शाहजहानाबाद की सकरी गलियों से गुज़रते हुए आप पहाड़ी इमली इलाक़े में पहुंचते हैं। इस इलाक़े की आपाधापी से एकदम बेख़बर एक मकान है जो मिर्ज़ा सिकंदर बेग चंगेज़ी का है। यूं तो ये मकान बाहर से दूसरे मकानों की तरह अलग थलग नज़र नहीं आता लेकिन भीतर जाते ही आप किसी और ही दुनिया में पहुंच जाते हैं, बिल्कुल अलीबाबा की गुफा की तरह।
सन 1890 के इस मकान में आपको सुसज्जित ताक़, ऊंची छतें और औपनिवेशिक मेहराबें नज़र आएंगी। दरअसल एक तरह से ये मकान चंगेज़ी परिवार के एक सौ बीस साल के इतिहास का गवाह है। यहां कंपनी युग की पेंटिंग की कॉपियां, मध्ययुगीन भारतीय सिक्के, कलाकृतियां, सोने में जड़े क़ुरआन और हाथ की लिखी भागवत गीता के अलावा और भी कई बहुमूल्य घरोहर हैं। आज इन धरोहरों के रखवाले 64 वर्षीय मिर्ज़ा सिकंदर चंगेज़ी हैं।
इन ऐतिहासिक धरोहरों को दिखाते हुए मिर्ज़ा सिकंदर चंगेज़ी ने अपनी वंशावली के बारे में भी कछ दिलचस्प बातें बताईं। परिवार ख़ुद को महान या कहें सबसे क्रूर मंगोल शासक चंगेज़ ख़ां का वंशज होने का दावा करता है। हाथ के लिखे ख़ानदानी शिजरे (वंश-वृक्ष) के अनुसार मिर्ज़ा सिकंदर चंगेज़ी 24वें वंशज हैं। इसी तरह पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय फ़ख़रुद्दीन अली अहमद के चचेरे भाई ख़ुसरो मिर्ज़ा दहलवी के बनाये गये सौ साल पुराने वंश-वृक्ष में चंगेज़ी खानदान के नाम का ज़िक्र है। इस वंश-वृक्ष में लोहारु और भोपाल सहित ऐसी सात रियासतों का ज़िक्र है जिनके बीच सबंध शादी-ब्याह से बने थे।
मिर्ज़ा सिकंदर चंगेज़ी ने अपने परिवार के इतिहास के बारे में कई दिलचस्प क़िस्से सुनाये ।उन्होंने ये भी बताया कि वो लोग कैसे दिल्ली पहुंचे । मुग़ल बादशाह अकबर के शासनकाल में चंगेज़ी खानदान के पितामह जानी खान को हार का मुंह देखना पड़ा था।जानी खान चंगेज़ी तब सिंध पर शासन करता था। हार के बाद मुग़ल शासन ने उनकी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लिया लेकिन चंगेज़ी परिवार का आगरा में सम्मान के साथ स्वागत किया गया और उन्हें जीवन यापन के लिये जागीरें भी दी गईं। मुग़लों की राजधानी जब दिल्ली आ गई तो चंगेज़ी भी शाहजाहां के साथ दिल्ली आ गए। उसके बाद ही आज का शाहजानाबाद उनका ठिकाना बन गया।
सन 1857 के ग़दर के दौरान सिकंदर चंगेज़ी के परदादा मिर्ज़ा शाहबाज़ बेग ख़ां बहादुर हिसार (तब पंजाब प्रांत का हिस्सा) के डेप्यूटी कलैक्टर होते थे। लेखक और राअना सफ़ी ने “शाहजानाबाद, द् लिविंग सिटी ऑफ़ देहली” में लिखा है कि ग़दर के बाद मिर्ज़ा शाहबाज़ बेग ख़ां बहादुर इंक़िलाबियों से जा मिले और सारा ख़ज़ाना उनके हवाले कर दिया। अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के अव्हान पर वह अपने सहायक राम सिंह के साथ दिल्ली पहुंच गए और अंग्रेज़ सेना के ख़िलाफ़ लड़ाई में शामिल हो गए। सन 1857 के ग़दर में हिस्सा लेने की वजह से उन्हें मौत की सज़ा सुनाई गई जिसे बाद में आजन्म कारावास में बदल दिया गया। पंजाब में उनके क़रीब 50 गांवों सहित सारी संपत्ति ज़ब्त कर ली गई। इस फ़ैसले की कॉपी आज भी चंगेज़ी अभिलेखागार में सुरक्षित है जबकि मौलिक दस्तावेज़ भारतीय राष्ट्रीय संग्रहालय में मौजूद है।
ख़ुशक़िस्मती से उनके पुत्र मिर्ज़ा सोहराब बेग चंगेज़ी ने बेशक़ीमती धरोहर को संभालकर रख लिया जो अलवर रियासत के तहसिलदार थे। मौजूदा मकान मिर्ज़ा सिकंदर के दादा ने बनवाया था जो डाक तार विभाग में नौकरी करते थे। इस मकान में सन 1910 में मिर्ज़ा नसीम का जन्म हुआ था जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाई थी।
मिर्ज़ा नसीम ने पुरानी दिल्ली के एंग्लो-अरेबिक कॉलेज से पढ़ाई की थी। वह 14 साल की उम्र मे ख़िलाफ़त आंदोलन से जुड़ गए थे। सन 1929 में उनकी मुलाक़ात भगत सिंह से हुई जब वह असैम्बली में बम फेंकने के इरादे से दिल्ली आए थे। एक बार वो पड़ौसी दयाराम के कहने पर भगत सिंह के लिये नाश्ता लेकर गए थे जो अपना नाम बदलकर वहा रह रहे थे। मिर्ज़ा नसीम को पढ़ने का शौक़ था और वह हॉकी खेलते थे। सन 1945 में वह इंडिपेंडेंट स्पोर्ट्स क्लब की टीम के साथ हॉकी चैंपियनशिप में खेलने के लिए अफ़ग़ानिस्तान गए थे और जहां उनकी टीम ने “ख़ाकां ज़ादा आग़ा” ट्रॉफ़ी जीती थी। उस समय ज़ाहिर शाह का अफ़ग़ानिस्तान पर शासन था जो उदार शासक बाने जाते थे।
जब दिल्ली देश विभाजन का दंश झेल रही थी और लोग शहर छोड़कर जा रहे थे, मिर्ज़ा नसीम ने न सिर्फ़ दिल्ली के इस इलाक़े को छोड़ने से मना कर दिया था बल्कि राहत कार्य में जुट गये थे। जब कुछ दोस्तों ने उन्हें यहां से जाने की सलाह दी तो उन्होंने पूछा था, “क्या तुम क़ुतुब मीनार, लाल क़िला, हज़रत निज़ामुद्दीन दरगाह और मेरे शहर की तहज़ीब को कराची ले जा सकते हो?” मार्च 2016 में दिल्ली सरकार ने , दिल्ली के सबसे उम्र दराज़ शख़्स और स्वत्त्रता सैनानी के रुप में उनको सम्मानित किया था। इस मौक़े पर उन्होंने सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु की प्रतिमा का अनावरण भी किया। मिर्ज़ा नसीम को इतिहास में बहुत दिलचस्पी रही थी । उन्होंने शायद इसीलिये तमाम विरासत संजो कर रखी। उन्होंने अपने लेखन के ज़रिये इस विरासत में फ़ारसी, ऊर्दू, हिंदी और ससंकृत को भी जोड़ा। उनके बारे में कई भारतीय और विदेशी अख़बारों ने लिखा है। मिर्ज़ा नसीम का 108 साल की उम्र में 12 अप्रेल 2018 में निधन हो गया।
मिर्ज़ा शाहबाज़ जंग बहादुर से लेकर मिर्ज़ा सिकंदर चंगेज़ तक ये परिवार चंगेज़ी धरोहर को संभलाता आया है जिसे सदियों का ख़ज़ाना माना जा सकता है। लेकिन बग़ावत और विभाजन के दौरान धरोहर का एक बड़ा हिस्सा बरबाद हो गया या नष्ट हो गया। बची रह गई धरोहर में, एक 18वीं शताब्दी का, चांदी का एक हुक्क़ा है जिस पर सुंदर नक़्क़ाशी क् साथ परिंदे बने हुए हैं। इसके अलावा मिट्टी के दो ईरानी कटोरे हैं जो 15वीं शताब्दी के हैं। एक कटोरे के एक हिस्से पर घोड़े पर चढ़ते सैनिकों का चित्र अंकित है जबकि बाक़ी हिस्सों पर कुफ़िक लिपि में नीले रंग में अरबी में लिखा हुआ है। दूसरे कटोरे पर फूल बने हुए हैं और अरबी में सुलेख है जो लाल और काले रंग में है। इस तरह के बर्तन 9वीं और 10वीं शताब्दी में निशापुर में बनाये जाते थे। इनके पास तुग़लक, ख़िलजी, सय्यद. लोदी और मुग़ल ज़माने के सिक्के भी हैं।
पांडुलिपियों और दस्तावेज़ों में समृद्ध विविधता दिखाई पड़ती है। तैमूर से लेकर बहादुर शाह ज़फ़र तक का बीस फुट लंबा ख़ानदानी शिजरा (वंश-वृक्ष) हाथ से बनाये काग़ज़ का है जो चावल से बनाया गया है। इसके किनारों पर फूलों का सुंदर पैटर्न है। 19वीं शताब्दी के शाही ख़ानदानी शिजरे में, अरबी भाषा में ख़ुतबा भी लिखा है। औरंगज़ेब के समय की सोने के नक़्क़ाशी वाले क़ुरान के अंतिम पन्ने पर कातिब (सुलेखक) का नाम और तारीख़ भी लिखी हुई है। दो सदियों पुरानी संस्कृत में हस्तलिखित भागवत गीता की कॉपी उनके पर दादा लेकर आए थे जो संस्कृत जानते थे। इसके अलावा मुसलमानों, ईसाईयों और यहूदियों के सभी पैग़ंबरों का वंश-वृक्ष भी है जो अरबी बाषा में लिखा हुआ है। इस वंश-वक्ष की लंबाई 26 फुट है।
ऐसा दावा किया जाता है कि वंश-वृक्ष की मौलिक कॉपी एक हज़ार साल पुरानी है और ये सउदी अरब में मदीना म्यूज़ियम में रखी है। इस पूरे उपमहाद्वीप में इसकी एक मात्र कापी दिल्ली मे चंगेज़ी परिवार के पास सुरक्षित है। पुरानी दिल्ली के निवासी मुंशी श्रीराम ने महाभारत का उर्दू में अनूवाद किया था । यह किताब सन 1896 में मेरठ से छापी गई थी। इस तरह के और भी दस्तावेज़ यहां मौजूद हैं। इस मे से कई दस्तावेज़ों के संबंध चंगेज़ी परिवार के इतिहास से हे
मिर्ज़ा सिकंदर चंगेज़ी, दो हज़ार से ज़्यादा किताबें, क़रीब की ही वलीउल्लाह लायब्रेरी को भेंट कर चुके हैं। यह लायब्रेरी दिल्ली यूथ वेल्फेयर एसोसिएशन ने 1994 में स्थापित की थी। समय के उतार चढ़ाव के साथ चंगेज़ी परिवार अपनी जागीरें, संपत्ति और हवेलियां खो चुका है, लेकिन पूरा चंगेज़ी परिवार पिछली दो सदियों से अपनी ख़ानदानी धरोहर को बचाये रखने की जद्दोजहद में लगा हुआ है ताकि उनकी अगली पीढ़ियां भी, अपने ख़ानदानी इतिहास से जुड़ी रहें।
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