पश्चिम बंगाल के कूच बिहार ज़िले में हर साल हज़ारो सैलानी आते हैं। ज़्यादातर सैलानी पैलेस म्यूज़ियम देखने जाते हैं जहां कभी कूच बिहार रियासत के शासक रहा करते थे। कम ही सैलानी गोसानीमारी गांव जाते हैं जो यहां से दक्षिण-पश्चिम दिशा में 33 कि.मी. दूर है। गोसानीमारी में पश्चिम बंगाल के बचे हुए कुछ क़िलों में से मौजूद एक है, जिसके साथ एक दिलचस्प इतिहास जुड़ा हुआ है।
पश्चिम बंगाल के इस हिस्से का उल्लेख रामायण और महाभारत में मिलता है जहां कहा गया है कि इस क्षेत्र में कम्बोज, किरात, सावर और मूतिव जनजातियां रहा करते थीं। इतिहासकारों के अनुसार किरात के वंशजों को बाद में कोच साम्राज्य के कोच के रुप में जाना जाता था। कोच बिहार की स्थापना सन 1586 में हुई थी और इसका वजूद सन 1949 तक था। बाद में नाम का अंग्रेज़ीकरण होकर ये कूच बिहार हो गया।
कूच बिहार की स्थापना के पहले इस क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक केंद्र कामतापुर साम्राज्य हुआ करता था। इसकी स्थापना सन 1257 में हुई थी जब कामरुपनगर (मौजूदा समय में असम) के शासक संध्या ने यहां अपनी राजधानी बनाई थी जो आज पश्चिम बंगाल में है। क़रीब सन 1257 में दिल्ली के ममलूक शासकों के बंगाल में गौर के गवर्नर मलिक इख़्तियारउद्दीन लुज़बक ने संध्या पर हमला बोला। हालंकि संध्या ने लुज़बक को हराकर उसकी हत्या कर दी और अपनी राजधानी बदल दी। अंतिम शासक सिंहध्वज का तख़्ता उसके मंत्री प्रतापध्वज ने पलट दिया था।
सन 1325 में जब प्रतापध्वज की मृत्यु हुई तब उसके चचेरे भाई धर्मनारायण ने सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया जिसे प्रतापध्वज के पुत्र दुर्लभनारायण ने चुनौती दी। लेकिन दोनों के बीच समझौता हो गया जिसके तहत साम्राज्य का बंटवारा हो गया।
कामतापुर, कामरुप, गोलपाड़ा, जलपाईगुड़ी और आधुनिक कूच बिहार के अन्य क्षेत्र दुर्लभनारायण के हिस्से में गए जिसके वंशजों का इस क्षेत्र पर सन 1365 तक शासन चलता रहा। उस समय, सन 1362 में अंतिम राजा इंद्र नारायण का साम्राज्य, बंगाल के सुल्तान सिकंदर शाह (सन 1358-1390) के हमले की वजह से कमज़ोर हो गया था। इस कमज़ोरी का फ़ायदा उठाकर ख़्यान अथवा खेन नामक तिब्बत के बर्मन राजवंश ने सत्ता हथिया ली।
लोक-कथाओं के अनुसार खेन राजवंश की पृष्ठभूमि बहुत साधारण थी। खेन क़बीले का युवा कांता नाथ चरवाहा था। उसके माता-पिता ने उसे बचपन में ही त्याग दिया था। एक दोपहर जब उसका मालिक उसे ढूंढ़ने निकला तो उसने उसे एक पेड़ के नीचे सोता पाया और एक कोबरा सांप फन फैलाकर उसे धूप से बचा रहा था। मालिक को तभी लगा कि ये बच्चा एक बड़ा आदमी बनने वाला है और उसने उसे पशु चराने के काम से मुक्त कर दिया। सन 1440 में जब कांता नाथ राजा बना, उसने अपना नाम नीलध्वज रख लिया और उसने मालिक को अपना मंत्री बना दिया।
ये नीलध्वज ही था जिसने गोसानीमारी में क़िला बनवाने का काम शुरु किया था।
हरेंद्र नारायण चौधरी ने “द कूच बिहार स्टेट एंड इट्स लैंड रेवेन्यू सैटलमेंट (1903)” में लिखा है कि क़िले की दो दीवारे होती थीं, बाहर की दीवार मिट्टी की जबकि अंदर की दीवार ईंटों की बनी हुई थी। दोनों दीवारों के बीच एक खाई थी। शाही परिवार की कुल देवी कामेतश्वरी की पूजा के लिए क़िले के अंदर एक मंदिर बनाया गया था। नीलध्वज के बाद उसका पुत्र चक्रध्वज ( सन 1460-1480) ने सत्ता संभाली और फिर उसके बाद उसके पुत्र नीलांबर ने सन 1480 में सत्ता संभाली।
चौधरी के अनुसार नीलांबर की पांच पत्नियां थीं लेकिन वह अपनी सबसे छोटी रानी वनमाला से ज़्यादा प्रेम करता था । वनमाला के, राजा के मंत्री सासी पात्रा के पुत्र मनोहर से संबंध थे। इस बात का पता चलने पर नीलांबर आगबबूला हो गया और उसने मनोहर को वनमाला के शयनकक्ष से निकलते समय पकड़ लिया।
इसके बाद नीलांबर ने मनोहर को मौत के घाट उतार दिया और उसके शरीर के टुकड़े टुकड़े करवा दिए। फिर उसने वनमाला से इसका मांस पकाने के लिए कहा। एक भव्य समारोह में वही पका हुआ मांस सासी पात्रा को परोसा गया । जब मंत्री का पेट भर गया तब नीलांबर ने उसे बताया कि वह मनोहर का मांस था। सासी पात्रा दुख और दहशत में कामतापुर से चला गया और उसने बदला लेने की सौगंध खाई। वह बंगाल की राजधानी गौर पहुंचा और सुल्तान अलाउद्दीन हुसैन शाह (सन 1493-1519) से शिकायत की।
अलाउद्दीन हुसैन शाह को इस पूरे मामले में नीलांबर के साम्राज्य पर हमला करने का एक अच्छा अवसर दिखाई दिया। अलाउद्दीन हुसैन शाह के पहले बंगाल पर हब्शी सुल्तानों का, छोटी छोटी अवधि तक शासन होता था और ये अराजकता का दौर था। इसका फ़ायदा उठाते हुए खेन ने अपना साम्राज्य बंगाल तक फैला लिया था और दो साम्राज्यों के बीच के क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था। 24 हज़ार घुड़सवारों की सेना और पैदल सेना तथा जहाज़ी बेड़ों ने कामतापुर पर हमले के लिए कूच किया। लेकिन गोसानीमारी का क़िला बहुत मज़बूत और सुरक्षित था। जब क़िले में घुसना संभव नहीं हो सका तो अलाउद्दीन हुसैन शाह की सेना ने क़िले की घेरा बंदी कर दी।
अगर लोक-कथाओं पर विश्वास किया जाए तो क़िले की घेराबंदी बारह साल तक चली जिसका अंत ठीक उसी तरह के छल कपट से हुआ जैसा यूनानी और उनके ट्रोजन हॉर्स (शत्रुओं का गुप्त रुप से विनाश करने के लिए प्रयोग की जाने वाली वस्तु या व्यक्ति) करते थे। अलाउद्दीन हुसैन शाह ने नीलांबर के पास एक संदेश भेजा और कहा कि चूंकि घेराबंदी का कोई मतलब नहीं रह गया है इसलिए वह हार मानकर वापस बंगाल जा रहा है। अलाउद्दीन हुसैन शाह ने आग्रह किया कि बंगाल रवाना होने से पहले वह चाहता है कि उसकी पत्नियों को कामतापुर की रानियों से मिलने का मौक़ा दिया जए। नीलांबर को इसमें कुछ भी ग़लत नहीं लगा और उसने इसकी इजाज़त दे दी। लेकिन अलाउद्दीन हुसैन शाह ने अपनी रानियां को भेजने के बजाय पालकी में सैनिक भेज दिए। पालकी जैसे ही क़िले में दाख़िल हुई, उसमें से सैनिक बाहर निकले और उन्होंने सुरक्षाकर्मियों की हत्या कर सुल्तान की सेना के लिए क़िले के दरवाज़े खोल दिए।
इसके बाद क़िले पर कब्ज़ा कर वहां लूटपाट की गई। कामतापुर की रानियों ने, पकड़े जाने से पहले ही आत्महत्या कर ली । उस समय में यही परंपरा थी। कहा जाता है कि नीलांबर को पकड़ने के बाद पिंजरे में बंद करके गौर ले जाया गया। रास्ते में नीलांबर ने नहाने की इच्छा व्यक्त की और उसे एक बड़े तालाब पर ले जाया गया। नीलांबर ने पानी में डुबकी लगाई और फिर कभी बाहर नहीं निकला। कहा जाता है कि उसने या तो आत्महत्या कर ली थी या फिर उसे मगरमच्छ खा गए थे। सन 1498 में नीलांबर की मृत्यु के साथ ही कामतापुर साम्राज्य का अस्तित्व भी समाप्त हो गया।
गौर वापस आने के पहले अलाउद्दीन हुसैन शाह ने अपने पुत्र को नीलांबर के क्षेत्रों का सूबेदार बना दिया। इस क्षेत्र में तैनात सल्तनत की सेना ने फिर अहोम क्षेत्रों पर हमला किया लेकिन इसका उल्टा असर पड़ा। अहोम पहाड़ों में अपने मज़बूत गढ़ों में चले गए और बारिश के मौसम की प्रतीक्षा करने लगे। बारिश से जैसे ही सड़कों पर कीचड़ हो गई, उन्होंने सल्तनत की सेना पर हमला कर उनकी सप्लाई लाइन काट दी जिसकी वजह से अलाउद्दीन हुसैन शाह की सेना को पीछे हटना पड़ा। इसके बाद अराजकता का दौर शुरु हुआ और फिर विश्व सिंह ने कोच बिहार की स्थापना की जिस पर उसने सन 1515 से लेकर सन 1540 तक शासन किया। उसी के बाद, विश्व सिंह ने सन 1515 में कोच राजनीतिक सत्ता की स्थापना की।
इस बीच गोसानीमारी क़िला वीरान हो गया और समय की आंधी में खो गया। क़िला मिट्टी के ढेर में दब गया जिसे राजपाट कहा जाता था। माना जाता है कि राजपाट बंगाली शब्द राजप्रसाद या रॉयल पैलेस (शाही महल) का अपभ्रंश था। मिट्टी के टीले का पहली बार निरीक्षण स्कॉटलैंड के डॉक्टर और भू-वैज्ञानिक डॉ. फ्रांसिस बुकानन हैमिल्टन ने सन 1808 में किया था। सन 1998 और सन 2000 के बीच भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने दो बार खुदाई करवाई और क़िले की दीवारों, दो बड़े कुएं, कई मूर्तियां और बर्तन खोज निकाले। ज़्यादातर कलाकृतियां क़िले के पास एक संग्रहालय में रखी हुई हैं।
उत्तर बंगाल में ऐतिहासिक भवनों के अवशेष की खोज अब तक नहीं हो पाई है। कहा जाता है कि कामतापुर साम्राज्य की राजधानी कई बार बदली गई थी और हर स्थान में ऐसे ऐतिहासिक भवनों के अवशेष हैं जिन्हें अभी तक खोजा नहीं गया है। ऐसा ही एक क़िला है नोल राजर गढ़ या “नोल किंग फ़ोर्ट” । ये क़िला चिलपता आरक्षित वन के पास स्थित है। बड़े भू-भाग में फैले इस क़िले को संरक्षित करने या इसके बारे में और जानकारियां हासिल करने के लिए कुछ ख़ास नहीं किया गया है।
बंगाल राज्य पुरातत्व विभाग के पी.सी. दासगुप्ता, डी.के. चक्रवर्ती और एस.सी. मुखर्जी ने सन 1966-67 में क़रीब 1.9 स्क्वैयर कि.मी. में फैले क़िले परिसर की खोज की थी और इसके दस्तावेज़ तैयार किए थे। ये क़िला घने जंगल में छुपा हुआ था जिसके चारों तरफ़ एक खाई थी। क़िले की कुछ दीवारें अभी भी 7.5 मीटर ऊंची हैं।
दीवारों के भीतर पुरातत्वविदों को कई भट्टियां, एक बड़ी नहर और एक मंदिर परिसर के अवशेष मिले। भट्टियों का प्रयोग शायद धातु पिघलाने के लिए किया जाता होगा। पुरातत्वविदों का अनुमान है कि क़िला शायद गुप्त-काल (चौथी और छठी सदी) का रहा होगा जबकि लगता है कि मंदिर बंगाल के पाल राजवंश (8वीं से 12वीं सदी) के समय का है। पुरातत्वविद, दीवारें बनाने में इस्तेमाल की गईं ईंटों तथा मंदिर बनाने में इस्तेमाल किए गए पत्थरों की जांच पड़ताल के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं।
विशाल और आयाताकार परिसर का ज़्यादातर हिस्सा झाड़-झंखाड़ में दबा पड़ा है और सिर्फ़ एक दीवार और मेहराबदार प्रवेश-द्वार ही नज़र आता है। पता नहीं घनी झाड़ियों और मिट्टी के टीलों के नीचे क्या कुछ दबा पड़ा हो।
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