धनकर गोम्पा: स्पीति घाटी का क़िला मठ

हिमाचल प्रदेश में स्पीति घाटी भारत में मोटरसाइकल चलाने के शौकीनों के लोकप्रिय स्थलों में से एक है। यहां के बीहड़ परिदृश्य और ख़ूबसूरत नज़ारों का लुत्फ़ उठाने के लिये भारत भर से बाइकर्स और ड्राइविंग के शौक़ीन लोग यहां आते हैं। स्पीति घाटी में सबसे दिलचस्प स्थानों में से एक है धनकर गोम्पाया मठ-क़िला। धनकर गोम्पा हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति ज़िले में स्पीति और पिन नदियों के संगम पर 12,774 फ़ुट की ऊंचाई पर स्थित है। यह इस बीहड़ क्षेत्र के उठा- पटक वाले इतिहास का भी गवाह रहा है।

स्पीति घाटी का सबसे पहला उल्लेख 8वीं शताब्दी की शुरुआत में मिलता है। तब पश्चिमी तिब्बती साम्राज्य का इस क्षेत्र पर क़ब्ज़ा था। पश्चिमी तिब्बत का असर आज भी यहाँ की तिब्बती बोली में देखा जा सकता है। 10वीं शताब्दी में पश्चिमी तिब्बती साम्राज्य कई हिस्सों में बंट गया। लद्दाख, लाहौल और स्पीति के क्षेत्र गूज साम्राज्य के अंतर्गत आ गए थे। 

यह वह समय भी था, जब तिब्बत और उसके आसपास के क्षेत्रों में बौद्ध धर्म की एक नयी लहर चली हुई थी। एक  बौद्ध आध्यात्मिक नेता रिनचेन त्संगपो ने इस क्षेत्र में धनकर सहित कई मठों की स्थापना की, जिन्हें गोम्पाके नाम से जाना जाता है। गोम्पा की दीवारों को थांगका चित्रकारी और भित्ति चित्रों से सजाया गया था। इनमें शाक्यमुनि, त्सोंगखापा और लामा चोद्रग जैसे तिब्बती बौद्ध देवताओं का चित्रण था। ये मठ बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय का अनुसरण करते थे, जिसमें मानव के रुप में बुद्ध को दिखाने की इजाज़त थी। दूसरी तरफ़ बौद्ध धर्म के थेरवाद संप्रदाय में इसकी मनाही थी। यही वजह है, कि इन मठों में सुंदर चित्रों और कलाकृतियों की भरमार थी।                                                                                                                                                                                                                                                                  एक मठ के रूप में धनकर का वजूद एक सदी से भी कम समय तक रहा, क्योंकि बाद में इसमें बहुमंज़िला इमारतों को जोड़ दिया गया, और इसकी क़िलेबंदी भी कर दी गई। इसे गूज के क़िले के रूप में विकसित किया गया। इसका नाम दो तिब्बती नामों ढाक (सीधी चट्टान) और कर (क़िला) को मिलाकर धक्कर रखा गया था, जो बाद में धनकर हो गया।

 

चूंकि ये भारत और तिब्बत को जोड़ने वाले व्यापार मार्गों में से एक मार्ग पर स्थित था, इसलिये तिब्बती व्यापारी स्पीति में अपने कारोबार के सिलसिले में ट्रांजिट पास लेने के लिए यहां आया करते थे। इस वजह से पश्चिमी तिब्बत के गूज और लद्दाख के नामज्ञाल के बीच संघर्ष की स्थिति  पैदा हो गई, और दोनों के बीच धनकर गोम्पा पर कब्ज़े के लिए बड़े स्तर पर लड़ाई हुई। आख़िरकार इस लड़ाई में लद्दाख के नामज्ञाल राजा की जीत हुई, और उसने अपने स्थानीय प्रतिनिधि के रूप में एक नोनोया सूबेदार (वज़ीर) को नियुक्त कर दिया। प्रशासन की ज़िम्मेदारी स्थानीय कुलीन वर्ग के परिवार पर छोड़ दी गई थी, जो रोज़मर्रा के काम देखा करती थी और क़ानून-व्यवस्था की समस्याओं को सुलझाती थी।

17वीं शताब्दी के मध्य तक नामज्ञाल राजवंश का प्रभाव कम होने लगा, और  धनकर में नोनो का दर्जा एक शासक के रूप में बढ़ा दिया गया। लेकिन लाहौल, किन्नौर जैसे पड़ोसी प्रांतों के साथसाथ, डोगरा और ज़ोरावर सिंह कहलूरिया के अधीन सिखों के लगातार हमलों की वजह से नोनो यानी शासक का प्रभाव सीमित हो गया। आख़िरकार ज़ोरावर सिंह कहलूरिया ने इसपर कब्ज़ा कर लिया और ये महाराजा रणजीत सिंह के सिख साम्राज्य का हिस्सा बन गया। इस विलय के कारण राजधानी को केलॉग (अब लाहौल और स्पीति ज़िले में) स्थानांतरित कर दिया गया और इस तरह धनकर गोम्पा का महत्व कम होने लगा।

सन 1845-46 के एंग्लो-सिख युद्ध के बाद इस क्षेत्र पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन हो गया। चांग-थांग (तिब्बत) में तिब्बती वूलमार्ट लेने जब भी अंग्रेज़ यात्रा करते थे, तब वे धनकर गोम्पा ठहरा करते थे। इस क्षेत्र में खुद को स्थापित करके, अंग्रेज़ों ने अंततः तिब्बत के साथ अपने व्यापार मार्गों और व्यापार बढ़ाया। 

सन 1920 के दशक के दौरान मानचित्रण और भूगोल और इतिहास को समझने के लिए दूर-दराज़ के इलाक़ो में अंग्रेज़ अपनी टीमें भेजने लगे। इसी दौरान प्राच्यविद् हेनरी ली शटलवर्थ के नेतृत्व में एक टीम धनकर पहुंची, जहां उसे मठ के भीतर कई अभिलेखीय दस्तावेज़ और पत्र, मूर्तियां और पेंटिंग मिलीं। इनमें 11वीं और 13वीं शताब्दी की बुद्ध की एक कांस्य-प्रतिमा और रिंचेन त्सांगपो के कुछ दस्तावेज़ मिले, जिनमें जीवन शैली के बारे में सलाह दी गई थी। इससे स्पीति और बौद्ध धर्म के इतिहास को समझने में मदद मिली थी। 

1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद 1960 में जब हिमाचल प्रदेश एक नया राज्य बना तो धनकर लाहौल और स्पीति ज़िले में आ गया। मठ की हालत बहुत ख़राब होती जा रही थी। उसकी वजह थी, भू-तकनीकी अस्थिरता, अनदेखी और रखरखाव के अभाव के कारण, सन 2006 में वर्ल्ड मोन्युमेंट्स फंड के वर्ल्ड मोन्युमेंट्स वॉच प्रोग्राम ने इसे विश्व के उन सौ स्मारकों की सूची में रखा दिया, जिन की हालत बहुत नाज़ुक हो रही थी।  

धनकर जाने क् लिए अप्रैल से अक्टूबर का समय सबसे अच्छा माना जाता है।आज, धनकर सड़क के रास्ते, काज़ा (30 किलोमीटर) और भुंतर (सबसे नज़दीक हवाई अड्डा, कुल्लू ज़िला-266 किलोमीटर) होकर जाया जा सकता है। सैलानी यहां  शिविर लगाकर रहते हैं। स्पीति घाटी के ख़ूबसूरत नज़ारे के अलावा आप मठ की दीवारों पर बनी 8वीं शताब्दी पूर्व की थंका चित्रकला, बौद्ध धर्मग्रंथों, विरोचना मूर्ती भी देख सकते हैं जिसमें ध्यान-मुद्रा में बुद्ध की चार आकृतियां बनी हैं। इनमें  भैषज्यगुरु यानी रोगों से मुक्ति देने वाले बुद्ध का भित्ति चित्र भी है। दिलचस्प बात यह है, कि खंडहर में तब्दील हो चुके क़िले में देखने के लिए कुछ ख़ास नहीं बचा है। ये इतना जर्जर हो चुका है, कि एक बार में सिर्फ़ 20 लोगों को ही अंदर जाने की इजाज़त दी जाती है। 

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