यह एहसास कितना रोमांचक है कि हम जिस ज़मीन पर चल रहे हैं, उसके ठीक नीचे किसी बहुत प्राचीन सभ्यता के चिन्ह मिल सकते हैं। यह सोचना वाकई में दिलचस्प है कि हमारे पैरों के महज़ कुछ फीट नीचे हमारे ही किसी आदम पुर्वज द्वारा इस्तेमाल में लाई गई कोई वस्तु दबी हो सकती है। यह एक छोटी सी वस्तु हमारे लिए एक सूत्र बन सकती है, जिस के द्वारा हम एक प्राचीन सभ्यता के कितने ही अंजान अध्याय खोल सकते हैं, उसकी पर्तें उधेड़ सकते हैं।
अमृतसर के नज़दीकी क्षेत्रों में मिली बहुत सी वस्तुओं ने यह साबित कर दिया है कि हम जिस धरती पर रह रहे हैं, तीन या चार हज़ार वर्ष पहले वहां कोई सभ्यता विकसित थी।
इन्हीं दुर्लभ वस्तुओं से लबरेज़ अमृतसर का हरसा छीना गांव पुरातत्व शोध-कर्ताओं के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं है। इस स्थान पर प्रसिद्ध चीनी बौद्ध भिक्षु ह्वेन त्सांग 630 से 635 ई. के दौरान गुजरे। ह्वेन त्सांग एक प्रसिद्ध चीनी बौद्ध भिक्षु थे। वे राजा हर्षवर्धन के शासन काल में भारत आए थे। वे भारत में 15 वर्षों तक रहे। उन्होंने अपनी पुस्तक सी-यू-की में अपनी यात्रा तथा तत्कालीन भारत का विवरण दिया है।
सन् 629 में ह्वेन त्सांग को स्वप्न में भारत आने की प्रेरणा मिली। उस समय तंग वंश और तुर्कों का युद्ध चल रहा था। इस कारण राजा ने विदेश यात्राएं निषेध कर रखी थीं। उन्होंने कुछ बौद्ध रक्षकों से प्रार्थना कर लियांगजाउ और किंघाई प्रांत होते हुए तंग राज्य से पलायन किया। फिर वे गोबी मरुस्थ होते हुए कुमुल, तियान शान से हो कर तुर्फान पहुंचे। वहां के बौद्ध राजा ने उन्हें आगे की यात्रा हेतु सशस्त्र किया। उसने उन्हें परिचय हेतु कई पत्र भी दिए। जिसके बाद वे यांकी, थेरवाडा मठ, कुचा, आक्रु, किर्घिस्तान, तोकमक, उज़्बेकिस्तान, चे-शिह, समरकंद, अमु दरिया, तर्मेज, कुण्डूज, बलख, बामियान, जलालाबाद, लघमन, पेशावर, स्वात घाटी, बुनेर घाटी, कश्मीर से होते हुए चिनाभुक्ति; जिसे वर्तमान में फिरोजपुर कहते हैं, में पहुँचे। वहां भिक्षु विनीतप्रभा के साथ एक वर्ष तक अध्ययन किया और सन् 634 में जालंधर पहुंचे।
पुरातत्व विज्ञानी अलैग्ज़ैंडर कनिंघम ‘रिपोर्ट आॅफ ए टूर इन दी पंजाब’, वर्ष सन् 1878-79 के पृष्ठ 53-54 पर लिखते हैं कि जब ह्वेन त्सांग लाहौर (ह्वेन त्सांग ने लाहौर को नारा सिनहा तथा रानसी लिखा है) को जा रहे थे, तो उन्होंने दरिया ब्यास और रावी के मध्य बहुत बड़े चीनियों के थेह (गाँव या नगर का पूरी तरह से ढह चुका रिहायशी क्षेत्र, जिसे टिब्बा भी कहा जाता है) दिखे।
जुलिसन ‘ह्वेन त्सांग’, अंक 2, पृष्ठ 199 पर लिखते हैं कि ह्वेन त्सांग ने इस क्षेत्र को ‘चाईना-पट्टी’ का नाम दिया। उनके अनुसार कनिश्का पीरियड में सर्दी के मौसम में चीनी बंधकों को रखा जाता था। उस समय लोग गर्मियों, सर्दियांे तथा बरसातों में अलग-अलग स्थानों पर रहते थे। ‘रिपोर्ट आॅफ ए टूर इन दी पंजाब’ में कनिंघम लिखते हैं कि अमृतसर से पसरूर को जाने वाली सड़क पर मौजूद हरसा छीना को ‘चिनियारी’ नाम से संबोधित किया जाता था। उन्होंने लिखा है कि उन्हें इस स्थान पर सिकंदर के समय के थेह दिखाई दिए।
कनिंघम के अनुसार जब उन्होंने इस क्षेत्र का सर्वे कराया तो उन्हें 500 स्कवेयर फीट भूमि पर बने थेह मिले, जिनकी ऊँचाई 46.5 फीट से 50 फीट के बीच थी। इस खुदाई के दौरान कनिंघम को 12 ईंच लंबी, 8 ईंच चैड़ी तथा 2 ईंच ऊँची ईंटें मिली, जिन्हें तोड़ने पर उनमें से आभूषण मिले। इनके बारे में अपने यात्रा वृतांत में ह्वेन त्सांग ने लिखा था कि जब वे चिनियारी (मौजूदा हरसा छीना) में पहुँचे तो वहां एक बौध मठ का निर्माण हो रहा था। जहां लगाई जाने वाली ईंटों को बनाते समय उनमें आभूषण रखे जा रहे थे। इस से पता चलता है कि एक लंबा समय पहले यह एक धार्मिक स्थान रहा होगा। यहां पर 14 माह तक रह कर ह्वेन त्सांग ने धर्म शास्त्रों का ज्ञान हासिल किया।
मौजूदा समय हरसा छीना के थेह जहां पर मौजूद हैं, वह हिस्सा गाँव लल्ला अफगान का है।इतिहासिक दस्तावेज़ों के अनुसार इस क्षेत्र का असल नाम हरसा चाईना यानि राजा हर्षवर्धन का चाइना था, जोकि समय के साथ बिगड़ते हुए हरसा छीना बन गया।
कुछ वर्ष पहले तक हरसा छीना के थेह करीब 200 एकड़ में फैले हुए थे, जबकि अब अवैध ढंग से इनकी की जा रही खुदाई के चलते ये मात्र 5 एकड़ में सिमट कर रह गए हैं और इनकी ऊँचाई भी मात्र 25 फीट के करीब रह गई है। गैर-कानूनी तौर पर की गई इन थेहों की खुदाई के चलते इन में से बहुत बड़ी गिनती में पत्थर तथा धातुओं के पुरातन सिक्के, ईंटे, घड़े, खिलौने, बर्तन, बैल गाड़ी के पहिए तथा और बहुत सारी दुर्लभ वस्तुएं निकाली जा चुकी हैं।
उक्त थेहों में करीब 20 फीट की ऊँचाई पर मिट्टी की पर्त के नीचे से अलग तरह के पुरातन स्तंभ भी मिले हैं। जिनके बारे में शोध करने पर इतिहास में दर्ज कई बड़े सच सामने आ सकते हैं। भूमि माफिया द्वारा उक्त थेहों के शेष बचे हिस्से को भी खत्म करने की योजनाएं बनाई जा रही हैं। यहां पर अवैध तौर पर की जा रही खुदाई को रोकने के लिए पुरातत्व विभाग द्वारा थेहों के पास ही एक चेतावनी बोर्ड भी लगाया गया था, जो भूमि माफिया ने गायब कर दिया है।
वर्ष 2018 में इन पुरातन थेहों के नीचे दफन दुर्लभ तथा बहुमूल्य ख़जाने की खोज के लिए कुछ अज्ञात लोगों द्वारा इनके नीचे एक गुफा बनाई गई। इस गुफा का प्रवेश द्वार 6 फीट से भी कम ऊँचा था, जबकि थोड़ा भीतर जाने पर इसकी ऊँचाई 9-10 फीट थी। गुफा की लंबाई 25-30 मीटर के करीब थी। इस गुफा का मामला सार्वजनिक होने के बाद पुलिस प्रशासन ने आनन-फानन में गुफा के प्रवेश द्वार को वहां पड़ी मिट्टी की ढ़ेलियों से अस्थाई तौर पर बंद कर दिया। जबकि दो वर्ष बीत जाने के बाद भी अभी तक इसके बारे में कोई पुख्ता जानकारी नहीं मिल सकी है कि यह गुफा किन लोगों ने और कब बनाई थी और इसमें से खुदाई के दौरान कौन-कौन सी दुर्लभ वस्तुएं निकाली गई हैं। जिस कारण उक्त गुफा का भेद अभी भी बरकरार है।
हरसा छीना की ही तरह अमृतसर के नज़दीकी गांव कोटली वसावा सिंह, अलगो कोठी, भिखीविंड, खेमकरन, अटारी आदि में खुदाई के दौरान मटरों के दानों के आकार के सिक्के, बोध स्तूप तथा कुशान सभ्यता की कई निशानियां मिल चुकी है। इसी प्रकार फतेहगढ़ चूढ़ियां-मजीठा मार्ग पर स्थित गांव मान ख़ैरा तथा फतेहगढ़ चूढ़ियां-अजनाला मार्ग पर स्थित गांव मोहन भंडारिया में कई फीट ऊँचे पुरातन थेह आज भी कायम हैं, परंतु अवैध रूप से चल रही खुदाईयों के चलते धीरे-धीरे ये अपना अस्तित्व और पहचान खोते जा रहे हैं। अगर इस ओर ध्यान न दिया गया तो आने वाले समय में इन थेहों की समाप्ति के साथ ही इतिहास में दर्ज प्राचीन सभ्यता की इन महत्वपूर्ण निशानियों की प्रमाणिकता पर भी प्रश्न चिन्ह लग जाएगा।
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