भारत की राजधानी दिल्ली के राजपथ को कई लोग राष्ट्रीय सड़क मानते हैं। यह वही जगह है जहां हर साल 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस की परेड होती है। इसकी पश्चिम दिशा में राष्ट्रपति भवन और पूर्वी दिशा में इंडिया गेट है। यह दोनों इमारते अंगरेज़ों की बनवाई हुई हैं। राष्ट्रपति भवन अंगरेज़ों के लिये, दक्षिण एशिया में उनकी शक्ति का प्रतीक था,वहीं इंडिया गेट ब्रिटिश सरकार से वफ़ादारी और उसके ख़ातिर किये गये बलिदान का प्रतीक था, जिसकी वजह से ब्रिटिश साम्राज्य बना।
इंडिया गेट उन 70 हज़ार ब्रिटिश भारतीय सैनिकों की याद में बनवाया गया था जिन्होंने सन 1914 और सन 1921 के बीच अपनी जानें गंवाईं थीं पहले प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) में और उसके बाद तृतीय एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध (1919) में।
इंडिया गेट के अभिलेख में लिखा है,
“भारतीय सेना के उन मृतकों के सम्मान में जो फ़्रांस और फ़्लांडर्, मेसोपोटामिया और फ़ारस, ईस्ट अफ़्रिका गल्लीपोली, नज़दीक या दूर कहीं पूर्व में शहीद हुये। और उन शहीदों की याद में भी जिनके नाम यहां दर्ज किये गये हैं,जो भारत या उत्तर-पश्चिम सीमा पर, तृतीय अफ़ग़ान युद्ध में मारे गये थे।”
कई में से एक
सन 1915 की बात है, 45 वर्षीय एक शिक्षाविद फ़ैबियन वेयर ब्रिटिश सेना में भर्ती होना चाहता था।क्योंकि उसकी उम्र ज़्यादा थी, वह मैदान में नहीं लड़ सकता था। इसलिये उसे ब्रिटिश रैड क्रास सोसायटी की तरफ़ से दी गई एम्बोलेंस वाहनों की ज़िम्मेदारी सौंप दी गई। उसे बहुत जल्द इस बात का इन्दाज़ा हो गया कि मरनेवालों की क़ब्रों की निशानदही करने की या उनका रिकार्ड रखने की कोई सरकारी व्यव्स्था नहीं है। उसने ख़ुद ने यह ज़िम्मदारी उठाने का निर्णय लिया और कब्र पंजीकरण आयोग (ग्रेव्स रजिस्ट्रेशन कमीशन ) का गठन कर लिया।
सन 1917 में उसे अधिकारिक स्वीकृति मिल गई और शाही युद्ध क़ब्र आयोग (इंपीरियल वॉर ग्रेव्स कमीशन- आई.डब्ल्यु.सी.जी.) बना दिया गया। युद्ध में शहीद होनेवालों की क़ब्रें बनवाने के साथ ही सैनिकों के लिये यादगार स्मार्क भी बनवाने का काम शुरू हो गया। और आई.डब्ल्यु.सी.जी. द्वारा निर्मित एक स्मारक अखिल भारतीय युद्ध स्मारक था, जिसे अब इंडिया गेट के रूप में जाना जाता है।
स्मारक के रूप में
इंडिया गेट की बुनियाद 10 फ़रवरी 1921 को रखी गई थी। इस वसर पर वायसराय लार्ड चेम्सफ़ोर्ड ने कहा था, “इस तरह बहादुरी की प्रभावशाली व्यक्तिगत कहानियां देश के इतिहास में हमेशा ज़िन्दा रहेंगी। जाने और अनजाने बहादुरों को श्रृद्धांजलि के रूप में बनाया गया यह स्मार्क आनेवाली पीढ़ियों को महनत की आदत डालने , वैसे ही धैर्य को क़ायम रखने और उतने ही साहस को बनाये रखने की प्ररणा देता रहेगा।”
इस गेट की डिज़ाइन भी, नई दिल्ली को रूप देने वाले शिल्पकार एडविन लुटियंस ने बनायी थी। जैसे जैसे इंडिया गेट शक्ल ले रहा था, उसी के साथ साथ राजधानी नई दिल्ली भी बनती जा रही थी। यह मुग़लों की राजधानी शाहजहांबाद से सिर्फ़ दस किलोमीटर दूर , एकदम नये सिरे से बन रही थी। ख़ुशवंत सिंह ने लिखा है कि पत्थर काटनेवाले यानी संगतराश आगरा और दिल्ली के ही थे और वह मुग़लों के क़िले बनाने वाले कारीगरों के ख़ानदान के ही थे। नई दिल्ली के निमार्ण में तीस हज़ार मज़दूर लगाये गये थे। उनमें से ज़्यादातर राजस्थान से थे जिन्हें बागरी के नाम से जाना जाता है। उन लोगों के रहने के लिये निर्माण कार्य के आसपास ही अस्थाई प्रबंध किये गये थे।
लुटियंस आई.डब्ल्यु.सी.जी के सदस्य थे और वह पूरे यूरोप में साठ से ज़्यादा वार मेमोरियल या युद्ध स्मार्क बना चुके थे। लुटियंस प्रथम विश्व युद्ध में भाग लेनेवाले ब्रिटिश सैनिकों की धार्मिक और नस्ली विभिन्नता को जानते थे। इसीलिये उन्होंने ऐसे स्मार्क बनाने पर ज़ोर दिया जो क्रोस जैसी विशेष सांस्कृतिक शिल्पकारी से मुक्त हो।
इंडिया गेट, कम ऊंचाई के भरतपुर-पत्थरों से बने चबूतरे पर खड़ा है। उसकी ऊंचाई 137 फुट और सड़क को जोड़नेवाली सुरंग को मिला कर, इसकी चौड़ाई कुल 30 फुट है। गेट पर ऐसे 13,200 जवानों के नाम लिखे गये हैं, जिनकी क़ब्रों के बारे में जानकारी नहीं है। इसका उद्घाटन 12 फ़रवरी 1931 को हुआ था, यानी बुनियाद रखे जाने के ठीक दस वर्ष बाद। नई राजधानी नई दिल्ली का उद्घाटन इसके एक दिन बाद यानी 13 फ़रवरी को हुआ था। दिलचस्प बात यह है कि यह स्मार्क उन भारतीय जवानों की याद में बनाया गया था जिन्होंने आज़ादी और मुक्ति हासिल करने के लिये अपनी जानें क़ुर्बान कीं। लेकिन विडम्बना यह रही कि उन्हें वह आज़ादी और मुक्ति पूरी तरह अंग्रेजों द्वारा कभी मिली नहीं थी।
उपनिवेशवाद का एक चिह्न
यह सच है कि यह गेट भारतीय जवानों की क़ुर्बानियों की लगातार याद दिलाता रहता है। लेकिन हमारे लिये उस समय को भी याद रखना ज़रूरी है जिस समय यह बनाया गया था। यह वही दौर था जब राष्ट्रवादियों ने, ब्रिटिश उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी थी और सिविल नाफ़रमानी जैसे आंदोलनों से ब्रिटिश सरकार के लिये कामकाज करना मुश्किल कर दिया था। टैक्स देने से और ब्रिटिश कपड़े ख़रीद ने से इनकार कर दिया गया था। तरह तरह से ब्रिटिश हुकुमत का वहिष्कार किया गया था ।
यह वह वक़्त था जब भारतियों ने ब्रिटिश हितों के समर्थन पर सवाल उठाने शुरू कर दिये थे। उपनिवेशवाद के विरुद्ध यह ग़ुस्सा, विश्व-युद्ध के बाद, ब्रिटिश सरकार की योजनाओं में आये बदलाव की वजह से बढ़ गया था। एक तो था रोलेट एक्ट जिसकी वजह से पुलिस को बिना किसी कारण के किसी को भी गिरफ़्तार करने का अधिकार मिल गया था और दूसरा था जलियानवाला बाग़ हत्याकांड, इन दो घटनाओं ने ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ माहौल बना दिया।
औपनिवेशिक शासन के लिए भारतीय सहमति वापस पाने के लिए, अंग्रेजों ने कई रणनीतियां लागू कीं। भारतीयों को सरकार में ज़्यादा ज़िम्मदारी देने के लिये, पूरे भारत की प्रांतीय विधानसभाओं में, अपने पसंद के अफ़सर चुनने का अधिकार दिया गया। लेकिन उसमें भी अंगरेज़ अफ़सरों वीटो का अधिकार दिया गया।अगर भारतीय बहुमतवाली किसी विधानसभा ने कोई ऐसा क़ानून पास कर दिया जिससे ब्रिटिश हुकुमत के हितों को नुक़सान पहुंच सकता था तो अंगरेज़ अफ़सर उसके विरूध वीटो करके उसे रोक सकते थे। दूसरी महत्वपूर्ण योजना यह थी कि ब्रटिश शासन में भारतीयों को मिले आधिकारों और फ़ायदों की याद दिलाना। इंडिया गेट बनवाने का भी यही मक़सद था।
उदघाटन समारोह के भाषण में वायसराय लार्ड इरविन ने कहा था, “हम यहां कभी न भुलाये जानेवाले उन चार वर्षों को याद करने के लिये जमा हुये हैं जब विभिन्न राष्ट्र, विभिन्न लोग और विभिन्न नस्ले, पूरे आवेग के साथ ब्रिटिश तख़्त के प्रति वफ़ादारी साबित करने के लिये एक साथ आगे आये थे। वह इसलिये भी साथ आये थे कि उनके उन अधिकारों की सुरक्षा जीवन भर के लिये हो सके जो उन्हें ब्रिटिश सम्राट की छत्र-छाया में मिले थे।” इंडिया गेट के डिज़ाइनर लुटियंस ने ख़ुद भी, यह बात कई बार कही थी, “मेरे लिये इंडिया गेट सिर्फ़ बलिदान का प्रतीक नहीं है बल्कि यह कर्तव्य,अनुशासन,एकता, बंधुत्व, वफ़ादारी और सेवा का प्रतीक भी है।”
इसलिए आगली बार आप जब भी इंडिया गेट जायें, तो इसे दो नज़रियों से देखें। पहला यह कि यह हमारे शहीदों की याद में बनाया गया स्मार्क है और दूसरा यह कि यह हमारी आज़ादी की लड़ाई की निशानी भी है।
अमर जवान ज्योति
सन 1971 में इंडिया गेट पर एक और चीज़ जोड़ी गई। इंडिया गेट की मेहराब के नीचे काले संगमरमर का एक चबूतरा बनाया गया। उसके ऊपर एक उल्टी रायफ़ल रखी गई। रायफ़ल के ऊपर सैनिक की हैल्मेट रखी गई। उसके आसपास लगातार रौशन रहने वाली चार ज्योतियां लगाई गईं। उसका नाम दिया गया अमर जवान ज्योति। तब से ही इसे अनजान शहीद सैनिकों का भारतीय मक़बरा माना जाता है। प्रिति वर्ष गणतंत्र दिवस पर प्रधानमंत्री यहां आकर शहीदों को श्रद्धांजि देते हैं।
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