दिलकुशा महल की कहानी 

लखनऊ में अब न तो नवाब रहे और न ही उनकी शान-ओ-शौकत, बस रह गए हैं तो कुछ ख़ूबसूरत स्मारक जो हमें नवाबी दौर की याद दिलाते हैं। लखनऊ में अद्भुत वास्तुशिल्प कला के कई भवन हैं जो शहर के अब तक के गौरवशाली इतिहास की कहानी बयां करते हैं।

लखनऊ के प्रतिष्ठित इमारतों में एक इमारत है दिलकुशा महल जो ऐतिहासिक ला मार्टिनियर कॉलेज के पास शहर की पूर्वी दिशा में स्थित है। ये कोठी शहर की गहमा गहमी से दूर एक शांत इलाक़े में है। दिलकुशा महल अथवा कोठी का शाब्दिक अर्थ ‘दिल को ख़ुश करने वाला’ या ‘मेरा दिल ख़ुश’ होता है। इस कोठी का निर्माण अवध के छठे नवाब सआदत अली ख़ान के लिये सन 1805 में करवाया गया था। चारों तरफ़ हरियाली से घिरा ये महल एक ऊंची ज़मीन पर स्थित है जिसे अंगरेज़ मेजर गोर औउसले की देखरेख में बनवाया गया था जो नवाब के एक अच्छे दोस्त थे। ये महल घर के साथ साथ एक सैरगाह भी था जो यूरोपीय शैली में बना हुआ है। चूंकी ये गोमती नदी के किनारे था इसलिये नवाब और उनका परिवार आराम और शिकार के लिये यहां नाव से आसानी से आया जाया करते थे।

दिलकुशा कोठी आरंभ में तीन मंज़िला इमारत हुआ करती थी जिसमें भू-तल भी होता था। इसके चार सजावटी अष्टकीणीय बुर्ज हुआ करते थे और जिन पर चमकीली पॉटरी सजी होती थी। महल में प्रभावशाली सीढ़ियों से प्रवेश किया था। ये सीढ़ियां बरामदे के नीच मध्य प्रवेश द्वार तक जाती थीं। इस बरामदे की सुरक्षा के लिये बड़े स्तंभ थे जो दूसरी मंज़िल की छत तक ऊंचे थे। दिलकुशा कोठी की दो बार मरम्मत हुई थी, पहली बार 1830 में और दूसरी बार 1870 में। कहा जाता है कि कोठी की डिज़ाइन सन 1721 में निर्मित इंग्लैंड के नॉर्थम्बरलैंड के सीटन डेलावल हॉल की डिज़ाइन से काफ़ी मिलता जुलता है।

अवध के नवाब और राजा दिलकुशा कोठी को शिकार लॉज की तरह इस्तेमाल करते थे। वे लोग शिकार, ख़ासकर हिरण के शिकार के लिये यहां रुका करते थे। नवाब सआदत अली ख़ान सौंदर्य प्रेमी थे और दिलकुशा कोठी तथा निवास स्थान के बीच कई बाग़ों और महलों के निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। नवाब और उनके मेहमानों के लिये ये एक ख़ूबसूरत स्थान था। नवाबों का दौर जब ख़त्म हो रहा था तब यहीं पर नवाब अपने अंगरेज़ दोस्तों को ख़ुश करने के लिये फराग़-दिल महफ़िले सजाते थे।

गोमती नदी के किनारे स्थित इस महल में नवाबों की बेगमों शाही घरानों की महिलाओं के साथ पिकनिक मनाने आती थीं, ख़ासकर गर्मियों के दिनों में। दिलचस्प बात ये है कि दिलकुशा महल में महिलाओं के लिये ज़नानाख़ाना नहीं था जो आमतौर पर नवाबों के महलों में हुआ करते थे।(दिलकुशा कोठी के बहुत पास बीबियापुर कोठी है जो शायद महिलाओं के लिये बनवाई गई होगी। पुरुष दिलकुशा कोठी में ठहरते होंगें।

दिलकुशा कोठी में, बाद में राजा नसीरउद्दीन हैदर (1827-1837) ने कुछ बदलाव करवाये थे। ये कोठी इंग्लिश बारोक शैली में बनी है। इसके निर्माण में लखौरी ईंटों का इस्तेमाल किया गया था और चूना पत्थर से पलस्तर किया गया था। उन दिनों भवन निर्माण में चूना पत्थर से पलस्तर करने का चलन था। सजावट के लिये यूरोपीय शैली की ढ़लाई करवाई गई थी। कई लोगों को नहीं पता है कि दिलकुशा कोठी के किनारों पर कभी मीनार हुआ करते थे। मीनारों में घुमावदार सीढ़ियां हुआ करती थी जो अब नहीं दिखाई देतीं।

राजा नसीरउद्दीन हैदर ने ऊंचे स्थान पर एक नयी इमारत बनाने के लिये अंगरेज़ों के निवास स्थान रेसीडेंसी लेने का फ़ैसला किया और बदले में अंगरेज़ों को दिलकुशा कोठी देने की पेशकश की (जिसे अंगरेज़ों ने स्वीकार नहीं किया)।

कहा जाता है कि दिलकुशा कोठी वह स्थान था जहां से सन 1830 में एक अंगरेज़ ने गैस(हाट) का ग़ुब्बारा उड़ाया था। इस घटना पर ज़्यादा ध्यान नहीं गया क्योंकि सन 1790 में पास में ही फ्रांस के क्लॉड मार्टिन कॉन्स्टैंशिया महल और बाद में ला मार्टिनियर कॉलेज बनवा रहे थे। मार्टिन ने लखनऊ में भी हॉट बैलून शो का आयोजन किया था लेकिन शो के पहले ही उनका निधन हो गया। सन 1830 के हॉट बैलून शो के दौरान राजा नसरउद्दीन हैदर और उनके दरबार के बहुत सारे लोग मौजूद थे।

अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह (1847-56) ने अपने शासनकाल की शुरुआत में दिलकुशा कोठी के पास एक और कोठी बनवाई थी और सैन्य अभ्यास के लिये इसके आसपास का मैदान साफ़ करवाया था। बाद में ये जगह लखनऊ छावनी बन गई थी। वाजिद अली शाह के सैन्य अभ्यास को लेकर अंग्रेज़ों ने आपत्ति की और नवाब को अयोग्य क़रार दे दिया था। इसके बाद नवाब को सैन्य अभ्यास बंद करना पड़ा। वाजिद अली शाह के पास कोई अधिकार नहीं रह गए थे और अंगरेज़ों ने उनसे गद्दी छोड़ने को कहा लेकिन जब उन्होंने मना कर दिया तब अंगरेज़ हुकुमत ने उन्हें ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से सत्ता से हटा दिया। अवध की जनता को अंगरेज़ों की ये हरकत पसंद नहीं आई और इस तरह अंगरेज़ शासन के ख़िलाफ़ बग़ावत की शुरुआत हो गई।

सन 1857 में लखनऊ पर हमले के दौरान दिलकुशा कोठी को काफ़ी नुक़सान पहुंचा गया था। लखनऊ में हुई बग़ावत में कई लोग मारे गए और सरकारी निवास तथा ला मार्टिनियर कॉलेज को भी बहुत नुक़सान हुआ। आलमबाग़ में ब्रिटिश कमांडर इन चीफ़ कॉलिन कैम्पबैल की इस कार्रवाई के बाद 14 नवंबर सन 1857 को अंगरेज़ सेना आगे बढ़ी और उसने भारतीय सिपाहियों से दिलकुशा महल छीन लिया। दिलकुशा महल में ही 22 नवंबर सन 1857 के युद्ध में जनरल हैवलॉक की मृत्यु हुई थी। उसका शव आलम बाग़ ले जाया गया, जहां उसे दफ़्न कर दिया गया। इस युद्ध ने अंगरेज़ों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था लेकिन कॉलिन कैम्पबैल ने दोबारा अपने आदमियों को जमाकर तीन मार्च सन 1858 को दिलकुश महल पर फिर क़ब्ज़ा कर लिया और अवध पर निर्णायक हमले के लिये इसे छावनी में बदल दिया। तब अवध में अंगरेज़ो के ख़िलाफ़ बग़ावत का नेतृत्व बेगम हज़रत महल कर रही थीं।

दिलकुशा कोठी के अब अवशेष ही रह गए हैं जो हमें अवध के सिपाहियों और वहां के लोगों के बलिदान की याद दिलाते हैं। सिपाहियों और लोगों ने वहां अंगरेज़ों के ख़िलाफ़ वो विद्रोह किया था जिसे हम भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के रुप में जानते हैं। पहले स्वतंत्रता संग्राम ने ही देश भर में अंगरेज़ हुक़ुमत के ख़िलाफ़ निर्णायक बग़ावत की नींव डाली थी। सन 1857 और सन 1858 के बीच दिलकुशा महल पर अनेक बार क़ब्ज़ा हुआ हालंकि दिलकुशा बाग़ के बारे में कोई ज़्यादा बात नहीं की जाती है।

आज लखनऊ में कम ही लोग दिलकुशा बाग़ देखने जाते हैं और इसका इस्तेमाल अधिकतर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिये ही होता है। हां, सर्दियों के मौसम में यहां विदेशी सैलानी, पिकनिक मनाने वालों और स्कूल के बच्चों तथा युवाओं की भीड़ ज़रुर देखने को मिलती है। पुराने महल की अब टूटीफूटी दीवारें ही रह गई हैं।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण इन्हें और बरबाद होने से बचाने की कोशिश कर रहा है। यहां बाग़-बाग़ीचे बनवाये जा रहे हैं और मरम्मत के छोटे मोटे काम भी करवाये जा रहे हैं। दिलकुशा कोठी को ऐतिहासिक लखनऊ शहर के सुंदर स्मारकों में से एक माना जाता है।

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