्मण्यम का मानना है कि स्तंभ को वेल्डिंग तकनीक से बनाया गया था।
इस तकनीक में लोहे के टुकड़ों को एक विशेष तापमान में गर्म करके जोड़ा जाता है और फिर हथोड़े से पीटा जाता है। उनका मानना है कि अगर सभी टुकड़ों को जोड़ दिया जाए तो ये वेल्डिंग तकनीक से बनाया गया विश्व का सबसे लंबा प्राचीन स्तंभ माना जायेगा। उनका ये भी कहना है कि लोहे में जिस तरह के रसायन मिलाए गए हैं उसकी वजह से स्तंभ को मौसम से नुक़सान नहीं पहुंता है।

स्तंभ के टुकड़ों पर पड़े निशानों को देखकर ज़्यादातर विद्वानों का मानना है कि स्तंभ का एक चौथाई हिस्सा भी होना चाहिये जो कहीं खो गया था । कैसेंस का कहना है कि चौथे स्तंभ के ऊपर गरुढ़ या त्रिशूल जैसी कोई ऑकृति होगी जबकि प्रो. सुब्रह्मण्यम का मानना है कि इस पर त्रिशूल ही बना होगा।

एक तरफ़ जहां स्तंभ का सबसे बड़ा हिस्सा लाट मस्जिद के सामने रखा है, वहीं बाक़ी दो छोटे हिस्से बड़े लम्बे समय तक अलग अलग स्थानों पर रखे रहे। कैसेंस जब सन 1902 में घार आए थे तब स्तंभ का दूसरा बड़ा हिस्सा आनंद हाई स्कूल में रखा हुआ था जिसे बाद में, सन 1902 और सन 1940 के दौरान लाट मस्जिद पहुंचा दिया गया। तीसरा हिस्सा मांडू में था जिसे 19वीं शताब्दी के मध्य में वापस घार ले जाया गया। धार में ये धार महाराजा के गेस्ट हाउस से लाल बाग़ और फिर आनंद पब्लिक स्कूल से होते हुए लाट मस्जिद पहुंच गया।

सदियों तक स्तंभ के टुकड़े अलग अलग स्थानों पर थे लेकिन 1980 में भारतीय पुरातत्व विभाग सभी टुकड़ों को लाट मस्जिद ले आया। पुरातत्व विभाग के इस फ़ैसले के पहले, बच्चे लाट मस्जिद के सामने स्तंभ के सबसे बड़े हिस्से को फिसलपट्टी की तरह इस्तेमाल करते थे।
प्रो. सुब्रह्मण्यम का कहना है कि इ स्तंभ का ऊपरी हिस्सा चमकदार लगता है क्योंकि बच्चे इस पर फिसला करते हैं।

धार लोह स्तंभ हालंकि दिल्ली के स्तंभ की तरह विशाल और प्रसिद्ध नहीं है लेकिन इसकी कहानी है बेहद दिलचस्प है जिसे लोगों तक पहुंचाना ज़रुर है। इतिहासकार विसेंट स्मिथ के अनुसार धार लोह-स्तंभ के शिल्पी क़ाबिले तारीफ़ हैं।

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