सिन्नर, नासिक और शिर्डी दोनो स्थानों के पास है और दोनों ही स्थानों की आधुनिकता तथा अध्यात्म की एक समृद्ध परंपरा रही है । वो लोग जो इतिहास के बारे में जानना चाहते हैं, उनके लिये यहां बहुत कुछ है।
हमारी कहानी आपके शहर में दाख़िल होते ही शुरु हो जाती है। यहां एक से एक ऐतिहासिक नगीने हैं और इनमें से एक है शिव मंदिर। स्थानीय लोग ने इसका नाम गोंदेश्वर रखा है । मंदिर परिसर की देखरेख भारतीय पुरातत्व विभाग की औरंगाबाद शाखा करती है। यहां शिव के अलावा आसपास के मंदिरों में अन्य देवी-देवताओं की भी पूजा होती है।मंदिर परिसर में क़दम रखते ही इतिहास, वास्तुकला और धार्मिक आस्था जीवंत हो उठती है । तो चलिये एक नज़र डालते हैं इसके इतिहास पर ।
शहर का इतिहास सेऊना यादवों के शिला-लेखों से मिलता है जिन्होंने 9वीं शताब्दी में उत्तर महाराष्ट्र में अपना शासन स्थापित किया था। उनकी राजधानी सिन्नर हुआ करती थी। सेऊना चंद्र प्रथम (835-860) को कई इतिहासकार सेऊना राजवंश का पहला शासक और शहर का संस्थापक मानते हैं।
अनुदान से संबंधित तांबे की प्लेट संगमनर और कलस बुद्रक में इसका उल्लेख सिंदीनगरा नाम से है। ये अनुदान यादव शासक भिल्लमा द्वतीय (970-1005) और भिल्लमा तृतीय ने दिये थे।एक शिला-लेख में छोटी नदी सरस्वती का उल्लेख देवनदी के रुप में है जहां ये शहर स्थापित है। शहर का इतिहास नासिक क्षेत्र के इतिहास से जुड़ा हुआ है। शहर को अगर उसके राजनीतिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य से देखें तो ये बहुत दिलचस्प लगता है।
सेऊना चंद्र के बाद ढ़ाडियाप्पा प्रथम, भिल्लमा प्रथम और राजुगी आए लेकिन इनके बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। बहरहाल इनके बाद वड्डिगा प्रथम (935-970) का शासन आया जिसने राष्ट्रकुट राजा कृष्ण तृतीय के भाई ढ़ोरप्पा महानरपा की बेटी से शादी की थी।
सन 970 में भिल्लम द्वतीय के राज्याभिषेक के बाद दक्कन की राजनीति में भारी बदलाव आया। सन 968 में राष्ट्रकुट शासक कृष्ण तृतीय की मृत्यु के बाद इस राजवंश का राजनीतिक सितारा डूब गया और उनकी जगह कल्याणी (मौजूदा समय में उत्तर कर्नाटक में बसव कल्याण) के चालुक्य शासकों ने ले ली। उनकी जगह लेने वाला पहला चालुक्य राजा तैला द्वतीय था।
भिल्लम द्वतीय ने चालुक्य शासक का आधिपत्य स्वीकार कर परमार राजा मुंजा की सेना को खदेड़ने में मुख्य भूमिका निभाई। तब सेऊनादेस के उत्तरी प्रांत (नासिक और अहमदनगर ज़िले) पर परमार राजा मुंजा का शासन हुआ करता था।
भिल्लम की रानी और उत्तर कोंकण के शिलहारा राजा झंझा की पुत्री लक्ष्मी ने सन 1010 में अपने पुत्र और उत्तराधिकारी वसुगी तृतीय के असमायिक निधन के कारण राजपाट की ज़िम्मेदारी संभाल ली। उन्होंने राज्य संरक्षक की तरह काम किया क्योंकि उनका पोता भिल्लम तृतीय उस समय नाबालिग़ था।
भिल्लम तृतीय ने भी चालुक्य राजा सोमेश्वर प्रथम के मातहत ही काम किया और उनकी बेटी अव्वलादेवी से विवाह किया। यादव शासकों को अपनी सीमाओं का एहसास था इसलिये उन्होंने अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिये चालुक्य घरानों में शादी-ब्याह किया।
भिल्लम पंचम (1173-1192) के राज्याभिषेक तक सिन्नर भावी साम्राज्य तक राजधानी बनी रही। सिन्नर नासिक में व्यापार केंद्र के क़रीब था और शहर का समुद्र तटों से गहरा संबंध था। शायद इसीलिये सिन्नर सत्ता का केंद्र बना रहा। भिल्लम का राज्याभिषेक ऐसे समय में हुआ जब कल्याणी चालुक्य साम्राज्य पतन की ओर था। एक तरफ़ जहां चालुक्य साम्राज्य की जड़ें कमज़ोर हो रही थीं, वहीं इस क्षेत्र में कोई शक्तिशाली राजा नहीं था। इस स्थिति का फ़ायदा उठाकर यादव शासक ने ख़ुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया।
यादव शासक का शासन अब उत्तर महाराष्ट्र और पूर्वी महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों तक फैल गया था। इनमें मौजूदा समय का औरंगाबाद ज़िला भी शामिल था। 1259 से 1274 के दौरान यादव शासक महादेव और रामचंद्र के मंत्री रहे हेमाद्री पंडित ने चतुरवर्ग चिंतामणी में लिखा है कि देवगिरी (दौलताबाद) शहर भिल्लम पंचम ने बनवाया था।
भिल्लम पंचम ने अपना सत्ता केंद्र देवगिरी शिफ़्ट कर लिया था क्योंकि सामरिक दृष्टि से ये स्थान सिन्नर से कहीं बेहतर था। उसने यहां पहाड़ी पर किलेबंद शहर बनाया था जिसकी दीवारे नीचे की तरफ झुकी हुई थीं जिसकी वजह से दुश्मनों के लिये शहर पर हमला करना मुश्किल होता था। इसके अलावा ये स्थान व्यापारिक केंद्र पैठन और तर के नज़दीक था जिससे इस क्षेत्र में यादवों के लिये व्यापार पर नियंत्रण करना आसान हो गया था।
यादव राजवंश के बाद के शासकों के दौर में यादव साम्राज्य ने सबसे सुनहरा समय देखा। इस दौर में न सिर्फ़ उनका साम्रज्य फैला बल्कि व्यापारिक गतिविधियां भी बढ़ीं। यादवों का सुनहरा काल तब ख़त्म हुआ जब दिल्ली के भावी सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी ने तीन हज़ार घुड़सवारों और दो हज़ार पैदल सैनिकों के साथ 26 फ़रवरी सन 1296 को देवगिरी पर हमला बोल दिया।
हमले के समय यादव शासक रामचंद्र (1271-1312) अपनी सेना के साथ शहर के बाहर वरंगल के ककातिया से लड़ रहा था और ऐसे समय में उसने अलाउद्दीन ख़िलजी की शर्तें मानकर आत्मसमर्पण करने में ही अक़्लमंदी समझी।
भावी सुल्तान काफ़ी दौलत लेकर दिल्ली वापस आया और इसके बाद से ही दक्कन की राजनीति में यादवों का दख़ल ख़त्म हो गया। यादवों के शासनकाल में मज़बूत अर्थव्यवस्था में कृषि और उत्पादन के अलावा व्यापार की भी अहम भूमिका रही। उस समय नासिक इस क्षेत्र के व्यापारिक गढ़ के रुप में पहले से स्थापित था और मगध के मौर्य, सातवाहनों से लेकर कल्याणी चालुक्य शासकों ,सभी ने इसके महत्व को समझा था क्योंकि ये कोंकण तटों पर बंदरगाहों के क़रीब था।
इस शहर का उल्लेख पांडु लेना (नासिक शहर के बाहर) में गुफाओं में मिले शिला-लेखों और यूनानी भू-वैज्ञानिक टालेमी की किताब में मिलता है। टालेमी ने लिखा है कि 200 ई.पू. और 200 ई. के दौरान ये शहर व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। तीसरी सदी की साहित्यिक कृति ‘पेरीप्लस ऑफ़ द् एरीथ्रियन सी’के अज्ञात लेखक ने बेरीगाजा (मौजूदा समय में गुजरात का भारुच शहर) बंदरगाह शहर का उल्लेख किया है जहां से माल असबाब का आयात-निर्यात होता था। यहां से माल पैठन (औरंगाबाद ज़िला) और टागर (उस्मानाबाद ज़िले में टर) भेजा जाता था। शायद इस तरह की व्यापारिक गतिविधियां नासिक ज़िले में भी होती थीं।
सोपाड़ा बंदरगाह (ठाणे ज़िला) से 112वीं शताब्दी के अंत तक व्यापार होता रहा। यहां से सामान विदेशों में भी निर्यात किया जाता था। तटीय शहरों से लेकर आंतरिक इलाक़ों तक माल लाने लेजाना में ठाणे बंदरगाह की बड़ी भूमिका थी। नासिक चूंकि थाल दर्रे जिसे कसारा घाट भी कहा जाता था, के पास था इसलिये भी वह व्यापार का मुख्य केंद्र बन गया था।
चंदोर दर्रे (मौजूदा समय में चांदवाड़) के ज़रिये पैठन और टर जैसे पूर्वी शहरों में भी व्यापार होता था। सिन्नर अंतर्रदेशी व्यापार नेटवर्क का हिस्सा था। ये नेटवर्क नासिक से शुरु होता था और संगमनर से होता हुआ पुणे तक जाता था।
यादव शासकों ने उत्तर कोंकण के सिल्हारा राजवंश के राजाओं के साथ दोस्ती कर ली थी और इस वजह से वे ठाणे बंदरगाह का इस्तेमाल व्यापार के लिये करते थे। वे यहां से अरबी घोड़ों, रेशम औऱ कपास का निर्यात करते थे।
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