केरल में मौजूदा ज़िले एर्नाकुलम में फ़ोर्ट कोच्चि का ऐतिहासिक महत्व है। क़िले की स्थापना के बाद से यहां वाणिज्य, संस्कृति, और समुदाय सात सौ वर्षों से एक साथ फले-फूले हैं। यह वही स्थान है, जहां वास्को डी गामा चौदह साल तक दफ़न था। यहां दुनिया के कुछ सबसे पुराने ईसाई तथा यहूदी धर्म-स्थल हैं। यहां की गलियों से गुज़रना, 500-600 साल पुराने इतिहास से होकर गुज़रने की तरह है। लेकिन इस क्षेत्र के बारे में जो सबसे दिलचस्प बात है, वो ये कि इस ऐतिहासिक परिसर ने ख़ुद को फिर से स्थापित किया है।अब यहां विश्व प्रसिद्ध कोच्चि बायनेल उत्सव मनाया जाता है, जो दो साल में एक बार आयोजित होता है। इस उत्सव में दुनिया भर से लोग आते हैं। फ़ोर्ट कोच्चि की कहानी भारत के समुद्री व्यापार की भी कहानी है।
शुरु में ये एक छोटा-सा गांव हुआ करता था, लेकिन यहां की प्रकृति और यहां रहने वाले लोगों की वजह से फ़ोर्ट कोच्चि व्यापार, शिल्प और मज़हबों का केंद्र बना। किसी ज़माने में चीन से लेकर इंग्लैंड तक से आये मेहमानों के प्रभाव को आज भी यहां देखा जा सकता है।
फ़ोर्ट कोच्चि के आरंभिक इतिहास के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है। इसका पहला उल्लेख 14वीं और 15वीं शताब्दी के दस्तावेंज़ों में मिलता है। ये उस समय भी आबाद था,जब केरल को छोटे साम्राज्यों में विभाजित किया जा रहा था, और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार इस क्षेत्र के इतिहास को गढ़ रहा था।
स्थानीय परंपराओं के अनुसार, छठी शताब्दी में केरल के अंतिम राजा, जिन्हें पेरुमल या चेरामन पेरुमल के नाम से जाना जाता था। पेरूमल ने अपने राज्य को अपने प्रमुख दरबारियों और रिश्तेदारों में बांटकर सत्ता त्याग दी थी। इस तरह पेरुम्पदप्पु गांव (अब मलप्पुरम ज़िले में) में पेरुम्पदप्पु स्वरूपम साम्राज्य अस्तित्व में आया। यह वह समय था, जब मालाबार तट पर व्यापार बढ़ रहा था, और फ़िनिशन (मौजूदा समय में लेबनान और सीरिया तथा इस्राइल के कुछ हिस्से) से व्यापारी कारोबार के सिलसिले में यहां आते थे। बाद में सीरिया, यूनान-रोम और अरब देशों से भी व्यापारी आने लगे थे।
इस बीच पड़ोस के कोझिकोड के ज़मोरिन राजवंश ने अपना प्रभाव बढ़ाना शुरु कर दिया। उन्होंने 13वीं शताब्दी के अंत में पेरुम्पदप्पु स्वरूपम पर कब्ज़ा कर लिया। इस हार के बाद पेरुम्पदप्पु स्वरूपम के शासक को अपनी राजधानी महोदयापुरम (वर्तमान में कोडनगल्लूर, त्रिशूर ज़िला) में स्थानांतरित करनी पड़ी, जो भारत के पश्चिमी तट पर स्थित प्रसिद्ध व्यापारिक बंदरगाहों में से एक था।
लेकिन कोडनगल्लूर के सुनहरे दिन तब समाप्त हो गए, जब सन 1341 ईसवी में एक प्रलयंकारी बाढ़ की वजह से इसका समुद्री व्यापार प्रभावित हुआ, और कोच्चि जो पहले चारों तरफ़ ज़मीन से घिरा रहता था, खुल गया था। 14वीं शताब्दी के अंत तक महोदयापुरम की व्यापारिक गतिविधियां और शाही परिवार कोच्चि आ गया। माना जाता है, कि कोच्चि संस्कृत शब्द ‘गो श्री’ का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है गायों से समृद्ध। कई लोगों का ये भी दावा है, कि नाम का पहला भाग मलयालम शब्द ‘कोचू’ है जिसका अर्थ युवा है।
15वीं शताब्दी में कोच्चि में व्यापार के फलने-फूलने के साथ ही यहां अरब और यहूदी आकर बसने लगे। साथ ही चीनी व्यापारियों ने यहां मछली पकड़ने के जाल बनाने का काम शुरु कर दिया। ये जाल बाद में कोच्चि की पहचान बन गये। सागौन की लकड़ी और बांस में उलझे इन जालों को आज भी वास्को डी गामा चौराहे पर देखा जा सकता है। कोच्चि का पहला उल्लेख चीनी यात्री मा हुआन के यात्रा वृत्तांत में मिलता है, जो चीनी एडमिरल झांग हे (1371-1435) के बेड़े के साथ यहां आया था। सन 1440 ईस्वी में अपनी यात्रा के दौरान, इतालवी यात्री निकोलो दा कोंटी ने कहा:
“यदि चीन वह जगह है, जहाँ आप अपना पैसा कमाते हैं, तो कोचीन निश्चित रूप से इसे ख़र्च करने की जगह है।”
जैसे-जैसे व्यापार बढ़ने लगा, इस पर मोपिला (अरब और उनके वंशज) का नियंत्रण होने लगा। इस वजह से यूरोप के व्यापारियों को विश्व व्यापार में बने रहने के लिये नये व्यापार मार्ग खोजने पड़े। व्यापारिक परिदृश्य तब बदला, जब वास्को डी गामा ने सन 1498 ईसवी में भारत के लिए एक नए व्यापार मार्ग की खोज की। ये मार्ग उन्होंने कालीकट (आधुनिक कोझीकोड) आते समय खोजा था, और ज़ाहिर है, कि इस नये मार्ग की खोज मोपिला को नागवार गुज़री। वास्को डी गामा ने कालीकट के ज़मोरिन (शासक) से भेंट कर उन्हें उपहार दिये, जो उन्हें (ज़मोरिन) को पसंद नहीं आये।
इस बीच व्यापार पर एकाधिकार जमाने के लिए लिस्बन से व्यापारी भारत आने लगे। पुर्तगालियों ने ज़ामोरिन के प्रतिद्वंदी, कोचीन के राजा उन्नीरमन कोयिक्कल-I (शासनकाल अज्ञात) को अपने व्यापार में भागीदार बनाया। इसे लेकर सन 1503 ईस्वी में दो स्थानीय शक्तियों के बीच युद्ध हुआ। ज़ामोरिन ने राजा के क्षेत्र को नष्ट कर दिया, जिसकी पेड्रोस अल्वारेस कैब्रल (1468-1520) ने मरम्मत करवाई। कैब्रल ने कोच्चि में फ़ोर्ट इम्मानुएल और कन्नूर (सेंट एंजेलोस) के नाम से भारत में पहले यूरोपीय क़िलों का निर्माण करवाया, जो पहले वायसराय फ़्रांसिस्को डी अल्मीडा के दायरे में आते थे।
क्योंकि पुर्तगालियों ने कोच्चि की क़िलेबंदी की थी, इसलिये इसका नाम फ़ोर्ट कोच्चि पड़ गया। अन्य इमारतों के अलावा पुर्तगालियों ने सेंट फ़्रांसिस चर्च (1503 में निर्मित) और सांता क्रूज़ कैथेड्रल (1558 में निर्मित) का भी निर्माण करवाया। सन 1524 ईस्वी में वास्को डी गामा की मृत्यु के बाद, उनके शव को सेंट फ़्रांसिस चर्च में ही दफ़्न किया गया था। उनके अवशेष 14 साल बाद पुर्तगाल ले जाये गये थे। सन 1984 ईस्वी में सांता क्रूज़ कैथेड्रल को विशेष गिरिजाघर घोषित किया गया।
हालांकि व्यापार और प्रशासन पर पुर्तगालियों का नियंत्रण था, फिर भी कोचीन के शासकों को कुछ अधिकार प्राप्त थे, और वे मट्टनचेरी में अपने महल से राजपाट चलाते थे। मट्टनचेरी का महल पुर्तगालियों ने सन 1545 ईस्वी में बनवाया था। कोचीन के शासकों ने यहूदियों को पनाह दी और फ़ोर्ट कोच्चि तथा एर्नाकुलम में उन्हें उनके उपासना गृह बनाने की भी इजाज़त दी। सन 1568 ईस्वी में मट्टनचेरी पैलेस के पास परदेसी सिनागॉग (यहूदी उपासना गृह) बनाया गया था। तब से पश्चिम एशिया से कई यहूदी यहां आकर बसने लगे।
पुर्तगाली सीरियाई ईसाइयों पर अपना आध्यात्मिक और धार्मिक प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगे थे। जनवरी सन 1653 ईस्वी में कई सीरियाई ईसाईयों ने पुरानी परंपराओं के प्रतिनिष्ठा बरक़रार रखने के लिये की प्रतिज्ञा की। उन्होंने सलीब से एक रस्सी बांधी, और उसे छूकर सार्वजनिक रूप से पुर्तगालियों की निंदा की।कहा जाता है, कि रस्सी के दबाव की वजह से सलीब झुक गयी, और इसीलिए इसका नाम ‘कूनन कुरिशु’ पड़ गया।यहां डच शासन काल के दौरान, सन1751 में मट्टनचेरी में कूनन कुरिशु चर्च (चर्च ऑफ़ द लीनिंग क्रॉस) बनाया गया था, जो आज भी इस घटना के साक्षी के रूप में यहां मौजूद है।
कुन्याली मराक्कर (1520-1600) क़बीले के साथ संघर्ष और डच-पुर्तगाली युद्ध (1602-1654 ) के बाद डच ने अंततः मालाबार में अपना प्रभाव बढ़ाया, और सन 1663 में फ़ोर्ट कोच्चि पर क़ब्ज़ा कर लिया। उन्होंने क़िले को तोड़ दिया, और इसका सिर्फ़ एक तिहाई हिस्सा बचा रहा। फ़ोर्ट कोच्चि के हर बुर्ज का नाम एक डच प्रांत के नाम पर रखा गया। उन्होंने एक व्यापारिक उद्देश्य और डच सेवकों और उनके परिवारों के लिए बुनियादी सुविधाएं प्रदान करने के लिये इस क्षेत्र का विकास किया। ऐसा कहा जाता है, कि डचों ने कोच्चि को एक नगर पालिका के रूप में बनाया, जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी तरह का पहला शहर था।
डचों ने काली मिर्च के व्यापार पर अपना एकाधिकार जमाना शुरू कर दिया।
फ़ोर्ट कोच्चि एक समृद्ध वाणिज्यिक केंद्र, प्रमुख सैन्य अड्डा, सांस्कृतिक एम्पोरियम और जहाज बनाने का यार्ड बन गया,जहां इंडो-यूरोपीय वास्तुकला विकसित होनी शुरू हो गई।
उनका प्रभाव मट्टनचेरी महल के रूप में देखा जा सकता है, जिसे कोच्चि शासकों के सहयोग से उन्होंने दोबारा बनाया था। उनके शासन में यहूदी उन के राजनीतिक सलाहकार, व्यवसायी और पूंजीपति होते थे। उनका प्रभाव परदेसी सिनेगॉग के पास यहूदी शहर में देखा जा सकता था।कम ही लोग जानते हैं, कि डच कमांडर हेंड्रिक एड्रियन वैनरीड टोट ड्रेकेस्टन ने यहां डेविड हॉल में अपने प्रवास के दौरान, सन1670 के दशक में केरल की वनस्पतियों पर ‘होर्टस मालाबेरिकस’ नाम की किताब लिखी थी। क्षेत्र में उनका डच कब्रिस्तान सबसे बड़े प्रमाण के रूप में मौजूद है।
लेकिन डच का भी उनसे पहले आये यूरोपीय वालों की तरह हश्र हुआ। उन्हें कोलाचेल (1741) की लड़ाई में राजा मार्तंड वर्मा (शासनकाल 1729-1758) के हाथों, और एंग्लो-डच युद्ध में हार का सामना करना पड़ा। सन 1795 तक एंग्लो-डचयुद्ध समाप्त हुआ, और अंग्रेज़ों ने भारत में डच क्षेत्रों को अपने कब्ज़े में ले लिया, जिसमें फोर्ट कोच्चि भी शामिल था।
जब अंतिम औपनिवेशिक शक्ति के रूप में अंग्रेज़ों का पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर कब्ज़ा हो गया तब उन्होंने अपने बंगलों, भवन और वाणिज्यिक स्थानों के साथ फ़ोर्ट कोच्चि, और उसके आसपास के क्षेत्र का विकास किया। सन 1858 ईस्वी में ब्रिटिश सरकार के,प्रशासन संभालने के बाद सन 1866 में फ़ोर्ट कोच्चि मद्रास प्रेसीडेंसी के दायरे में एक नगर पालिका बन गया। 20वीं शताब्दी में व्यापार बढ़ने के साथ ही, मद्रास के तत्कालीन गवर्नर लॉर्ड विलिंगडन ने कोच्चि को भारतीय प्रायद्वीप में सबसे अधिक उपयोगी बंदरगाहों में से एक के रूप में विकसित किया। इसके बाद यहां लोग आकर बसने लगे। फ़ोर्ट कोच्चि के पास उनके नाम पर एक कृत्रिम द्वीप बनाया गया जो उनकी विरासत है, और जो अब भारतीय नौसेना के दक्षिणी नौसेना कमान का मुख्यालय है।
सन 1947 में भारत को आज़ादी मिलने के बाद, राज्य संगठन अधिनियम (1956) के तहत, केरल राज्य को मद्रास राज्य से अलग कर दिया गया, और सन1958 ईस्वी में, फ़ोर्ट कोच्चि, राज्य के नवगठित एर्नाकुलम ज़िले का हिस्सा बन गया। हालांकि सन 1948 ईस्वी में इस्राइल बनने के बाद कई यहूदी इस्राइल चले गये, फिर भी फ़ोर्ट कोच्चि में सन1968 ईस्वी में परदेसी सिनेगॉग (यहूदी उपासना घर) की 400वीं वर्षगांठ मनाई गई।
इस दौरान कोच्चि (मुख्य एर्नाकुलम में) केरल के एक व्यापारिक, सूचना तकनीकी और मनोरंजन केंद्र के रूप में विकसित हो गया, और आज भी फ़ोर्ट कोच्चि विभिन्न संस्कृतियों, और समुदायों का मिला-जुला केंद्र है। यहां कई समुदाय आपसी सद्भाव के साथ रहते हैं। ये एक बड़ा व्यापारिक केंद्र है, जो ये शुरू से ही रहा है।यह स्थान प्रसिद्ध कोच्ची बायनेल उत्सव का भी साक्षी है। ये जगह कई सफल भारतीय फिल्में दिखाई भी गई हैं।
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