हेतमपुर: बंगाल में छुपा एक शाही इतिहास 

बंगाल के ग्रामीण इलाक़ों को देखना ऐसा ही है जैसे आप ख़रगोश की मांद में दाख़िल हो रहे हों- यहां सिर्फ़ विस्मयकारी अद्भुत चीज़ें हीं नज़र आएंगी। आपको अचानक कहीं विक्टोरियाई शैली के महल, टोराकोट से सुसज्जित मंदिर और राज चिन्हों के मेहराबदार प्रवेश-द्वार नज़र आएंगे लेकिन ये निर्भर करता है कि आप किस जगह पर हैं और वहां आप क्या अपेक्षा करते हैं। वक़्त के साथ तेज़ी से बरबाद हो रहे ये स्मारक इस क्षेत्र के भव्य और वैभवशाली अतीत की निशानी हैं।

मुर्शीदाबाद के पास बीरभूम ज़िले में हेतमपुर गांव में आप ‘रंजन प्रसाद’ अथवा हज़ारद्वारी महल को देखकर हैरान हो जाएंगे जिसके एक हज़ार द्वार हैं। हालंकि ये महल अपने आकार या भव्यता के मामले में मुर्शीदाबाद में अपने हमनाम महल से कोई मुक़ाबला नहीं करता है लेकिन ये खोई हुई ज़मींदारी रियासत का प्रतीक है और हेतमपुर के मुख्य आकर्षण का केंद्र है।

कोलकता से क़रीब 200 कि.मी. दूर हेतमपुर एक ज़मींदारी रियासत थी जो बाद में हेतमपुर राज बन गई जिस पर शाही ख़िताब वाले एक स्थानीय परिवार का शासन होता था। लेकिन इसकी कहानी का संबंध उत्तर की दिशा में तीस कि.मी. दूर राजनगर से जुड़ा हुआ है।

सन 1690 के दशक तक हेतमपुर क्षेत्र में ज़्यादातर जंगल हुआ करते थे। इसकी सफ़ाई एक स्थानीय ज़मींदार राघव राय ने करवाई थी उन्होंने ने ही यहां एक नगर बसाया था जिसका नाम राघवपुर था। लेकिन राय स्थानीय अफ़ग़ान राजवंश की राजधानी राजनगर के शासकों से भिड़ गए जो मुग़ल साम्राज्य के जागीरदार हुआ करते थे। राजनगर के शासक ने राघव राय को वश में करने के लिए अपने जनरल हातिम ख़ां को भेजा। हातिम ख़ां की जीत के बाद नगर का नाम हातिमपुर रख दिया गया था जो बाद में बिगड़कर हेतमपुर हो गया।

सन 1725 में हातिम ख़ां की मृत्यु के तुरंत बाद स्थानीय शासकों की सेवा में, चैतन्य चरण चक्रवर्ती परिवार बांकुरा से हेतमपुर आ गया। चैतन्य चरण चक्रवर्ती ने यहां हेतमपुर राज की स्थापना की जो बीरभूम में सबसे शक्तिशाली ज़मींदारी बन गया। चक्रवर्ती परिवार की प्राशानिक कुशलता की वजह से 18वीं सदी के अंतिम वर्षों में ये नगर फलने- फूलने लगा और इसका विस्तार भी हुआ। इस परिवार ने अंग्रेज़ों की ख़ूब ख़िदमत की और बदले में शासक रामरंजन चक्रवर्ती को सन 1877 में “राजा बहादुर” का ख़िताब मिल गया और इस तरह इस परिवार को शाही दर्जा मिल गया।

सन 1912 में रामरंजन चक्रवर्ती को “महाराज” की पदवी मिल गई। सन 1905 में रामरंजन चक्रवर्ती ने रंजन प्रसाद या हेतमपुर का हज़ारद्वार महल बनवाया और पश्चिम बंगाल रियासत अधिग्रहण क़ानून,1953 ( पश्चिम बंगाल क़ानून1 1954) के तहत ज़मींदारी प्रथा ख़त्म होने तक ये परिवार की शाही सत्ता का केंद्र रहा। आने वाले समय में चक्रवर्ती परिवार ने हेतमपुर में कई आलीशान भवन बनवाए जिनमें से कुछ विक्टोरियाई शैली के थे। इनमें से जो बाक़ी रह गए हैं उनमें एक है ख़ूबसूरत मेहराबदार प्रवेश-द्वार, हेतमपुर राज परिवार का पीतल का एक रथ, टोराकोटे से सुसज्जित ईंट के मंदिर और पुराना कृष्णचंद्र कॉलेज। इनमें से कई भवन नष्ट हो चुके हैं, कुछ को ढ़हा दिया गया है जबकि बाक़ी को बचा लिया गया है। इसिलिए वह दिखाई दे रहे हैं।

तो चलिए देखते हैं भव्य महल यानी रंजन प्रसाद और अन्य भवनों को जो हमें हेतमपुर राज के चक्रवर्ती के वैभवशाली दिनों की याद दिलाते हैं।

रंजन प्रसाद अथवा हज़ारद्वारी महल

सन 1905 में महाराज रामरंजन द्वारा निर्मित इस महल के 999 या एक हज़ार दरवाज़े हैं और इसी वजह से इसका नाम हज़ारद्वारी महल पड़ा है। महल के सामने लाल ईंटों का एक विशाल प्रवेश द्वार है। अग्रभाग में कोरिंथियन शैली के बड़े स्तंभ हैं जिन पर मेहराबदार खिड़कियां और प्रवेश-द्वार हैं। मध्य फुटपाथ में एक गोल निशान बना हुआ है जो कभी एक बड़ी घड़ी हुआ करता था।

विस्तृत महल की, अपने आकार के अलावा, विशेषता इसके विशाल खंबे भी हैं जिन पर द्वार मंडप टिके हुए हैं। गाथिक मुखाकृति वाले विक्टोरियाई शैली में बने फुटपाथ के ऊपर एक राज चिन्ह है जिसे हेतमपुर शाही परिवार का प्रतीक चिन्ह माना जाता है। महल की छत बहुत विशाल है जहां से आसपास का विहंगम दृश्य दिखाई पड़ता है। गलियारों से आप हर दीवार पर लगे दरवाज़ों को देख सकते हैं।

20वीं सदी के मध्य में हेतमपुर राज रियासत का रामरंजन चक्रवर्ती के पुत्रों में बंटवारा हो गया। महल का दाहिना हिस्सा सदा निरंजन को जबकि बायां हिस्सा कमल निरंजन को मिला। अब यहां सिर्फ़ कमल निरंजन चक्रवर्ती के वंशज रहते हैं।

इस शानदार महल ने पॉप संस्कृति में भी अपना स्थान बनाया है क्योंकि इसका कई फ़िल्म निर्मताओं और कलाकारों ने इस्तेमाल किया है। संगीत निर्देशक राहुल देव बर्मन, जादूगर पी.सी. सरकार, बंगाली अभिनेता और हास्य कलाकर नवद्वीप हल्दर ने यहां राजा रामरंजन चक्रवर्ती के पर-पौते राजकुमार रेवती रंजन के उपनयन संस्कार (जनेऊ संस्कार) के वक़्त प्रदर्शन किया था। महान फ़िल्म निर्देशक सत्यजीत रे, मृणाल सेन, तरुण मजूमदार और संदीप राय ने भी अपनी फ़िल्मों के लिए इस महल का बैकड्राप के रूप में इस्तेमाल किया था।

रंजन महल के भित्ति चित्र

रंजन महल की पहली मंज़िल के एक बड़े सभागार में उत्कृष्ट भित्ति चित्र लगे हुए हैं। कमला निरंजन चक्रवर्ती कला प्रेमी थे और वह कलाकारों को संरक्षण देते थे। उनके नाम का छोटा रुप (के.एन.सी.) बालकनी वाले कमरे की दीवारों पर देखा जा सकता है। एक बड़ी सीढ़ी की तरफ़ वाले मेहराबदार आले और छत फूलों के भित्ति चित्रों से सजे हुए हैं। बाईं दीवार के एक हिस्से पर फूलों के भित्ति चित्र और भारतीय लोककथाओं के दृश्य बने हुए हैं। मेहराबों पर रामायण और विष्णु पुराण के दृश्य अंकित हैं।

हेतमपुर राज परिवार का पीतल का रथ

महल के एक तरफ़ एक छोटी-सी जगह पर शाही रथ रखा है। ये रथ पीतल का बना हूआ है जिसे हेतमपुर राज के ख़ुशहाली के दिनों में इंग्लैंड से मंगवाया गया था। कमल निरंजन चक्रवर्ती-परिवार के वंशज हर साल हिंदू देव-देवताओं के साथ इस रथ की यात्रा बड़ी धूमधाम के साथ निकालते हैं। इस मौक़े पर रथ पर गौरंग और नित्यानंद की मूर्तियां रखी जाती हैं। रथ के ऊपर पांच शिखर बने हूए हैं। इस मौक़े पर हेतमपुर में बहुत रौनक़ होती है और रथ-यात्रा के साथ शहर के लोग चलते हैं। इंटैक की शांतीनिकेतन चैप्टर ने सन 2015 में पीतल के रथ की मरम्मत करवाई थी लेकिन जहां यह पूरे साल रखा जा सकता है इस जगह की ऊपरी छतरी टूट रही है।

चंद्रनाथ शिव मंदिर

हेतमपुर का एक अन्य आकर्षण है अष्टकोणीय चंद्रनाथ शिव मंदिर जिसे कृष्णचंद्र चक्रवर्ती ने सन 1847 में बनवाया था। बंगाल में बीरभूम ज़िले में हालंकि टेराकोटा और ईंटों के कुछ बेहतरीन मंदिर हैं लेकिन इस मंदिर की ख़ासियत है इसकी ब्रिटिश वास्तुकला। बंगाल के टोराकोटा मंदिरों पर अभूतपूर्व काम कररने के लिए प्रसिद्ध डेविड मैककुशियन, हेतमपुर के चंद्रनाथ शिव मंदिर को देखकर ही बहुत प्रभावित हुए थे।

इस अनोखे आठ कोने वाले मंदिर के नौ उभरे हुए शिखर हैं जो बंगाल की मंदिर-वास्तुकला की नवरत्न शैली से लगभग मिलते जुलते हैं। प्रत्येक शिखर के ऊपर एक एक छोटी मूर्ती है। सभी मूर्तियों के हाथ फैले हुए हैं। इन शिखरों की डिज़ाइन कुछ इस तरह की है कि बीच के एक बड़े गुंबद के आसपास आठ छोटे छोटे गुंबद नज़र आते हैं। अग्रभाग की तरफ़ वाली तीन दीवरें टेराकोटा फलक से सुसज्जित हैं जिन पर मूर्तियां बनी हुई हैं और अस्तरकारी का काम है जबकि अन्य दीवारों पर या तो टेराकोटा के पैनल नहीं हैं या फिर अस्तरकारी नहीं है।

चंद्रनाथ मंदिर के टेराकोटा फलक पर महारानी विक्टोरिया, यूरोपीय टोपी लगाए पुरुषों, यूरोपीय नन (साध्वी), पादरी और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के राज चिन्ह जैसे कई महत्वपूर्ण यूरोपीय शख़्सियतों के चित्र बने हुए हैं। इस यूरोपीय शैली की सजावट को देखकर लगता है कि सूत्रधारों (मंदिर के वास्तुकार) ने अपने संरक्षक अंग्रेज़ अफ़सरों को ख़ुश करने के लिए ऐसा किया होगा। इससे अंग्रेज़ों को अपनी यूरोपीय पसंद, ताक़त और हैसियत की नुमाइश करने का मौक़ा मिलता है।

मंदिर के बाहर टेराकोटा फलक पर दुर्गा, गज-लक्ष्मी और कृष्ण की मूर्तियां बनी हुई हैं। इसके अलावा हिंदू पुराण और समाज की घटनाएं भी चित्रित हैं। मंदिर के पास ही टेराकोटा सुसज्जित रास मंच ( कार्तिक पूर्णिमा के पावन दिवस पर रास उत्सव के दौरान कृष्ण की भक्ति के लिए बना सभागार) होता था लेकिन सन 1960 के दशक में इसे ढ़हा दिया गया था। बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट, कोलकता के प्रसिद्ध पैंटर मुकुल चंद्र दे ने सन 1940 के दशक के अंतिम वर्षों में इन मंदिरों की तस्वीरें खींची थीं।

दीवानजी शिव मंदिर

चंद्रनाथ शिव मंदिर के बहुत ही पास एक और उत्कृष्ट टेराकोटा मंदिर है दीवानजी मंदिर। ईंटों का बना ये मंदिर रेखा देउला शैली का है। रेखा देउला शैली बंगाल मंदिर की वास्तुकला की एक शैली है। हाथी ताला नामक एक विशेष स्थान से इस मंदिर का शिखर देखा जा सकता है। इस स्थान को हाथी तला इसलिए कहते हैं क्योंकि सड़क के दोनों तरफ़ दो हाथियों की मूर्तियां बनी हुई हैं। इस मंदिर का निर्माण 19वीं सदी के अंतिम वर्षों में हुआ था। इसके अग्रभाग पर टेराकोटा का काम है। इन पर रामायण, पुराण, ख़ासकर विष्णु पुराण, से लेकर उस समय के रोज़मर्रा जीवन के विस्तृत चित्र बने हुए हैं।

ऊपरी पैनल पर उदास गोपियों के चित्र हैं जो अकरुर के रथ पर सवार कृष्ण की मथुरा रवानगी से दुखी हैं। मंदिर के मध्य पैनल पर राम के राज्याभिषेक का चित्रण है। बीरभूम ज़िले में 19वीं सदी के मंदिरों में राम के राज्याभिषेक का चित्रण आम बात हुआ करती थी। इसके अलावा छोटे छोटे पैनलों पर विदेशी परिधान पहने लोगों, साहब और मेमसाहब, नृत्य करती लड़कियों, गांजा पीते एक साधु तथा जानवरों आदि के चित्र बने हुए हैं।

पुरानी राजबाड़ी और हेतमपुर राज स्कूल

हाथी तला से कुछ मिनट की दूरी पर एक पुराना प्रवेश-द्वार है जिस पर हेतमपुर राज का चिन्ह अंकित है। ये प्रवेश-द्वार पुराने महल या हेतमपुर राज की राजबाड़ी की तरफ़ जाता है लेकिन जो अब ढ़ह रहा है। विशाल खंबे, मेहराबें और भवन की दीवारों पर अस्तरकारी दुर्दशा में है लेकिन फिर भी इन्हें देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ये अपने जमाने में कितना भव्य रहा होगा।

पुराना महल अब राधा माधव मंदिर का हिस्सा है। भवन के अंदर लोहे का एक द्वार है जो एक बड़े आंगन की तरफ़ खुलता है जहां एक दो-मंज़िला भवन है। आंगन के अंत में एक भव्य ठाकुर दालान है। इसके छह स्तंभ और पांच मेहराबें हैं। प्रत्येक स्तंभ पर कई छोटे-छोटे भित्ति चित्र बने हुए हैं। गलियारों में आज भी यूरोप से प्रभावित अस्तरकारी का काम देखा जा सकता है।

हेतमपुर में पुराने मंदिर में हर साल सरस्वती पूजा मेला लगता है जो तीन दिन तक चलता है। ये परंपरा औपनिवेशिक समय से चली आ रही है। इस मौक़े पर अंग्रेज़ अधिकारियों सहित जानीमानी हस्तियों को आमंत्रित किया जाता था और कलकत्ता का मिनरवा थियेटर और हेतमपुर रॉयल थियेटर शो का आयोजन करते थे।

पुराने राजबाड़ी के एक हिस्से की मरम्मत करवाई गई है औऱ वहां अब हेतमपुर हाई स्कूल चलता है। ये स्कूल सन 1869 में खुला था। ये आज भी बीरभूम ज़िले का एक महत्वपूर्ण शैक्षिक संस्थान है।

कृष्णचंद्र कॉलेज

हेतमपुर शाही परिवार ने शिक्षा के क्षेत्र में बहुत योगदान किया है। इसका एक और उदाहरण है कृष्णचंद्र कॉलेज जिसकी स्थापना शाही परिवार ने की थी। बीरभूम ज़िले के सबसे पुराने इस कॉलेज की स्थापना रामरंजन की पत्नी रानी पद्मासुंदरी देवी ने अपने ससुर के सम्मान में सन 1897 में की थी। बर्धवान विश्वविद्यालय से अब संबद्ध इस कॉलेज का भवन बहुत सुंदर है और यहां पहले सरस्वती देवी की पूजा होती थी। यहां अस्तरकारी का सुंदर काम है जिस पर यूरोपीय प्रभाव साफ़ झलकता है।

लिव हिस्ट्री इंडिया ट्रेवल गाइड

हेतमपुर से निकटम रेल्वे स्टेशन दुबराजपुर है जो हावड़ा जंक्शन रेल्वे स्टेशन से जुड़ा हुआ है। दुबराजपुर से आप स्थानीय वाहनों के ज़रिए हेतमपुर जा सकते हैं। बंगाल की अलग अलग जगहों से एस.बी.एस.टी.सी. की बसें शांतिनिकेतन के लिए उपलब्ध हैं। हेतमपुर यहां से क़रीब 40 कि.मी. दूर है।

आभार
अपने बहुमूल्य योगदान के लिए हेतमपुर राज-परिवार के, कमल निरंजन चक्रवर्ती की पर-पोती बैशाखी चक्रवर्ती का आभार।