दिल्ली की विश्व प्रसिद्ध ऐतिहासिक धरोहरों में एक है हुमायूं का मक़बरा। कई वजहों से इसकी ख़ास एहमियत है। ये भारत में मुग़ल बादशाह का पहला मक़बरा था लेकिन बाद के वर्षों में यह शाही परिवार 150 से ज़्यादा सदस्यों का क़ब्रगाह बन गया। इस भव्य मक़बरे में न सिर्फ़ हुमायूं की क़ब्र है बल्कि शाहजहां के पुत्र दारा शिकोह, हुमायूं की दो पत्नियों और अन्य मुग़ल बादशाहों सहित मुग़ल शाही घराने के अन्य सदस्यों की भी क़ब्रें हैं। ये स्मारक न सिर्फ़ 16वीं शताब्दी की मुग़ल वास्तुकला का शानदार उदाहरण है बल्कि आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इसका संबंध सन 1947 में देश के विभाजन से भी है। विभाजन के समय यहां शरणार्थियों के लिये शिविर लगाए गए थे। इस तरह देखा जाए तो हुमायूं के मक़बरे के साथ कई कहानी-क़िस्से जुड़े हुए हैं।
भारत में मुग़ल शासन की स्थापना तुर्क-मंगोल राजकुमार बाबर ने सन 1526 में की थी जो यहां मध्य एशिया से आया था। बाबर ने पहले उज़बेकिस्तान में समरक़ंद को फ़तह करने की कोशिश की थी लेकिन नाकाम रहा। इसके बाद उसने भारत की तरफ़ रुख़ किया था। बाबर ने सन 1526 में पानीपत के युद्ध में सिकंदर लोधी के पुत्र और लोधी वंश के अंतिम शासक इब्राहीम लोधी को हराकर भारत में घुसपैठ की और इस तरह उत्तर भारत में बाबर के शासन की शुरुआत हुई। भारत में चार साल तक शासन करने के बाद ,बाबर की सन 1530 में, आगरा में बुख़ार से मृत्यु हो गई। पहल उसे आगरा में एक बाग़ में दफ़्न किया गया था लेकिन नौ साल बाद उसके शव को काबुल में बाग़-ए-बाबर में दफ़्न किया गया।
बाबर के बाद सन 1530 में उसका पुत्र हुमायूं राजगद्दी पर बैठा। हुमायूं उस वक़्त सिर्फ़ 24 साल का था और शुरुआती वर्षों में उसे नव स्थापित मुग़ल साम्राज्य को संभालने में कई दिक़्क़तों का सामना करना पड़ा। हुमायूं ने दिल्ली में क़रीब सन 1533 में दीनपनाह नाम के शहर की नींव डाली जो आधुनिक दौर के मथुरा रोड के कहीं आसपास था। शहर के अंदर एक दुर्ग था जिसे आज हम पुराने क़िले के नाम से जानते हैं। राजसत्ता संभलाने के कुछ साल बाद ही सन 1539 में शेरशाह सूरी ने हुमायूं को पहले चौसा के युद्ध में और फिर सन 1540 में कन्नौज के युद्ध में हरा दिया। इसके बाद हुमायूं को भारत छोड़कर भागना पड़ा और शेरशाह सूरी ने सन 1545 तक मुग़ल क्षेत्रों पर शासन किया। सन 1545 में शेरशाह सूरी की मृत्यु हो गई।
हुमायूं भारत छोड़ने के बाद 15 साल तक फ़ारस( ईरान ) में रहा। सन 1555 में हुमायूं ईरान के सफ़वी वंश की सेना की मदद से भारत वापस आया और दिल्ली के सुल्तान सिकंदर शाह सूरी को हराकर फिर मुग़ल शासन की स्थापना की। लेकिन क़िस्मत में तो कुछ और ही लिखा था। सन 1556 में हुमायूं दीनपनाह के पुस्तकालय से हाथों में कई किताबों को थामें सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था, तभी उसने शाम की नमाज़ की अज़ान सुनी। नमाज़ की हड़बड़ी में उसका पैर पोशाक में फंस गया और वह सीढ़ियों से सिर के बल नीचे गिर गया। इस हादसे के तीन दिन बाद उसकी मौत हो गई।
हुमायूं का मक़बरे तक का सफ़र
दिलचस्प बात ये है कि जो मक़बरा आज हम देखते हैं वहां हुमायूं को पहले नहीं दफ़नाया गया था। जनवरी सन 1556 में हुमायूं के निधन के बाद उसे दिल्ली के पुराने क़िले में दफ़नाया गया था। लेकिन सन 1556 में आदिल शाह सूरी के जनरल हेमू के हमले की वजह से हुमायूं के शव को पंजाब में सरहिंद के एक स्थायी मक़बरे में दफ़न किया गया। कहा जाता है कि हुमायूं को उसके पुत्र और उत्तराधिकारी अकबर ने पहले दीनपनाह में, उसके बाद सन 1571 में मक़बरा बनने के बाद उसे दफ़्न किया गया।
हुमायूं का मक़बरा कब बना था और किसने बनवाया था, इसे लेकर अलग अलग बातें कही जाती हैं। 19वीं शताब्दी के कुछ विद्वानों का कहना है कि मक़बरे का निर्माण कार्य सन 1565 में शुरु हुआ था लेकिन अन्य विद्वान संगीन बेग (18वीं शताब्दी) सियारुल मंज़िल के हवाले से कहते हैं कि मक़बरे की बुनियाद अकबर के शासनकाल के 14वें साल सन 1569 में रखी गई थी।
मक़बरे के निर्माण का आदेश हुमायूं की पत्नी बेगा बेगम या हाजी बेगम ने दिया था। लेकिन हाजी बेगम की पहचान को भी लेकर अलग अलग बातें हैं। विवाद ये है कि हाजी बेगम हुमांयू की पहली पत्नी बेगा बेगम थीं या फिर अकबर की मां और हुमांयू की अंतिम पत्नी हमीदा बानो बेगम थीं। लेकिन इस बात पर आम राय है कि बेगा बेगम ही हाजी बेगम थीं। बेगा बेगम को हाजी बेगम इसलिये कहा जाता था क्योंकि वह हज करने गईं थीं। लेकिन कुछ विद्वानों का कहना है कि मक़बरे की योजना अकबर ने की थी। ऐसा शायद इसलिये कहा जाता है क्योंकि मक़बरा बनाने का काम जब चल रहा था तब हाजी बेगम हज-यात्रा पर थीं।
लेकिन ये बात भी समझनी ज़रुरी है कि मुग़ल महिलाएं भी भवन निर्माण करवाया करती थीं और वे बहुत संपन्न भी हुआ करती थीं। इस बात का उल्लेख इरा मुखोटी की पुस्तक ‘’डॉटर्स ऑफ़ सन:एम्प्रेसेस, क्वीन्स एंड बेगम्स ऑफ़ द मुग़ल एंपायर’’ में मिलता है। इसलिये ये भी माना जा सकता है कि हाजी बेगम ने ही मक़बरा बनाने का आदेश दिया होगा। इस तरह कहा जा सकता है कि मक़बरे के निर्माण में हाजी बेगम की बड़ी भूमिका थी। इसके अलावा उन्होंने ही वास्तुकारों को मक़बरे का डिज़ाइन बनाने के लिये बुलाया था। उस समय हुमायूं का मक़बरा महज़ हुमांयू की याद में नहीं बनाया गया था बल्कि ये मुग़ल साम्राज्य की बढ़ती राजनीतिक और सांस्कृतिक ताक़त का प्रतीक भी था।
ये मक़बरा भारत में अपनी तरह का एक अनोखा मक़बरा तो है ही साथ ही इसकी अपनी विशेषताएं भी थीं तभी इसे बहुत महत्व भी दिया गया था। मक़बरा बनाने की जगह को भी बड़े ध्यान से चुना गया था। ये जगह पहले सूफ़ी संत निज़ामउद्दीन औलिया की दरगाह से क़रीब 650 मीटर दूर थी और यहां से दीनपनाह भी कुछ एक कि.मी. दूर था। इसके अलावा ये जगह यमुना नदी के किनारे भी थी। आज ये मक़बरा निज़ामुद्दीन बस्ती के बीच अन्य मुग़ल स्मारकों से घिरा हुआ है।
वास्तुकला का चमत्कार
हुमायूं का मक़बरा भारत में मुग़लों का पहला भव्य मक़बरा था। इसके बाद बने कई मुग़ल स्मारकों पर इसका प्रभाव देखा जा सकता है। इन स्मारकों में शाहजहां द्वारा निर्मित ताज महल भी शामिल है। हुमायूं का मक़बरा विशिष्ट मुग़ल शैली का उदाहरण है। ये शैली ईरानी वास्तुकला से प्रेरित थी।
इतने भव्य स्मारक को बनवाने के लिये मिराक मिर्ज़ा ग़यास नाम के वास्तुकार को नियुक्त किया गया था जिसे अफग़ानिस्तान में हरात और बुखडारा में ईरानी स्मारक बनाने का अनुभव था। उसने इनके अलावा भारत में भी कई भवनों की डिज़ाइन बनाई थी। कहा जाता है कि भारत छोड़ने के बाद हाजी बेगम जब हुमायूं के साथ ईरान में सफ़वी दरबार में रह रही थीं तब वह ईरानी वास्तुकला से बहुत प्रभावित हुई थीं। इसीलिये हाजी बेगम ने मिराक मिर्ज़ा ग़यास को मक़बरा बनाने का काम सौंपा। दुर्भाग्य से मक़बरा बनने के पहले ही ग़यास का निधन हो गया और उसके बाद उसके पुत्र सय्यद मोहम्मद ने निर्माण कार्य की ज़िम्मदारी संभाली।
हुमायूं का मक़बरा अपनी वास्तुकला के लिये अनूठा है और इसकी कई विशेषताएं हैं। पूरे भारतीय उप-महाद्वीप में ये उस समय संभवत: सबसे बड़ा मक़बरा था। ये मक़बरा एक चबूतरे पर खड़ा है। चबूतरे के चारों तरफ़ 56 छोटे प्रकोष्ठ हैं। हुमायूं का मक़बरा, चारबाग़ डिज़ायन का शानदार उदाहरण है। चारबाग़ चार वृत्त खंड वाला बाग़ होता है जिसमें चार नहरें होती हैं। ये क़ुरान में वर्णित स्वर्ग की तरह होता है।
ये बाग़ पूरे स्मारक को चार चांद लगा देता है। मक़बरे की एक और विशेषता है संगमरमर का गुंबद जो असल में डबल गुंबद डिज़ायन में हैं। ये भी अपने आप में अनूठी डिज़ायन है। इस तरह के गुंबद की दो तहें होती हैं जिनके बीच अंतर होता है। मक़बरे के चारों तरफ़ छतरियां हैं और बीच की छतरियों के गुंबद पर चमकदार टाइल्स लगे हुए हैं। गुंबद के नीचे मुख्य प्रकोष्ठ में हुमांयू की ख़ाली क़ब्र है। मुख्य प्रकोष्ठ में एक सांकेतिक अंश भी है। यहां बीच में संगमरमर की जाली के ऊपर एक मेहराब बनी हुई है जिसकी दिशा पश्चिम में मक्का की तरफ़ है।
मक़बरे में ज़्यादातर लाल और सफ़ेद रंग का प्रयोग किया गया है। हुमायूं के मक़बरे के पहले भी ये रंग इंडो-इस्लामिक डिज़ायन बनाने वालों के पसंदीदा रंग हुआ करते थे। बहुत साल पहले भी दिल्ली सल्तनत के स्मारकों में इन रंगों को देखा जा सकता है। मुख्य भवन के लिये लाल बालूपत्थर आगरा के पास तंतपुर से मंगवाए गए थे। इसके अलावा सफ़ेद संगमरमर राजस्थान के मकराना से मंगवाया गया था।
मुग़लों की “ आरामगाह “
कहा जाता है कि मक़बरे का उद्देश्य एक तरह से “ मुग़लों की आरामगाह “ बनाना था। इसका आभास स्मारक के चबूतरे में मौजूद कई प्रकोष्ठों और बड़े बड़े कमरों से होता है जहां शाही परिवार के 150 से ज़्यादा लोग दफ़्न हैं। किसी और मक़बरे में मुग़ल वंश के लोगों की इतनी सारी क़ब्रें नहीं हैं।
शाही परिवार के लोगों के अलावा हुमायूं की क़ब्र के आसपास, ज़्यादातर बादशाहों, शहज़ादों, शहज़ादियों और उनके सहायकों की भी क़ब्रे हैं। कहा जाता है कि मक़बरे के अन्य प्रकोष्ठों में हुमायूं की पत्नियों हाजी बेगम और अकबर की मां हमीदा बानो बेगम भी दफ़्न हैं। सन 1659 में शाहजहां के असली वारिस और पुत्र दारा शिकोह की औरंगज़ेब ने हत्या करवा दी थी। कहा जाता है कि दारा शिकोह का बिना सिर का शव भी यहीं दफ़्न है। बाद में जहांदार शाह, फ़र्रुख़ सियर और आलमगीर-द्वितीय सहित अन्य मुग़ल बादशाहों को भी यहां दफ़्न किया गया था।
हाल ही में संस्कृति मंत्रालय ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के सात लोगों की एक समिति गठित की है ताकि हुमायूं के मक़बरे में कई कब्रों के बीच छुपी हुई दारा शिकोह की क़ब्र का पता लगाया जा सके।
कहा जाता है कि मुग़ल काल के चरम में हुमायूं के मक़बरे में सरो के पेड़ होते थे। यहां हर मौसम में फूल खिले रहते थे। ऐसा भी विश्वास किया जाता है कि यहां फलों के भी कई पेड़ लगाए गए थे। इन फलों से होने वाली आमदनी का पैसा मक़बरे की देखरेख पर ख़र्च किया जाता था। दिलचस्प बात ये है कि मक़बरे के भीतर कभी क़ालीन बिछे रहते थे और शामियानें लगे होते थे।
मक़बरे में क़ुरान की प्रतिलिपि, हुमांयू की तलवार, पगड़ी और जूते भी रखे थे। हमें इस बात का पता अंगरेज़ व्यापारी विलियम फ़िंच के दस्तावेज़ से पता चलता है जो सन 1611 में इस मक़बरे में आया था। कहा जाता है कि मुग़ल बादशाह का सामान, वहां बाद में बसे स्थानीय लोगों ने चुरा लिया होगा।
संकट काल
18वीं शताब्दी में मुग़लों के पतन की शुरूरआत के साथ हुमायूं के मक़बरे के भी बुरे दिन आ गए थे। दस्तावेज़ों के अनुसार 18वीं शताब्दी की शुरुआत में यहां स्थानीय लोग रहने लगे थे। वे यहां सब्ज़ियां भी उगाते थे। मक़बरे के पास बाग़ों में लोग गोभी और तंबाकू की खेती करने लगे थे। इस बात की जानकारी हेनरी हार्डी कोल की रिपोर्ट क्यूरेटर ऑफ़ एंशियंट मॉनुमेंट्स इन इंडिया (1881-82) में मिलती है। कोल 19वीं शताब्दी के अंत में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, उत्तर-पश्चिमी प्रांत के निरीक्षक थे।
सन 1857 की बग़ावत के समय भी हुमायूं का मक़बरा सुर्ख़ियों में आया। उसी साल में, मध्य और उत्तर भारत में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत हो गई थी। लेकिन अंग्रेज़ सेना ने बाद में दिल्ली पर फिर कब्ज़ा कर लिया। उस समय आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र के नेतृत्व में मुग़ल साम्राज्य कमज़ोर हो चुका था। जब अंग्रेज़ों ने दिल्ली पर कब्ज़ा कर शाहजानाबाद पर हमला किया तो मुग़ल परिवार को लाल क़िले का अपना महल छोड़ना पड़ा।
बहादुरशाह ज़फ़र, उनकी पत्नियों और तीन मुग़ल राजकुमारों ने हुमायूं के मक़बरे में पनाह ली। कहा जाता है कि अंग्रेज़ सैनिक अफ़सर कैप्टन विलियम हडसन सितंबर सन 1857 में बहादुरशाह ज़फ़र को हुमांयू के मक़बरे से ही ले गया था। बाद में ज़फ़र को क़ैदी बनाकर पहले लाल क़िले ले जाया गया और फिर सन 1858 में रंगून भेज दिया गया।
18वीं सदी के बाद के समय में मक़बरे में कई बदलाव किये गये और ये अंगरेज़ी दिखावट दिखाई देने लगी थी। स्मारक के पास हरी घास के मैदान (लॉन) अंगरेज़ों की ही देन थे।
बहादुरशाह ज़फ़र को क़ैद करने के लगभग एक शताब्दी के बाद एक बार फिर हुमायूं के मक़बरे पर आफ़त आई। सन 1947 में विभाजन के दौरान मक़बरा और उसके बाग़ शरणार्थियों के रहने की जगह बन गए। यहां पाकिस्तान से हिंदुस्तान आने वाले लोगों के लिये शिविर लगाए गए थे। ये शरणार्थी यहां क़रीब पांच साल रहे और इस दौरान बाग़ों और मक़बरे के प्रमुख भवनों को काफ़ी नुक़सान पहुंचा।
हुमायूं के मक़बरे की मरम्मत
हालंकि भारत के वाइसरॉय लॉर्ड कर्ज़न के आदेश पर सन 1903-1909 के दौरान मक़बरे की मरम्मत करने की कोशिश की गई लेकिन असली मरम्मत का काम सन 1999 के बाद ही शुरु हुआ। उस समय तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और आग़ा ख़ान ट्रस्ट (कल्चर) मक़बरे के बाग़ों की मरम्मत करने पर सहमत हो गए थे। बाग़ों के अलावा फव्वारों की भी मरम्मत की गई थी जिन्हें आज देखा जा सकता है। मैदानों में आम, नीम आदि के 2500 से ज़्यादा पेड़ लगाए गए थे। पानी की आवाजाही का प्रबंध गया और बारिश का पानी जमा करने के लिये भी व्यवस्था की गई थी। यहां पुराने कुओं की भी मरम्मत की गई थी। इसके अलावा छतरियों पर पारंपरिक टाइल्स भी लगाईं गईं।
हुमायूं का मक़बरा यूनेस्को की विश्व धरोहर की सूची में शामिल है। इसके परिसर में और भी महत्वपूर्ण स्मारक हैं। परिसर की अरब सराय के अंदर एक बावड़ी है। कहा जाता है कि इस सराय में हाजी बेगम द्वारा नियुक्त सहायक और शिल्पकार रहते थे। यहां मक़बरे के पहले का भी एक स्मारक है। एक मक़बरा और मस्जिद ईसा ख़ान की है जो शेरशाह सूरी के दरबार में अफ़ग़ान विद्वान था। ये सन 1547 में बना था।
अन्य महत्वपूर्ण स्मारक हैं-
-बू-हलीमा का मक़बरा और मस्जिद
– अफ़सरवाला मक़बरा और मस्जिद
-नीला गुंबद
-नाइ का गुम्बद
हुमायूं का मक़बरा, जिसे “ मुग़लों की ख़्वाबगाह” कहा जाता था, आज अपनी पूरी भव्यता के साथ खड़ा है । इसे एक बार ज़रूर देखें। आप पायेंगे कि यह एक ऐसी इमारत है जो भारत में मुग़लों के इतिहास में एक ख़ास जगह रखती है।
मुख्य चित्र: ब्रिटिश लाइब्रेरी
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