तिल और गुड़ से मिलकर बने तिलोड़ी (तिल-रोड़ी) से ही बना है शब्द लोहड़ी। लोहड़ी आरम्भ से ही पंजाब और पंजाबियों का सामूहिक त्योहार रहा है। यह पौष मास के अंत तथा बसंत की शुरूआत में मनाया जाता है । पंजाबियों की अनख और ग़ैरत का प्रतीक दुल्ला भट्टी शुरू से लोहड़ी त्योहार का एक अहम हिस्सा रहा है। लोहड़ी से संबंधित दुल्ला भट्टी के बारे में एक दिसचस्प प्रसंग सुनने में आता है। मौजूदा समय के पाकिस्तान के ज़िले हाफ़िज़ाबाद की तहसील पिंडी भट्टियां के नज़दीकी गांव कोट नक्के के दुकानदार मूलचंद की मुंदरी नाम की पुत्री थी। कई जगह मूलचंद की दो पुत्रियां सुंदरी तथा मुंदरी बताई गई हैं । सच यह है कि मूलचंद की एक ही पुत्री थी। उसका नाम मुंदरी था । मुंदरी की सुंदरता के कारण उसे ”सुंदर मुंदरी“ कहा जाता था। गांव का अधेड़ उम्र मुसलमान नंबरदार, मुंदरी से शादी करना चाहता था। जब नम्बरदार ने मूलचंद पर शादी के लिए दबाव डाला, तो मूलचंद रात के अंधेरे में अपनी बेटी को लेकर पिंडी भट्टियां पहुंच गया। वहां दुल्ले भट्टी ने, पास के गांव, सांगला हिल में रहनेवाले अपने हिन्दू मित्र साहूकार सुंदर दास के बेटे से मुंदरी का रिश्ता पक्का करा दिया।
उसके बाद मूलचंद से कहा गया, कि वह उसी दिन नम्बरदार से भी बारात लाने को कह दे। जब नियत दिन, नंबरदार बारात लेकर पहुंचा, तो उसके साथियों के सामने ही दुल्ले ने उसकी अच्छी तरह पिटाई कर दी। फिर ख़ुद मुंदरी का पिता बन कर उसका कन्यादान कर दिया। इस घटना के बाद दुल्ला भट्टी की बहादुरी का यह कारनामा लोहड़ी पर्व का हिस्सा बनकर लोक गीत के रूप में सदा के लिए अमर हो गया।
सुन्दर-मुन्दरिए …….. हो तेरा कौन विचारा …….. हो दुल्ला भट्टी वाला …….. हो दुल्ले धी विआही …….. हो सेर शक्कर पाई …….. हो कुड़ी दे बोझे पाई …….. हो कुड़ी दा लाल पटाका …….. हो कुड़ी का सालू पाटा …….. हो सालू कौन समेटे …….. हो चाचे चूरी कूट्टी …….. हो जिंमीदारां लूटी …….. हो जिंमीदार सदाए …….. हो गिण-गिण पौले लाए …….. हो …..
वीर नायक दुल्ला भट्टी का जन्म मौजूदा पाकिस्तानी पंजाब के ज़िले हाफ़िज़ाबाद के बद्दर क्षेत्र के गांव चुचक में हुआ था । सन 1547 में जन्में दुल्ला भट्टी की मां का नाम बीबी लद्दी था। उनके पिता का नाम राजपूत फ़रीद भट्टी था । फ़रीद ख़ां भट्टी तथा उनके पिता बिजली ख़ां उर्फ़ सांदल भट्टी को मुग़ल बादशाह हमायूं ने लगान न देने के कारण गिरफ़्तार करवा लिया था । बाद में उनके सिर धड़ों से अलग कर, उनकी लाशें लाहौर के शाही क़िले के पिछले दरवाज़े पर लटकवा दी थीं।
सरकारी डिग्री कालेज पिंडी भट्टियां (हाफ़िज़ाबाद) के प्रिंसीपल प्रो. असद सलीम शेख़ उर्दू में लिखी अपनी पुस्तक ‘दुल्ला भट्टी’ में लिखते हैं –”दुल्ला भट्टी बिजली ख़ां उर्फ़ सांदल का पोता और फ़रीद ख़ां भट्टी का बेटा था। बिजली ख़ां के तीन भाई और थे : फ़तेह, परवेज़ और राय उसमान। बिजली खां के तीन बेटे फ़रीद (दुल्ला भट्टी का पिता), पुराणा और शेख़ू थे। इनमें से पुराणा ने भिंडी भट्टियां के पूरब की तरफ़ सुखे की रोड के क़रीब पुराणे की गांव आबाद किया। उसकी औलादें आज भी इसी गांव में आबाद हैं। जबकि शेख़ू के पांच बेटों- शाह मोहम्मद, अली शेर, साबो, अलावल और कतबा की औलादें पिंडी भट्टियां के मग़रिब (पश्चिम) की तरफ़ आबाद दिहात शाह मोहम्मद मासूदा, चक साबो और ठठे कतबा में आबाद हैं। ख़ुद दुल्ला भट्टी के पांच भाई और थे -ममूद, बुड़हा, बहलूल, सालार और आदिम। इनमें से ममूद की औलादें पिंडी भट्टियां के मग़रिब की तरफ़ आबाद देहात कंधा, मिर्ज़ा भट्टियां और शाहपुर में आबाद हैं। जबकि बहलूल ने गांव बहलोल आबाद किया और इसकी औलादें यहीं पर रह रही हैं। बुड़हा की औलादें पिंडी भट्टियां में आबाद हैं। वो बुड़हे की भट्टी कहलाते हैं।
सालार के तीन बेटों- करीम, दाद, आदम जलालियां की औलादें हवेली करीम दाद, छननी करीम दाद, चक भट्टी, कोट दिलावर, सहोकी, बाका भट्टियां में फैली हुई हैं। जहां तक दुल्ला भट्टी की अपनी औलाद का ताल्लुक है तो उसकी दो बीवियां फुलारा और नूरा थीं। फुलारा का ताल्लुक़ भट्टी क़बीले से था, जबकि नूरा किसी अन्य क़बीले से थीं। उन दोनों से तीन बेटे- जहां ख़ां, कमाल खां, नूर खां और दो बेटियां- सलिमो और बख़्त -उन-निसा थीं। बख़्त- उन-नीसा मुग़लों के हमलों में मारी गई थी। दुल्ला भट्टी की शहादत के बाद उसके बच्चे अपनी सुरक्षा की ख़ातिर इध-उधर बिखर गये। चुनाचे कमाल खां और नूर खां के बच्चे सरगोधा, फड़ी हलायूदीन गुजरात और बख्खर मंडी के इलाक़े में आज भी आबाद हैं। अलबत्ता जहां खां कुछ अर्सा दर-बदर भटकने के बाद दोबारा पिंडी भट्टियां आ गया और गांव दुल्लेकी में आज भी उसकी औलादें आबाद हैं।” बताते हैं कि दुल्ला भट्टी जब जवान हुआ तो गांव की एक मिरासन ने, उसे, उसके पिता और दादा के साथ हमायूं द्वारा किए बर्ताव की जानकारी दी। जिसे सुनने के बाद उसका ख़ून खौल उठा। उसने अपनी बार (जंगल का इलाक़ा) के लड़कों की एक फौज तैयार की और मुग़ल दरबार के मनसबदारों और साहूकारों से धन, घोड़े और हथियार लूट कर हमायूं के पुत्र बादशाह अकबर के ख़िलाफ़ बगावत का ऐलान कर दिया। उसी दौरान दुल्ला एक परोपकारी, निष्पक्ष तथा इंसाफ़पसन्द राजा के रूप में अपने क्षेत्र की जनता के सामने प्रकट हुआ।
दुल्ला भट्टी का क़िस्सा लिखने वाले में से ज़्यादातर ने यही लिखा है कि जब बादशाह अकबर की रानी ने बेटे यानी जहांगीर- उर्फ़ शेख़ू उर्फ़ सलीम को जन्म दिया तो बादशाह के दरबार में पंडितों और नजूमियों को बुलाया गया और उनके सामने अपनी इच्छा ज़ाहिर करते हुए कहा कि वे अपने शहज़ादे को एक बलवान और न्याय पसंद बादशाह बनाना चाहते हैं। इस पर नजूमियों ने बादशाह को सुझाव दिया कि शेख़ू को उस राजपूत औरत का दूध पिलाया जाना चाहिये, जिसने शहज़ादे के जन्म वाले दिन ही किसी बालक को जन्म दिया हो। बादशाह के सिपाहियों को काफ़ी तलाश के बाद माई लद्दी मिल गई।
बादशाह के हुक्म से, माई लद्दी को अपने बेटे दुल्ले के साथ-साथ शेख़ू को भी अपना दूध पिलाना पड़ा। लिखने वालों ने यह यह लिखकर दरअसल बहुत बड़ी ऐतिहासिक भूल की है। उन्होंने इस नाटकीय स्थिति के बारे में लिखने से पहले ऐतिहासिक पहलूओं पर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया। उन्हें सबसे पहले यह जानना चाहिए था कि शेख़ू को जन्म देने वाली, उसकी मां हरखा बाई थी जो ख़ुद ही राजपूतनी थी। लेकिन उसका नाम कहीं हीरा कुमारी और कहीं जोधा बाई लिख दिया गया है। बादशाह ने शादी के बाद हरखा बाई को “ मरियम ज़मानी” ख़िताब से नवाज़ा था। इस इतिहासिक तथ्य की तरफ़ भी कोई ध्यान नहीं दिया कि शहज़ादे जहांगीर का जन्म 20 सितम्बर 1569 को हुआ था, जबकि दुल्ला भट्टी का जन्म सन 1547 में हो चुका था। इस लिहाज़ से दोनों की उम्र में पूरे 22 वर्ष का अन्तर था।
ख़ैर! बादशाह अकबर ने दुल्ले के बाग़ियाना स्वभाव के कारण क्रोध में आकर अपनी फौज के कमांडर निज़ामउद्दीन को हथियारों से लैस 12 हज़ार सिपाहियों के साथ, दुल्ले को गिरफ़्तार करके लाहौर दरबार में पेश करने के लिए भेजा। लाहौर से 27 किलोमीटर दूर गांव ठिकरीवाला के पास शाही फौज और दुल्ले की फौज में हुए युद्ध के अंत में एक साज़िश के तहत दुल्ले को ज़िंदा गिरफ़्तार कर लिया गया। लगातार 10 वर्ष तक मुग़ल फौज को नाकों चने चबाने वाले दुल्ला भट्टी को 26 मार्च 1589 को, लाहौर के मुहल्ला नख़ास चौक में क़त्ल कर लटका दिया गया।
उसकी क़ब्र आज भी लाहौर के म्यानी साहिब क़ब्रिस्तान में मौजूद है। भले ही दुल्ला भट्टी आज से सैंकड़ों वर्ष पहले शहीद हो गया था, परन्तु पंजाबी उसकी बहादुरी की गाथा को ”सुन्दर-मुन्दरिए …….. हो“ के रूप में हमेशा याद रखते आ रहे हैं।
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