दिल्ली का लौह स्तम्भ: एक अजूबा  

क़ुतुब मीनार परिसर में स्थित विशाल लौह-स्तंभ भारत की अजूबी धरोहरों में से एक है। यह अपने आप में प्राचीन भारतीय धातुकर्म की पराकाष्ठा है। आपको जानकर हैरानी होगी कि लोहे का स्तंभ 1500 साल पुरना है लेकिन इसमें आज तक ज़ंग नही लगा है।

दिल्ली शहर के बीचों बीच महरौली है जो कभी राजधानी हुआ करती थी। महरौली में ही क़ुतुब मीनार परिसर है जो यूनेस्को की विश्व धरोहरों की सूची में शामिल हैं। इसे देखने हज़ारों लोग आते हैं। क़ुतुब परिसर में बेशुमार स्मारक हैं जो दिल्ली पर शासन करने वाले विभिन्न राजवंशों ने बनवाये थे। स्मारकों के निर्माण का ये सिलसिला 12वीं शताब्दी से लेकर अंगरेज़ों के भारत आने तक चलता रहा।

मध्यकाल और अंग्रेंज़ों की हुक़ूमत के दौरान यहां बनवाए गए स्मारकों के बीच खड़ा है लौह-स्तंभ जो न सिर्फ़ दिल्ली बल्कि पूरे भारत के लिये एक अजूबा है। ये स्तंभ उत्तर भारत की सबसे पुरानी मस्जिद क़ुव्वत-उल-इस्लाम के बीचों बीच खड़ा है। ये मस्जिद सन 1193 में ग़ुलाम वंश के पहले सुल्तान क़ुतुबउद्दीन ऐबक ने बनवाई थी।

सन 1192 में अफ़ग़ानिस्तान के शासक मोहम्मद ग़ौरी के जनरल क़ुतुबउद्दीन ऐबक ने तराइन के युद्ध में दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान को हराकर बहुत जल्द ख़ुद को सुल्तान घोषित कर दिया और इस तरह से उत्तर, पूर्वी, पश्चिमी और मध्य भारत में मुस्लिम शासन की शुरुआत हुई जो 750 वर्षों तक जारी रहा। चौहान या चाहमान राजाओं ने तोमर राजाओं को हराकर दिल्ली पर कब्ज़ा किया था।

कहा जाता है कि तोमर राजवंश के संस्थापक राजा अनंगपाल के नेतृत्व में तोमर राजवंश 1052 में सबसे पहले दिल्ली आकर बसा था। इसका उल्लेख लौह-स्तंभ में अंकित अभिलेख में मिलता है। सन 1152 में विग्रहराजा-चतुर्थ ने तोमरों को हराकर दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया था। विग्रहराजा पृथ्वीराज चौहान के चाचा थे।

महरौली का लौह-स्तंभ क़ुतुब मीनार से भी पहले का है और इसमें आज तक ज़ंग नहीं लगा है। इसका वज़न 6.5 टन है और ये 7.3 मीटर ऊंचा है। माना जाता है कि इसके ऊपर कभी गरुड़ की मूर्ति रही होगी। लगभग 1600 से अधिक वर्षों से यह खुले आसमान के नीचे हर मौसम में अडिग खड़ा है। इतने वर्षों में आज तक उसमें ज़ंग नहीं लगा, यह बात दुनिया के लिए आश्चर्य का विषय है। ये धातु से बनाने वाले प्राचीन भारतीय कलाकारों के हुनर का एक शानदार उदाहरण है।

लौह-स्तंभ की कहानी

ये स्तंभ मस्जिद की मेहराबों के सामने है। स्तंभ के एक तरफ़ शाफ़्ट पर अभिलेख अंकित है जो संस्कृत भाषा और ब्रह्मी लिपि में है। प्राचीन शिला-लेखों के अध्ययन करने के विज्ञान के अनुसार ये अभिलेख चौथी सदी का है जिसे गुप्त ब्रह्मी कहा जाता है। ये नाम गुप्त साम्राज्य के नाम पर रखा गया था। चौथी और 7वीं सदी में उत्तर और मध्य भारत में गुप्त शासकों का साम्राज्य हुआ करता था। इन अभिलेखों से स्तंभ के उद्भव के बारे में पता चलता है।

राजा चंद्रगुप्त ने युद्ध में जीत के बाद ये स्तंभ बनवाया था जो हिंदू भगवान विष्णु को समर्पित था। उस समय दो गुप्त शासक हुआ करते थे जिनका नाम चंद्र था लेकिन अभिलेख में वर्णित नाम निश्चित रुप से चंद्रगुप्त-द्वतीय है जिसने सन 375 से लेकर सन 415 तक शासन किया था। उसके शासनकाल में गुप्त साम्राज्य पश्चिम में सिंधु घाटी और पूर्व में बंगाल, उत्तर में हिमालय और दक्षिण में नर्मदा नदी तक फैल गया था। ये गुप्त साम्राज्य का स्वर्णिम काल था। चीनी भिक्षुक फ़ा हियान चंद्रगुप्त द्वतीय के समय भारत आया था और उसने गुप्त साम्राज्य का बहुत महिमा मंडन किया था।

कहा जाता है कि स्तंभ पहले विदिशा में उदयगिरी शहर में बनवाया गया था और लोकप्रिय किवदंति के अनुसार विदिशा पर जीत हासिल करने के बाद ग़ुलाम राजवंश के सुल्तान इल्तुतमिश इसे ट्रॉफ़ी के रुप में दिल्ली लाये थे, ठीक उसी तरह जिस तरह तुग़लक सुल्तान अशोक स्तंभों को लेकर आए थे।

लेकिन इसे लेकर एक और कथा है और वो ये कि इसे दरअसल तोमर राजपूत राजा अनंगपाल लेकर आये थे। कहा जाता है कि महरौली राजधानी के संस्थापक अनंगपाल इस स्तंभ से लालकोट और उनके, यहां बनवाए गए विष्णु मंदिर को सजाना चाहते थे। जैन ग्रंथ पसनहाचार्यु (सन 1132) के अनुसार ये स्तंभ इतना विशाल और भारी था कि नाग देवता भी हिल गए थे।

आज जो स्तंभ आप देखते हैं वो दरअसल अधूरा है। इसके ऊपर एक मूर्ति हुआ करती थी जिसका अंदाज़ा ऊपर बने शीर्ष फ़लक से होता है। चूंकि ये भागवान विष्णु को समर्पित था इसलिये निश्चित रुप से ये मूर्ति गरुढ़ की रही होगी। चूंकि मूर्ति इस्लाम के सिद्धांतो के ख़िलाफ़ मानी जाती थी इसलिये शायद मुस्लिम सुल्तानों से इसे हटवा दिया होगा।

लौह-स्तंभ पर अंकित अभिलेख का अनुवाद क़ुव्वतुल-उल-इस्लाम मस्जिद की दीवार पर है जो कुछ इस तरह है- “लोहे के ध्वज पर उकेरे गए अभिलेख का अनुवाद और प्रतिलेखन : इसमें लिखा है — राजा की कोशिशों का प्रभाव, जिनके ज्वलंत प्रताप ने दुश्मनों को पूरी तरह तबाह कर दिया, आज भी दुनिया से वैसे ही ख़त्म नहीं हुआ है जैसे जंगल की आग के बाद उसकी बची हुई गर्मी हो जाती है। ऐसा लगता है वो इस दुनिया को कुम्हलाया हुआ छोड़ कर सशरीर अपनी उपलब्धि के बलबूते पर दूसरी दुनिया में पहुँच गया है। हालाँकि वो अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन लोगों की स्मृति में अपनी कीर्ति के बल पर वो आज भी दुनिया में मौजूद है।”

एक अन्य लोक कथा के अनुसार ये स्तंभ नागों के राजा वासुकि के सिर के ऊपर स्थापित किया गया था और मान्यता थी कि जो भी इसे तोड़ेगा उसके पूरे वंश का नाश हो जाएगा। बाद में एक तोमर शासक ने ऐसा ही किया और कहा जाता है कि स्तंभ का जो हिस्सा उसने तोड़ा था वो ख़ून से लथपथ मिला। इसके बाद ही चौहान राजवंश ने तोमर राजवंश को समाप्त कर दिया। इस पर राजा अनंगपाल का अंकित एक छोटा सा अभिलेख है जो सन 1052 का है। भारतीय पुरातत्व के जनक एलेक्ज़ेंडर कनिंघम के अनुसार अभिलेख में लिखा है-संवत दिहली 1109 अनंगपाल बही या संवत 1109 (सन1052) अंग (अनंग) पाल लोग दिल्ली।

लौह स्तंभ में ज़ंग क्यों नहीं लगता?

लौह-स्तंभ जिस प्रक्रिया से बनाया गया उसे फ़ोर्ज वेल्डिंग कहते हैं। स्तंभ में इस्तेमाल किया गया धातु पूरी तरह विशुद्ध नहीं था। उस समय धातुकर्मी धातु बनाने के लिये नींबू (अम्ल) का प्रयोग नहीं करते थे इसलिये धातु में से फ़ास्फ़ोरस को नहीं निकाला गया। आईआईटी-कानपुर के प्रोफेसर डॉ. बालासुब्रमण्यम ने सन1998 में एक प्रयोग किया। उन्होंने स्तम्भ के लोहे की मटेरियल का अध्ययन किया और इससे पता चला कि स्तम्भ के लोहे को बनाते समय उसमें पिघले हुए कच्चा लोहा में फ़ास्फ़रोस तत्व मिलाया गया था। इससे आयरन के अणु बांड नहीं बन पाए जिसकी वजह से ज़ंग लगने की गति हज़ारों गुना धीमी हो गयी। इसी वजह से इस पर आज तक ज़ंग नहीं लग पाया। बहरहाल पुरातन काल में भारत में भी धातु-विज्ञान का ज्ञान मौजूद था।

लौह-स्तंभ का इतिहास

भारत में स्तंभ बनवाने का इतिहास बहुत लंबा है। इस तरह के स्तंभ पहले मौर्या राजवंश के राजा अशोक ने बनवाए थे जिनका दोबारा इस्तेमाल गुप्त और मुग़ल शासकों ने किया। इलाहबाद के स्तंभ इसका उदाहरण हैं। इन स्तंभों को गरुढ़ ध्वज के रुप में भी इस्तेमाल किया जाता था जो बसनगर में देखे जा सकते हैं। बसनगर में इंडो-मिस्र राजदूत हेलिओडोरस का इसी तरह का एक स्तंभ है। मध्य प्रदेश के एरण में भी एक सुंदर गरुढ़ ध्वज है जो गुप्तकाल (485) के समय का है।

भारते के अन्य हिस्सों में भी लौह-स्तंभ हैं। मध्यप्रदेश के धार में भी एक प्रसिद्ध स्तंभ है और कर्नाटक के कोडचादरी में विजय स्तंभ हैं जैसे यूनान, रोम और इथोपिया में भी स्तंभ हैं।

एक समय विजय के प्रतीक के रुप में स्तंभ या लाट बनवाए जाते थे। इसी तरह मीनार भी बनवाए जाते थे। राजस्थान के चित्तौड़ और अफ़ग़ानिस्तान के ग़ौर में इनके उदाहरण हैं। क़ुतुब मीनार भी विजय के प्रतीक के रुप में बनवाया गया था। इसी क़ुतुब-परिसर में विश्व का सबसे बेहतरीन लौह-स्तंभ आज खड़ा हुआ है।

शीर्षक चित्र यश मिश्रा

मुख्य चित्र: ब्रिटिश लाइब्रेरी

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