भारत का पहला चुनाव: आख़िरकार भारत ने खोले लब

जहां तक भारत के पहले चुनाव के रिकॉर्ड की बात है, श्याम शरण नेगी का रिकॉर्ड तो कभी टूट ही नहीं सकता। वह आज़ाद भारत के इतिहास में भारत के पहले मतदाता थे। 25 अक्टूबर 1951 में जब पहली बार चुनाव हुआ था तब नेगी वोट देनेवाले पहले मतदाता थे। ये ऐतेहासिक घटना हमाचल प्रदेश के चिन्नी (जो अब किन्नौर कहलाता है) में हुई थी। नेगी शिक्षक थे और उनकी ड्यूटी मतदान केंद्र पर लगी थी। उन्होंने चुनाव अधिकारी से कहा कि वह ड्यूटी करने के पहले मतदान करना चाहते हैं। चुनाव अधिकारी राज़ी हो गए और इस तरह नेगी ने एक इतिहास रच दिया।

भारत में पहला चुनाव पांच महीने में कई चरणों में हुआ। चुनाव प्रक्रिया 27 मार्च 1952 में पूरी हुई। राज्य और केंद्र में तब से ये चुनाव प्रक्रिया कई बार दोहराई जा चुकी है हालंकि हम इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं ।सन 1952 में इस प्रक्रिया को लगभग असंभव, कठिन और अप्रत्याशित माना जा रहा था लेकिन फिर भी आज़ाद भारत ने अपनी पहली सरकार चुनी।

शुरुआत से ही ये तय किया गया था कि चुनाव प्रक्रिया में एक निश्चित उम्र के लोग ही भाग लेंगे। सबसे ज़्यादा प्रगतिशील माने जाने वाले अमेरिका में भी जब पहली बार चुनाव हुआ था, महिलाओं और अफ़्रीक़ी-अमेरिकी नागरिकों को वोट देने का अधिकार नहीं था जबकि ब्रिटेन में उन लोगों को वोट देने का अधिकार नहीं था जिनके पास कोई संपत्ति नहीं थी। इन देशों में वयस्क मतदाताओं के वोट के अधिकार की व्यवस्था काफ़ी बाद में आई।

उस समय भारत में न तो कोई मतदाता सूची थी और न ही नागरिकों की कोई फ़ेहरिस्त जिसके आधार पर चुनाव करवाया जा सके। तब ब्रिटिश प्रांतों सहित भारत में 500 से ज़्यादा रियासतें थी। सन 1881 के बाद से हर दशक में जनगणना होती थी लेकिन इसमें सिर्फ़ संख्या एकत्र की जाती थी यानी मतदाताओं की कोई सूची नहीं थी। ऐसे देश में जहां लोगों को जन्मतिथि तक याद नहीं रहती और न ही इसका कोई रिकॉर्ड होता है, वहां 21 साल या इससे अधिक आयु के मतदातओं की सूची बनाना एक बेहद जटिल और पेचीदा काम था। लेकिन इसके बावजूद ये काम किया गया जो वाक़ई सराहनीय था।

बेनाम हीरो

लगभग असंभव से लगने वाले काम को कर दिखाया सुकुमार सेन ने जो भारत के पहले चुनाव आयुक्त थे। उनकी वजह से नेगी और लाखों लोगों ने भारत में हुए पहले चुनाव में मतदान किया था। इतिहासकार रामचंद्र गुहा के अनुसार सेन एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने चुनाव को संभव कर दिखाया लेकिन उनके इस कारनामे को कोई नहीं जानता। सेन की सबसे बड़ी उपलब्धि ये थी कि उन्होंने एक ऐसी चुनाव प्रक्रिया बनाई थी जिसने न सिर्फ़ पहला चुनाव संभव कर दिखाया बल्कि जिसे आगे भी अपनाकर चुनाव होते रहे।

अंग्रेज़ों के समय सन 1937 और सन 1942 में प्रांतीय तथा संघीय विधायिका के लिये चुनाव नहीं हुए थे। भारत सरकार के नियम सन 1935 के तहत उस समय प्रशासन में भारतीय लोगों को सीमित अधिकार थे। उस समय चुनवा में सिर्फ़ उन लोगों को हिस्सा लेने दिया गया जिनके पास संपत्ति थी और जो संपत्ति कर देते थे। भारत को आज़ादी देने के फ़ैसले के बाद भी 1946 में जब संविधान सभा के लिए चुनाव हुआ तब भी सभी लोगों को मतदान का अधिकार नहीं था।

सन 1951-52 में आज़ाद भारत में चुनाव सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार के तहत हुए थे जिसमें सिर्फ़ उन लोगों ने हिस्सा लिया था जिनकी उम्र 21 साल या इससे ज़्यादा थी। सन 1989 में ये उम्र घटाकर 18 कर दी गई। इस लिहाज़ से मतदाता सूची बनाना टेड़ी खीर था। इसके लिये घर घर जाकर सर्वे किया गया। इस काम में 16,500 सरकारी कर्मियों ने मतदाता सूची टाइप की और आख़िरकार 36 करोड़ की आबादी में से 17 करोड़ लोगों को मताधिकार मिला।

पार्टी के पहले चुनाव चिन्ह

मतदाता सूची बनने के बाद मसला ये आया कि ये लोग अपनी पसंद का उम्मीदवार कैसे चुनेंगे। सन 1951 में भारत की साक्षरता दर क़रीब 18 प्रतिशत थी। ऐसे में मतपत्र पर उम्मीदवार का नाम लिखना व्यावहारिक नहीं था। मतदान केंद्र पर किसी ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करना जो मतदाता को नाम पढ़कर सुनाए, ऐसा करना, न सिर्फ़ महंगी प्रक्रिया होती बल्कि गुप्त मतदान के नियम का उल्लंघन भी होता। ऐसी स्थिति में उम्मीदवार और राजनीतिक दलों की पहचान के लिए चुनाव-चिन्ह बांटने का फ़ैसला किया गया। इसके लिये रोज़मर्रा जीवन के कई चिन्ह चुनकर राजनीतिक दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों को आवंटित किये गए।

उस समय के प्रमुख राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का चिन्ह दो बैलों की जोड़ी था। दिलचस्प बात ये है कि आज जो ‘पंजा/हाथ’चुनाव चिन्ह कांग्रेस का है वो 1951 में फॉरवर्ड ब्लॉक (रुईकर ग्रुप) का चुनाव-चिन्ह हुआ करता था । फ़ारवर्ड ब्लाक पार्टी के बाद यह चुनीव-चिन्ह कांग्रेस के पास आया। कांग्रेस ने पंजा चुनाव चिन्ह पर 1977 से ही चुनाव लड़ना शुरु किया था और इसके पहले 1969 में जब कांग्रेस में टूट हुई हुई थी, तब इंदिरा गुट की कांग्रेस का चुनाव चिन्ह गाय और बछड़ा होता था। सन 1977 में कांग्रेस का चुनाव-चिन्ह गाय और बछड़े की जगह पंजा हो गया, जो आज भी है।

आज़ाद भारत के पहले चुनाव में 14 राष्ट्रीय दलों ने हिस्सा लिया था जिनमें से आज सिर्फ़ तीन बचे हैं- कांग्रेस, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी। सीपीआई आज भी चुनाव अपने पुराने चुनाव चिन्ह एक हसिया और धान की दो बाली पर लड़ती है जो उसने आजतक नहीं बदला। अन्य दल जैसे जनसंघ का चुनाव चिन्ह दीया हुआ करता था। जनसंघ को आज हम भारतीय जनता पार्टी के नाम से जानते हैं। बरगद का पेड़, उगता सूरज और शेर कुछ एसे चुनाव- चिन्ह हैं जो सोशलिस्ट पार्टी, अखिल भारतीय रामराज्य परिषद और ऑल इंडिया फ़ारवर्ड ब्लॉक (मार्क्सवादी) को आवंटित किये गये थे।

पहले चुनाव में 489 चुनाव क्षेत्रों के लिये 1,874 उम्मीदवार खड़े हुए थे। संसदीय चुनाव के अलावा राज्य विधान सभाओं के लिए भी चुनाव हुए थे और क़रीब 15,000 उम्मीदवार मैदान में थे। कुछ लोकसभा क्षेत्रों से उम्मीदवार चुने गए थे, एक आम वर्ग से और एक अनुसूचित जाति वर्ग से। एक क्षेत्र से तो तीन उम्मीदवार चुने गए थे, एक आम, एक अनुसूचित जाति और एक अनुसूचित जनजाति श्रेणी से।

चुनाव में कुल 2 लाख,24 हज़ार मतदान केंद्र बनवाये गए थे जिनमें से कई तो दूरदराज़ के इलाक़ो में थे, जहां पहुंचना आसान नहीं था। इन इलाक़ों में सरकारी अधिकारियों को पहली बार भेजा गया था। मतदान केंद्रों पर कुल 56 हज़ार मतदान अधिकारी तैनात किये गए थे।

पहले चुनाव के लिये मतपत्र बनाने का काम गोदरेज एंड बोएस फ़र्म को दिया गया था। संसदीय और विधानसभा चुनाव के लिए 12 लाख मतपेटियों का इस्तेमाल किया गया था। पहले चुनाव के दौरान हर उम्मीदवार की अपनी मतपेटी होती थी जिस पर उसका चुनाव चिन्ह चिपका होता था। मतदाता अपनी पसंद के उम्मीदवार के बक्से में मतपत्र डाल देता था और इसीलिये बहुत सी मतपेटियों की ज़रुरत पड़ती थी।

ये मतपेटियां मज़बूत और सस्ती होती थीं और इनसे छेड़छाड़ संभव नहीं थी। मतपेटियां बनाने के लिए स्टील की ज़रुरत थी लेकिन भारत के पास तब विदेशी पूंजी का संकट था। लेकिन नाथालाल पंचाल ने इसका हल निकाल लिया जो गोदरेज की कंपनी में काम करते थे। उन्होंने मतपेटी का ऐसा डिज़ायन तैयार किया जो हर कसौटी पर ख़री उतरी। जुलाई सन 1951 में गोदरेज कंपनी ने मतपेटियां बनाने का काम शुरु किया। कारख़ाने में तीन पालियों में काम होता था और प्रतिदिन 15 हज़ार मतपेटियां बनाई जाती थीं। कभी कभी तो एक दिन में 22 हज़ार मतपेटियां भी बनीं।

इन मतपेटियां मुंबई के गोदरेज के कारख़ाने में बनाई जाती थीं, जो विखरोली रेलवे स्टेशन के पास था और जहां से ये पेटियां 23 राज्यों के विभिन्न क्षेत्रों में भेजी जाती थीं। मतपेटियां ले जाने वाली मालगाड़ी को “ चुनाव-स्पेशल “ कहा जाता था। चुनाव के दौरान 12 लाख,83 हज़ार और 371 मतेपेटियां 86 दिनों में विभिन्न क्षेत्रों में रवाना की गईं थीं जो अपने आप में एक बड़ा काम था।

तीन स्तंभ

क़ानूनी दृष्टि से चुनावी प्रक्रिया तीन बातों पर आधारित होती है- संविधान- अनुच्छेद 326, लोक प्रतिधिनिधत्व-अनुच्छेद 1950 और जनप्रतिनिधित्व अनुच्छेद 1951।

अनुच्छेद 326 बताता है कि कौन मतदान कर सकता है। 1951 में 21 साल से अधिक उम्र वाला वोट कर सकता था।

जनप्रतिनिधि क़ानून 1950, सीटों के आवंटन, चुनाव क्षेत्र का परिसीमन, वोटर की योग्यता, मतपत्र बनाने की प्रक्रिया तैयार करने और सीटों को भरने की प्रक्रिया को तय करने के लिये बनाया गया था। इस क़ानून के तहत एक क्षेत्र के सामान्य नागरिकों को निर्वाचक नामावली में शामिल किया जाता है। इन लोगों में सशस्त्र बल के सदस्य, राज्य की पुलिस जो राज्य के बाहर तैनात है और देश के बाहर नौकरी कर रहे सरकारी कर्मचारी आते हैं।

चुनावों को नियमानुसार कराने, संसद और राज्य विधानसभा के सदस्य की योग्यता और अयोग्यता तय करने, भ्रष्टाचार तथा अन्य अपराधों पर रोक लगाने और चुनाव के दौरान विवाद आदि के निपटारे की प्रक्रिया तय करने के लिये जनप्रतिनिधि क़ानून 1951 बनाया गया था।

चुनावी मैदान

चुनाव की दौड़ में कांग्रेस पार्टी सबसे आगे थी। कांग्रेस को लोगों का समर्थन प्राप्त था और माना जाता था कि कांग्रेस ने ही देश को आज़ादी दिलाई है। इसके नेता जवाहरलाल नेहरु बहुत लोकप्रिय थे।

लेकिन फिर भी कांग्रेस के लिये राह आसान नहीं थी और उसे कई तरफ़ से चुनौतियां मिल रही थीं। नेहरु के मंत्रिमंडल में मंत्री रह चुके श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने चुनाव के ठीक पहले इस्तीफ़ा देकर भारतीय जनसंघ पार्टी बना ली थी जिसकी नज़र दक्षिणपंथी हिंदू वोटों पर थी। दूसरी तरफ़ संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भी अनुसूचित जाति संघ बना लिया था जो आगे चलकर रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया पार्टी बनी। कांग्रेस के दिग्गज नेता आचार्य कृपलानी ने किसान मज़दूर प्रजा पार्टी का गठनकर लिया। समाजवादी पार्टी के पीछे राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे ताक़तवर नेता थे। चुनाव के मैदान में कम्युनिस्ट भी कूद गये थे हालंकि चुनावी लोकतंत्र को लेकर उनकी अपनी आपत्तियां थीं। कम्युनिस्टों ने कुछ ही दिन पहले तोलंगाना में अपना सशस्त्र संघर्श त्यागा था।

सरदार वल्लभ भाई पटेल का 1950 में मिधन हो गया था। वह चुनाव में हिस्सा नहीं ले सके थे। उनका दिसंबर 1950 में निधन हो गया था। अगर इस तथ्य को देखें तो ये दावा एकदम खोखला जान पड़ता है कि अगर पटेल प्रधानमंत्री बनते तो भारत की शक्ल कुछ और ही होती।

पहले चुनाव के नतीजे

चुनाव परिणाम में कांग्रेस ने संसदीय और राज्य विधानसभा की 74 प्रतिशत सीटों पर जीत हासिल की थी हालंकि डॉ. अंबेडकर और आचार्य कृपलानी जैसे कुछ प्रमुख नेता चुनाव हार गए। अंबेडकर को बॉम्बे उत्तर-केंद्र क्षेत्र से नारायण सदोबा काजरोलकर ने हराया जो उनके एक समय निजि सहायक रह चुके थे। आचार्य कृपलानी उत्तर प्रदेश के फ़ीरोज़ाबाद से चुनाव हार गए । लेकिन दिल्ली में उनकी पत्नी सुचेता कृपलानी जीत गईं।

नेहरु ने उत्तर प्रदेश में फूलपुर (इलाहबाद) से ज़बरदस्त जीत हासिल की लेकिन फिर भी दिग्गज नेताओं की हार एक तरह से उनके लिए सबक़ था। सन 1951 में भारतीय लोकतंत्र धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था । फिर भी भारतीय मतदाता बहुत जागरुक था। उसने , “ सुनो सबकी, करो मन” वाला फ़ार्मूला अपनाया। वह प्रतिष्ठा आदि से प्रभावित नहीं होता था।

चुनाव के दौरान कुछ मुद्दे भी सामने आये। 28 लाख महिलाओं के नाम मतदाता सूची में नहीं आये थे। तब सामाजिक प्रथा यह थी कि महिलाएं अजनबियों को अपना नाम तक नहीं बताती थीं । इसीलिये जब चुनाव अधिकारी उनके पास पहुंचते थे तो वह अपना नाम बताने से इंकार कर देती थीं । वे अपनी पहचान पति की पत्नी या बच्चे की मां के रुप में ही बताती थीं। ये प्रथा ख़ास कर उत्तर भारत में प्रचलित थी।

कुछ समय बाद इस समस्या को हल किया गया। इसके लिये महिलाओं को शिक्षित किया गया और बताया गया कि चुनाव एक ऐसी प्रक्रिया है जो हमेशा जारी रहेगी और इसमें सबका का हिस्सा लेना ज़रुरी है।

पहली चुनाव प्रक्रिया कितनी सार्थक रही, इसे लेकर भी संदेह थे। कांग्रेस के पक्ष में सिर्फ़ 45 प्रतिशत वोट पड़े थे लेकिन उसे 74 प्रतिशत सीटें मिलीं।

इसके अलावा केवल 45.7 प्रतिशत लोगों ने ही वोट डाला था जिसका मतलब ये हुआ कि बहुसंख्यक जनता वोट नहीं दो पायी थी। ऐसा माना जा सकता है कि वो लोग जिन्होंने वोट नहीं दिया, उनमें उन लोगों की संख्या ज़्यादा थी जो समाज के दबे कुचले वर्ग से आते थे। तो फिर सवाल यह पैदा हुआ कि अगर समाज के कमज़ोर वर्ग की, सरकार बनाने में कोई भूमिका नहीं थी तो ये किस तरह का लोकतंत्र हुआ ?

पहले चुनाव को एक तरह से जीत ही माना जा सकता है। नौकरशाही मशीनरी ने एक ऐसी व्यवस्था बना दी थी जो भविष्य में होने वाले चुनावों की बुनियाद थी। लेकिन इस जीत ने उस समय के राजनीतिक नेताओं को अंधा भी बना दिया था। इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया गया कि महिलाओं और निम्न जातियों का सरकार में बहुत कम प्रतिनिधित्व है। इसके अलावा इसे सुधारने पर भी विचार नहीं किया गया। कई उम्मीदवारों ने धर्म और जाति के नाम पर वोट मांगे थे जिसे नज़रअंदाज़ किया गया।

तब से लेकर अब तक भारत ने एक लंबा सफ़र तय किया है। आज चुनाव समाज भारतीय सामाजिक और राजनीतिक जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुका है। सन 1951 में जो चुनाव प्रक्रिया शुरु हुई थी उसका असर आज भी देश पर दिखाई देता है। भले ही चुनाव प्रक्रिया में कुछ ख़ामियां हों और जिन्हें सुधारने की ज़रुरत हो लेकिन फिर भी इस प्रक्रिया पर गर्व भी किया जा सकता है।

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