बाबासाहेब अम्बेडकर: बाधाओं से महानता तक

डॉ. भीमराव अम्बेडकर की गिनती आधुनिक भारत के क़द्दावर नेताओं में होती है। अम्बेडकर वो व्यक्ति हैं जिन्होंने देश की मूल अवधारणा को मूर्त रुप देने और उन मूल्यों को स्थापित करने में मदद की जो हमें अपनाने चाहिये थे। भारत के प्रति डॉ. अम्बेडकर के बहुमूल्य योगदान के परे भी एक ऐसी कहानी है जो हमें याद रखनी चाहिये। ये कहानी है उनके शिखर तक पहुंचने की यात्रा की, वो यात्रा जिसके दौरान उन्हें पूर्वाग्रह, अकल्पनीय भेदभाव, तकलीफ़ और कई तरह की कठिनाईयों का सामना करना पड़ा।

भीमराव रामजी अम्बेडकर का जन्म सन 1891 में मध्य भारत के इंदौर ज़िले के महू शहर में, एक दलित परिवार में हुआ था। उनके पिता रामजी सकपाल ब्रिटिश भारतीय सेना में सुबेदार थे। रामजी दूरंदेश थे और वह शिक्षा के महत्व को समझते थे इसीलिये उन्होंने अपने बच्चों को स्कूल भेजा। लेकिन दुर्भाग्य से शुरु से ही भीमराव और उनके भाई-बहनों को भेदभाव जैसी चीज़ों का सामना करना पड़ा।

सैनिक छावनी महू जैसी जगह में भी जाति को लेकर सख़्त पूर्वाग्रह थे और छूआछूत बहुत बड़ी सचाई थी। दलित बच्चों को क्लास में सबसे अलग बैठाया जाता था और शिक्षक भी उन पर ध्यान कम ही देते थे। भीमराव और उनके भाईयों को प्यास लगती थी तब उन्हें स्कूल का चपरासी दूर से ओक में पानी पिलाता था। और अगर चपरासी नहीं होता था तो उन्हें प्यासा रहना पड़ता था। ऐसा ही एक क़िस्सा ये भी है कि एक बार भीमराव को ब्लैकबोर्ड पर गणित का सवाल हल करने को कहा गया। जब वह ब्लैकबोर्ड के पास सवाल हल करने पहुंचे तो दूसरे बच्चों ने ये कहकर विरोध किया कि इससे ब्लैकबोर्ड अपवित्र हो जाएगा।

सन 1894 में रिटायरमेंट के बाद रामजी सतारा (महाराष्ट्र) आ गए। वह भीमराव का दाख़िला एक स्कूल में कराना चाहते थे जो उनकी जाति की वजह से आसान नहीं था। ऐसे में स्कूल के भले शिक्षक कृष्णा केशव अम्बेडकर ने भीमराव के नाम के आगे अपना उपनाम अम्बेडकर लगाने का सुझाव दिया ताकि दाख़िला मिलने में आसानी हो जाये। इसके बाद से ही उनका नाम भीमराव रामजी अम्बेडकर पड़ गया। तीन साल बाद उनका परिवार बॉम्बे पहुंच गया जहां भीमराव ने एल्फ़िंस्टोन हाई स्कूल में दाख़िला लिया। इस स्कूल में दाख़िला लेने वाले भीमराव,अपनी जाति के एकमात्र छात्र थे

कहा जाता है कि विल्सन हाई स्कूल के प्रिंसपल और सामाजिक कार्यतकर्ता अर्जुन केलुस्कर एक बार रात को चर्नी रोड गार्डन में टहल रहे थे तभी उनकी नज़र भीमराव अम्बेडकर पर पड़ी जो बिजली के खंबे की रौशनी में किताब पढ़ रहे थे। बस यहीं से केलुस्कर ने भामराव को अपनी छत्रछाया में ले लिया बन और आगे की पढ़ाई उन्हीं के मार्गदरशन में होने लगी। सन 1907 में अम्बेडकर ने मैट्रिक पास किया और बॉम्बे यूनिवर्सिटी में दाख़िला ले लिया। भीमराव मैट्रिक पास करने वाले दलित समुदाय के पहले व्यक्ति थे। उनकी इस उपलब्धि के उपलक्ष्य में, उनके सम्मान में बाम्बे दलितों ने एक समारोह का आयोजन किया। इसी मौक़े पर केलुस्कर ने अम्बेडकर को मराठी में लिखी अपना लिखी किताब “ द लाइफ़ ऑफ़ बुद्ध” तोहफ़े में दी। अम्बेडकर के बाद के जीवन पर इस किताब का ज़बरदस्त असर पड़ा।

“द लाइफ़ ऑफ़ ए बुद्ध” किताब गायकवाड़ की ओरिएंटल सिरीज़ के तहत प्रकाशित हुई थी। बड़ौदा के महाराजा सायाजीराव गायकवाड़ के संरक्षण में एक प्रोजेक्ट शुरु किया गया था जिसके तहत भारत के प्राचीन ग्रंथों का अनुवाद किया जा रहा था। चूंकि केलुस्कर ने इस प्रोजेक्ट में काम किया था इसलिये वह महाराजा को अच्छी तरह जानते थे। महाराजा की तरफ़ से छात्रों को विदेश में पढ़ने के लिये स्कॉलरशिप भी दी जाती थी।केलुस्कर ने अम्बेडकर के लिये भी सिफ़ारिश की थी।

महाराजा सायाजीराव गायकवाड़ एक प्रगतिशील शासक थे जिनकी नज़र प्रतिभाओं को परख लेती थी। इससे पहले वह राजा रवि वर्मा, अरविंद और दादाभाई नरोजी को भी वह संरक्षण दे चुके थे। महाराजा ने न्यूयॉर्क में कोलंबिया यूनिवर्सिटी में स्नाकोत्तर पढ़ाई के लिये स्कॉलरशिप शुरु की थी जो साधारण परिवारों के बच्चों के लिये होती थी। लेकिन इस स्कॉलरशिप की एक शर्त यह थी कि छात्रों को पढ़ाई पूरी करने के बाद वापस आकर बड़ौदा रियासत में ही काम करना होगा।

केलुस्कर की सिफ़ारिश पर महाराजा ने अम्बेडकर को बॉम्बे में मलाबार स्थित अपने महल में बुलवाया लेकिन उन्हें हैरानी तब हुई जब अम्बेडकर वहां नहीं पहुंचे। महाराज हमेशा की तरह शाम को अपने वाहन से चौपाटी की तरफ़ घूमने निकले। तभी उन्होंने देखा कि एक युवा महल के दरवाज़े के बाहर खड़ा है। शायद गार्ड्स उसे महल के अंदर जाने की इजाज़त नहीं दे रहे थे। हालंकि युवा ने उनसे कहा कि उन्हें महाराजा ने बुलवाया है। बहरहाल, महाराजा ने तुरंत अम्बेडकर के लिये पचास रुपये की स्कालरशिप मंज़ूर कर दी। इस तरह से उन्होंने सन 1913 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी में दाख़िला ले लिया।

‘मेरे जीवन में मेरे सबसे अच्छे दोस्त कोलंबिया में बने उनमें से कुछ सहपाठी और महान प्रोफ़ेसर जॉन डेवी, जैम्स शॉटवेल, एडविन सेलिगमैन तथा जैम्स हार्वी रॉबिन्सन थे।’ यह बात अम्बेडकर ने कोलंबिया एलुमनाये न्यूज़ 1930 में लिखी थी।

अंबेडकर ने सन 1913 से लेकर सन 1916 तक यानी तीन साल कोलंबिया में बिताये। वह रेलरोड एकोनॉमिक्स जैसे अपने विषयों के लिये ज़रुरत से ज़्यादा क्लासों में मौजूद रहते थे। उन्होंने सन 1915 में मास्टर की परीक्षा पास की। इकोनॉमिक्स, सोश्योलॉजी, हिस्ट्री, फ़िलॉसफ़ी और एंथ्रोपोलॉजी उनके प्रमुख विषय थे। उन्होंने 1916 में एक और मास्टर्स की डिग्री के लिये अपनी दूसरी थीसिस लिखी जिसका शीर्षक था- नैशनल डिविडेंड ऑफ़ इंडिया-ए हिस्टॉरिक एंड एनेलिटिकल स्टडी। उनके गुरु अमेरिकी अर्थशास्त्री एडविन आर.ए. सेलिगमैन थे जो कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे। सेलिगमैन लाला लाजपत राय के भी मित्र थे।

अक्टूबर सन 1916 में अम्बेडकर ने लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में दाख़िला लिया जहां वह
अपनी पी.एच.डी की थीसिस पर काम करने लगे। लेकिन सन 1917 में बड़ौदा से मिलने वाली उनकी स्कॉलरशिप बंद हो गई और उन्हें मजबूरन भारत लौटना पड़ा। उनके लिये भारत लौटना आसान नहीं था। उन्होंने अपनी किताब “ वैटिंग फ़ॉर वीज़ा” में लिखा है, “यूरोप और अमेरिका में पांच साल रहने के दौरान मुझे बिल्कुल ही एहसास नहीं हुआ कि मैं कोई अछूत हूं जबकि भारत में अछूत होना मेरे और दूसरों के लिये एक समस्या होती थी। जब मैं स्टेशन से बाहर निकला, मेरे दिमाग़ में एक ही सवाल घूम रहा था, “कहां जाऊं? कौन मुझे पनाह देगा?”

महाराजा की स्कॉलिरशिप की शर्त के मुताबिक़ अम्बेडकर को बड़ौदा रियासत में ही काम करना था। सन 1917 में उन्हें महाराजा का सैन्य सचिव नियुक्त कर दिया गया। महाराज अम्बेडकर को सार्वजनिक प्रशासन में प्रशिक्षित करना चाहते थे ताकि बाद में उन्हें रियासत का वित्त मंत्री बनाया जा सके। बड़ौदा रियासत के शासक जहां प्रगतिशील और खुले दिमाग़ के थे वहीं उनके स्टाफ़ में ऐसी कोई बात नहीं थी। अम्बेडकर ने बड़ौदा रियासत की कुछ समय तक सेवा की लेकिन ये दौर न सिर्फ़ मुश्किल था बल्कि अपमानजनक भी था।

कहा जाता है कि सफलता और महाराजा के समर्थन के बावजूद ऑफ़िस के चपरासी दूर से ही उनकी मेज़ पर फ़ाइलें फेंक दिया करते थे। महाराज के सचिव होने के बावजूद सायाजीराव के लक्ष्मी विलास महल मे में नौकरों ने उन्हें खाना परोसने से मना कर दिया। बड़ौदा की किसी भी धर्मशाला या होटल ने उन्हें रहने की इजाज़त नहीं मिली। आख़िरकार एक सराय के पारसी मालिक ने उन्हें जगह दी। लेकिन उन्हें उसके लिये पारसी नाम रखना पड़ा। ये सराय सिर्फ़ पारसियों के लिये होती थी। बहरहाल, बहुत जल्द अम्बेडकर की सच्चाई सामने आ गई और उन्हें बेइज़्ज़त करके सराय से निकाल दिया गया। उसी दिन अम्बेडकर इस्तीफ़ा देकर बड़ौदा से वापस बॉम्बे आ गए।

बॉम्बे वापस आने के बाद अम्बेडकर ने ट्यूशन पढ़ाने, एकाउंटेंट और पूंजी निवेष सलाहकार के रुप में काम करने की कोशिश की लेकिन बात बनी नहीं क्योंकि लोग उनकी जाति की वजह से उनके साथ काम नहीं करना चाहते थे। सन 1918 में उन्हें बॉम्बे में सिडेनहम कॉलेज में पॉलिटिकल इकोनॉमी विषय पढ़ाने के लिये प्रोफ़ेसर की नौकरी मिल गई लेकिन उनके ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह तब भी जारी रहा। कॉलेज के दूसरे प्रोफ़ेसर उनके साथ पानी का जग शेयर नहीं करते थे। यहां तक कि तांगेवाला भी उन्हें यह कहकर बैठाने से मना कर देता था कि उनके बैठने से उसका तांगा अपवित्र हो जाएगा।

इन तमाम कठिनाईयों के बावजूद सन 1921 में अम्बेडकर ने लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से मास्टर की डिग्री पूरी की। इस पढ़ाई में कोल्हापुर के महाराजा ने उनकी वित्तीय सहायता की थी। अम्बेडकर 1921-23 के बीच लंदन में रहे और उन्होंने “द प्रॉब्लम ऑफ़ द रुपी: इट्स ओरिजिन एंड इट्स सोल्यूशन” नाम से थीसिस लिखी। अगले साल ही उन्हें लंदन के बैरिस्टर और जजों की संस्था बार बाय ग्रे इन ने बुलवाया। सन1923 में उन्हें इकोनॉमिक्स विषय में डॉक्टरेट ऑफ़ साइंस की उपाधि मिली। सन 1927 में उन्होंने कोलंबिया यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में पी.एच.डी पूरी की।

संघर्ष करके परेशानियों और पूर्वाग्रहों पर विजय प्राप्त करने के बाद डॉ. अम्बेडकर भारत में दलितों के उत्थान के सामाजिक और राजनीतिक काम में लग गये। धीरे-धीरे वह दलित समाज की सबसे मुखर आवाज़ बन गए और भारत के दिग्गज नेताओं में उनका शुमार होने लगा। भारतीय संविधान के निर्माता इतनी कुशाग्र बुद्धी वाले थे कि उनके शब्द आज भी हमें प्रेरित करते हैं।

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