सन 1911 तक कोलकता भारत की राजधानी हुआ करता था और इस उप-महाद्वीप में अंग्रेज़ हुक़ुमत का केंद्र भी था। उप-महाद्वीप में ईस्ट इंडिया कंपनी की ताक़त बढ़ने के साथ कंपनी एक के बाद साम्राज्यों पर कब्ज़ा करने लगी। ईस्ट इंडिया कंपनी साम्राज्य पर कब्ज़ा करने के बाद उसके शासक को निर्वासित कर देती थी। अंग्रेज़ों की इसी नीति की वजह से आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र को भी दिल्ली से रंगून भेजा गया था। इसी तरह म्यंमा के राजा को निर्वासित कर भारत भेज दिया गया था। निर्वासन के बाद कई राजा कोलकता में भी रखे गए थे ताकि अंग्रेज़ उनपर सख़्ती से नज़र रख सकें। हम यहां बताने जा रहे हैं ऐसे ही चार शासकों के बारे में जिन्हें अंग्रेज़ों ने “देश निकाला” दिया था।
नवाब वाजिद अली शाह
निर्वासित शासकों में अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह शायद सबसे प्रसिद्ध शासक रहे हैं। 11 फ़रवरी सन 1856 को ईस्ट इंडिया कंपनी ने वाजिद अली शाह को बेदख़ल कर अवध पर कब्ज़ा कर लिया। लेकिन नवाब बिना संघर्ष किये अवध छोड़ने को तैयार नहीं थे। अवध के नवाब जनरल मैक्लेओड स्टीमर से 6 मई से 1856 को कोलकता पहुंचे। यहां से वह लंदन जाकर ब्रिटेन की महारानी से ईस्ट इंडिया कंपनी की कार्रवाई के ख़िलाफ़ अपील करना चाहते थे। उनका मानना था कि अवध पर कंपनी का कब्ज़ा ग़ैर-क़ानूनी है। लेकिन रास्ते में उनको ज़बरदस्त पेचिश हो गई और वह कोलकता से आगे नहीं जा सके।इंग्लैंड में अवध के दूतावास की नुमाइंदगी जहां नवाब की मां कर रही थीं।वहीं नवाब ख़ुद कोलकता के पश्चिमी इलाक़े में बंगला नंबर 11 में रहने लगे। इस इलाक़े को गार्डन रीच कहा जाता था। इसी बीच, अवध में विद्रोह हो गया जिसका नेतृत्व पूर्व बेगम, बेगम हज़रत महल कर रही थीं। विलियम फ़ोर्ट में जासूसी के आरोप में 13 जून सन 1857 को अब्दुल सुब्हान नाम के एक युवक को गिरफ़्तार किया गया जिसने अंग्रेज़ों को बता दिया, कि वाजिद अली शाह और बहादुर शाह ज़फ़र अंग्रेज़ों को कोलकता से खदेड़ने की साज़िश रच रहे हैं।
इसके दो दिन बाद ही नवाब वाजिद अली शाह को गिरफ़्तार कर फ़ोर्ट विलियम में बंद कर दिया गया। इस दौरान विद्रोह तो समाप्त हो गया था लेकिन अंग्रेज़ों ने नवाब को वापस लखनऊ भेजना ठीक नहीं समझा। अंग्रज़ों ने उन्हें गार्डन रीच और मटिया बुर्ज भेज दिया, जहां वह अगले तीन दशकों तक रहे। 21 सितंबर सन 1887 को वाजिद अली शाह का देहांत हो गया। कहा जाता है कि उन्हें नासूर हो गया था। कोलकता में निर्वासन के दौरान उन्होंने कई भवन बनवाए जो आज भी मौजूद हैं। इसके अलावा नवाब के साथ कोलकता आई लखनवी तहज़ीब आज भी मटिया बुर्ज में ज़िंदा है, जो शिया बहुल इलाक़ा है।
टीपू सुल्तान का परिवार
शेर-ए-मैसूर के नाम से मशहूर टीपू सुल्तान की 4 मई सन 1799 में श्रीरंगपटनम में युद्ध के दौरान मृत्यु हो गई थी। उनका परिवार बड़ा था । उनकी मृत्यु के बाद परिवार के लोग पहले वेल्लौर के क़िले में रहने चले गये ,जहां श्रीलंका के राजा सर विक्रम राजसिन्हा क़रीब 17 साल तक रहे थे। लेकिन 1806 में वेल्लौर में सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया और अंग्रेज़ों शक हुआ कि उसके पीछे टीपू सुल्तान के परिवार का हाथ रहा होगा। टीपू के परिवार का दक्षिण में बहुत सम्मान था और लोग उन्हें बहुत प्यार करते थे। इसी बात से डरकर अंग्रेज़ों ने उन्हें कोलकता भेज दिया था।
दक्षिण वेल्लौर में एक जगह थी जिसे रस्सा पगला कहा जाता था। इस जगह का नाम,इसी जगह रहनेवाले, एक सनकी व्यक्ति रस्सा पगला बाबा के नाम पर पड़ा था। बाद में इस जगह को टॉलीगंज के नाम से जाने जाना लगा। दरअसल ईस्ट इंडिया कंपनी का एक अफ़सर, विलियम टॉली, पड़ौस में बहने वाली गंगा को इस इलाक़े में लाया था और इसी से इसका नाम टॉलीगंज पड़ गया। विलियम टॉली ने यहां एक बाज़ार भी बवाया था। जब टीपू के बेटों को बंधक बनाकर कलकत्ता भेजा गया था तब उन्हें इसी जगह रखा गया था।
टीपू के परिवार के क़रीब 300 सदस्य टॉलीगंज में मिट्टी की झोपड़ियों में बेहद ग़रीबी की हालत में रहते थे। बाद में शहज़ादे ग़ुलाम मोहम्द शाह ने पेंशन और पट्टे पर ज़मीन देकर उनकी माली हालत सुधारी। टीपू के परिवार के ट्रस्ट की ज़मीन हुआ करती थी जहां आज रॉयल कलकत्ता गोल्फ़ क्लब है। टीपू के वंशजों ने टॉलीगंज में कई मस्जिदें और इमामबाड़े बनवाये थे जो आज भी मौजूद हैं। ये सभी दक्खिनी शैली में बने हुए हैं यह शैली, टीपू के परिवार के साथ दक्षिण से कोलकता आई थी।
वज़ीर अली ख़ान- अवध का “ दूसरा “ नवाब
वज़ीर अली ख़ान असफ़ुद्दौला के बेटे थे। असफ़ुद्दौला ने लखनऊ में बड़ा इमामबाड़ा बनवाया था। सितंबर सन 1797 में असफ़ुद्दौला के निधन के बाद वज़ीर अली ख़ान ईस्ट इंडिया कंपनी की मदद से सत्ता पर काबिज़ हो गये थे। लेकिन चार महीने बाद ही कंपनी और उनके बीच मतभेद शुरू लगे और कंपनी ने उसकी जगह उसके चचा सआदत अली ख़ान द्वतीय को सत्ता सौंप दी। वज़ीर अली ख़ान को तीन लाख रुपये बतौर पेंशन दिये गये और उन्हें कलकत्ता भेजने का फ़ैसला किया गया। वज़ीर अली ख़ान को यह आदेश कंपनी ने 14 जनवरी सन 1799 को नाश्ते पर बुलाकर सुनाया था। आदेश सुनते ही वज़ीर ख़ान ने अपनी तलवार से चेरी उठाई थी। उनके सिपाही अंग्रेज़ों और दो यूरोपीय लोगों की हत्या करने के बाद वाराणसी के मजिस्ट्रेट के घर पर हमला करने निकल पड़े।
इसके बाद वज़ीर अली ख़ान ने हज़ारों सिपाहियों को जमाकर बाग़ी फ़ौज बनाई। लेकिन जनरल एर्सकिन ने उनकी बाग़ी फ़ौज को हरा दिया। इसके बाद वह बुटवाल यानी राजपुताना भाग गए। यहां से उन्हें दिसंबर सन 1799 में पकड़कर विलियम फ़ोर्ट लाया गया, जहां उन्होंने अपनी बाक़ी की ज़िंदगी के लोहे के एक पिंजरे में काटी। वज़ीर अली ख़ान का निधन के बाद उन्हें केसर बाग़ान के क़ब्रिस्तान में दफ़्न कर दिया गया जिसे जुलाई सन 1858 में स्वास्थ संबंधी कारणों से समतल कर दिया गया था।निगम आयुक्त ने तिलजोला में क़ब्रिस्तान के लिये ज़मीन मुहैया कराई थी। लेकिन इस जगह पर आज कलकत्ता साउथ क्लब और वुडबर्न पार्क है और अवध के नवाब के मक़बरे का कोई नामोनिशान नहीं है।
अफ़ग़ानिस्तान के शाह
कोलकता के कालक्रम का लेखा-जोखा रखने वाले प्रसिद्ध लेखक राधा रमन मित्रा ने अपनी किताब“कोलिकता दर्पण वॉल्यूम 2” (2003) में लिखा है कि अफ़ग़ानिस्तान के शाह और बरकज़ाई वंश के संस्थापक दोस्त मोहम्मद ख़ान ने पहले एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध के दौरान विलियम हे मैक्नेघटन के सामने आत्मसपर्पण कर दिया था। उन्हें पहले लुधियाना लाया गया था जहां से फिर कोलकता भेज दिया गया। कोलकता में उन्हें 57 डायमंड हार्बर रोड में 22 मई से 21 सितंबर सन 1841 तक रखा गया था। कोलकता में उनकी तबीयत अक्सर ख़राब रहती थी जिसकी वजह शायद मौसम और उमस थी जिसके वह आदी नहीं थे। ख़राब तबीयत की वजह से उन्हें वापस लुधियाना भेज दिया गया। मित्रा के अनुसार जिस घर में उन्हें रखा गया था उसके मुख्य द्वार के सामने दो सजावटी तोपें रखी हुईं थीं। इस घर को बंगाली कमान पोटा बाड़ी कहते थे।
दुर्भाग्य से जिन घरों में शाही लोगों को रखा गया था उसके कोई अवशेष अब बाक़ी नही हैं। जिस घर में टीपू के बेटों को बंधक बनाकर रखा गया था वे आज भी हैं और टॉलीगंज क्लब का हिस्सा हैं। फ़ोर्ट विलियम के अंदर किसी को जाने की इजाज़त नहीं है और गार्डन रीच का बहुत सारा हिस्सा तथा हार्बर रोड पर स्थित घर अब मौजूद नहीं हैं। शायद कोलकता को लंदन के ब्लू प्लक प्रोजेक्ट जैसी योजना की ज़रुरत है ताकि लोगों को इन ऐतिहासिक घरों के बारे में जानकारी मिल सके।
शीर्षक चित्र: यश मिश्रा
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