मध्यप्रदेश का गोविंदगढ़ नैशनल पार्क सफ़ेद बाघों के लिये मशहूर है जिसे देखने के लिए हर साल यहां हज़ारों की संख्या में सैलानी आते हैं। लेकिन क्या आपको पता है कि यहां से क़रीब 80 कि.मी. दूर गोविंदगढ़ क़िला भी है जहां से सफ़ेद बाघों की कहानी शुरु हुई थी ? इसके पहले कि हम दोनों के बीच संबंधों के बारे में पता करेने की कोशिश करें, पहले हम इस क्षेत्र का इतिहास जान लेते हैं। उत्तर पूर्व मध्य प्रदेश में बघेलखंड प्राचीनकाल में उस व्यापारिक मार्ग पर स्थित था जो गंगा-पठार को मध्य भारत से जोड़ता था। इसके मध्य में बांधवगढ़ क़िला था जो आज सफ़ेद बाघों के लिये प्रसिद्ध है। व्यापार मार्ग के बीच में एक घना जंगल होता था जिसे “दंडकारण्य” या “गोंडवाना” कहते हैं जो उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र से लेकर आंध्र प्रदेश तक फैला हुआ था। दूसरी सदी( ई.पू.) में ये क्षेत्र मौर्य साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था। उस समय बांधवगढ़ कौशांबी और भरहुत के बीच यात्रा करने वाले व्यापारियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता था और इसे “ भद्रावती “ के नाम से जाना जाता था।
मौर्य के बाद वाकाटक राजा आए जिन्होंने तीसरी से लेकर पांचवी सदी तक शासन किया। 5वीं सदी में सेंगरों और फिर कलचुरी राजवंश ने शासन किया। त्रिपुरी( जबलपुर के पास) के कलचुरी राष्ट्रकूट राजवंश में सामंत हुआ करते थे और जब उत्कल (उड़ीसा), बिहार और गंगा तथा यमुना के बीच के क्षेत्रों को जीतने की कोशिश की गई तो वे 11वीं सदी में गांगेयदेव और उनके पुत्र लक्ष्मीकर्ण के शासनकाल के दौरान बहुत शक्तिशाली हो गए।
13वीं सदी में बघेलों ने क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया और फिर इसे बघेलखंड नाम से जाने जाना लगा। बघेल राजपूत होते थे और उनका मूलत: संबंध गुजरात के चालुक्य की सोलंकी शाखा से था। कहा जाता है कि गुजरात के एक शासक का भाई व्याघ्र देव 13वीं सदी के मध्य में, मध्य भारत आया था और उसने उत्तर-पूर्व कालिंजर से 29 कि.मी. दूर मार्फा क़िले पर कब्ज़ा कर लिया था। उसके पुत्र कर्ण देव ने मंडला की एक कलाचुरी राजकुमारी से शादी की थी और उसे दहेज़ में बांधवगढ़ क़िला मिल गया था। बाद में ये बघेलों की राजधानी बन गया। सन 1550 के मध्य दशक में राजा रामचंद्र सिंह बघेल अपने दरबार में संगीतकारों को संरक्षण देने के लिए प्रसिद्ध थे। इन संगीतकारों में महान तानसेन भी शामिल थे। सन 1617 में रामचंद्र के पोते राजा विक्रमादित्य सिंह ने रीवा को अपनी राजधानी बना लिया जो जल्द ही एक बड़ी रियासत बन गई।
रीवा के महाराजा रघुराज सिंह ने सन 1953 में रीवा से क़रीब 13 कि.मी. दूर एक ग्रीष्म महल बनाया। ये कृत्रिम तालाब रघुराज सागर के तट पर बनवाया गया था। महल के अहाते में कई शानदार महल और मंदिर थे। महाराजा रघुराज सिंह के बाद रीवा के कई शासकों ने गोविंदगढ़ को अपना निवास बनाया। इस बीच बांधवगढ़ और क़िला तथा इसके आसपास का क्षेत्र वीरान होता गया और जंगल में तब्दील हो गया। लेकिन रीवा के राजाओं ने इसका फ़ायदा उठाया और इस जंगल में शिकार करने लगे। माना जाता है कि महाराजा गुलाब सिंह (1918-1946) ने यहां 500 बाघों का शिकार किया था। वह अंग्रेज़ अधिकारियों को भी शिकार करवाते थे।
लेकिन महाराजा गुलाब सिंह के पुत्र और उत्तराधिकारी महाराजा मार्तंड सिंह (1923-1995) बदलाव चाहते थे। वह जंगल और बाघों का संरक्षण चाहते थे। इस बीच सन 1947 में रीवा रियासत का भारतीय संघ में विलय हो गया और ये विंध्य प्रदेश तथा बाद में मध्य प्रदेश का हिस्सा बन गई। जंगल और बाघों को बचाने के लिए बनाए गए महाराजा मार्तंड सिंह के दल के प्रयासों के दौरान ही एक सफ़ेद बाघ का एक बच्चा मिला। सफ़ेद बाघ के बच्चे को देखकर महाराज मार्तंड सिंह इतने आकर्षित हुए कि उन्होंने सफ़ेद बाघों की उत्पत्ति और आनुवंशिकी( जेनेटिक) का पता लगाने का फ़ैसला किया। सन 1951 में सफ़ेद बाघ के बच्चे को गोविंदगढ़ महल ले जाया गया और इसका नाम मोहन रखा। तब गोविंदगढ़ महाराजा मार्तंड सिंह का प्रमुख निवास होता था।
दुख की बात ये है कि मोहन को महल में काफ़ी लंबे समय तक बंद करके रखा गया और तभी उसे बाहर निकाला गया जब वह प्रजनन योग्य हो गया। सन 1953 में मोहन को बेगम नाम की सामान्य रंग की बाधिन से मिलवाया गया जिससे नारंगी रंग के दो बाध पैदा हुए लेकिन सफ़ेद बाघ नहीं हुआ। कुछ साल बाद सन 1955 में दोनों से दो नर-बाघ और दो मादा-बाघ पैदा हुईं लेकिन ये सभी सामान्य रंग के थे। इनमें से एक बाघ का नाम सैम्पसन और बाघिन का नाम राधा रखा गया था। सन 1956 में दोनों से फिर दो नर और दो मादा बाध हुए लेकिन सफ़ेद बाघ पैदा नहीं हुआ।
घोर निराशा में मोहन को उसकी बेटी राधा के साथ प्रजनन करवाया गया जिसे अपने पिता से सफ़ेद वंशाणु मिले थे। इस बार प्रयोग सफल रहा। सन 1958 में दोनों से एक नर जिसका नाम “राजा” था और तीन मादा पैदा हुईं जिनके नाम “रानी”, “मोहिनी” और “सुकेशी” रखे गए। बंदी स्थिति में पैदा होने वाले यह पहले सफ़ेद बाघ थे। सन 1960 में “राजा” और “रानी” को दिल्ली के चिड़ियाघर में भेज दिया गया जबकि “मोहिनी” को अमेरिकी अरबपति जॉन क्लुग ने वाशिंग्टन के चिड़ियाघर के लिये दस हज़ार डॉलर में ख़रीद लिया। ये क्लुग का अमेरिकी बच्चों के लिए तोहफ़ा था। सुकेशी गोविंदगढ़ महल में मोहन की संगिनी के रुप में उसी जगह रही जहां वह पैदा हुई थी। आज पूरे विश्व में सफ़ेद बाघों का वंश मोहन से ही जोड़कर देखा जाता है। मौत के बाद मोहन की खाल में भूसा भरकर, उसे मोहन की शक्ल में ही, नुमाइश के लिए बघेल संग्रहालय में रखा गया है।
बांधवगढ़ में अवैध शिकार और जीव जंतुओं की गिरती संख्या से दुखी होकर, सन 1968 में मार्तंड सिंह ने पूरा क्षेत्र यानी अपनी निजी संपत्ति पार्कलैंड के लिए राज्य सरकार को दान कर दी । इसके बाद ही बांधवगढ़ नैशनल पार्क अस्तित्व में आया। महाराजा मार्तंड सिंह का सन 1995 में निधन हो गया था। अपने जीवन के अंत तक वह गोविंदगढ़ महल में ही रहे। उनकी मृत्यु के बाद महल पर ताला लगा दिया गया और तब से ये वीरान है।
आज रीवा के सफ़ेद बाघ पूरे विश्व में मशबूर हैं लेकिन जहां ये पैदा हुए थे यानी गोविंदगढ़ महल आज वीरान और उजाड़ है। मध्य प्रदेश सरकार यहां फ़िल्म शूटिंग को बढ़ावा देकर इसे लोकप्रिय बनाने की कोशिश कर रही है। इसे धरोहर होटल के रुप में विकसित करने की भी बात हो रही है। गोविंदगढ़ महल अपनी क़िस्मत खुलने का इंतज़ार कर रहा है।
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