“ओ मेरी मातृभूमि!
अतीत के सुनहरे दिनों में
पूजी जाती थीं तुम देवी की तरह,
और, रहता था मुखमंडल तुम्हारा
प्रभामंडल से युक्त।
कहां खो गया वो ऐश्वर्य तुम्हारा
कहां गुम गयी तुम्हारी वो गरिमा?
जकड़ गये हैं बेड़ियों में अब
गरूड़ के डैनों की तरह बलिष्ठ पंख तुम्हारे, और,
निश्तेज-सी पड़ी हो तुम
धूल-धूसरित धरा पर।
हो गई हैं कविताएं मेरी असमर्थ गूंथने में तुम्हारे गौरव-गीतों की माला,
ओ मां,उबरो मुझे इस कारूणिक व्यथा से उद्धार करो मेरा!”
(अनुवाद: शिव शंकर पारिजात)
देश की ग़ुलामी के दिनों में भारत माता की उस समय की दुख भरी स्थितियों पर विलाप करती हुई और उसके पुराने गौरव को वापस लाने का आह्वान करती, उक्त कविता को पढ़कर ऐसा सोचा जा सकता है कि इसे आज़ादी के दीवाने किसी हिंदी कवि ने लिखा होगा। लेकिन यह जानकर हैरानी होगी कि देश प्रेम से ओत-प्रोत यह कविता आज से क़रीब 190 साल पहले, सन 1857 में हुई स्वतंत्रता की पहली लड़ाई से भी 30 साल पहले, अंग्रेज़ी भाषा के पहले भारतीय कवि ने लिखी थी। उस भारतीय कवि का नाम है हेनरी विवियन लुईस डिरेज़ियो और इस कविता का शीर्षक है -“टू इंडिया: माई नेटिव लैंड”, अर्थात् “मेरी मातृभूमि: भारत माता के प्रति”।
भारतीय नवजागरण के सूत्रधारों में से एक, प्रखर चिंतक, शिक्षाविद और अप्रतिम प्रतिभा के धनी डिरेज़ियो का जन्म सन 1809 में एक एंग्लो-इंडियन परिवार में हुआ था। मात्र 17 वर्ष की उम्र में वे कोलकाता के प्रतिष्ठित हिन्दू कालेज (वर्तमान प्रेसिडेंसी कॉलेज) में असिस्टेंट हेडमास्टर नियुक्त हुए। उनके क्रांतिकारी विचारों ने बड़ी संख्या में छात्रों को प्रभावित किया जो उनके अनुयायी बन गये और ‘युवा बंगाल’ के नाम से विख्यात होकर ‘डिरेज़ियोवादी’ कहलाये।
डिरेज़ियो को भारत में अंग्रेज़ी भाषा का पहला कवि माना जाता है। के.एस. राममूर्ति अपने संकलन ‘ट्वंटी फ़ाईव इंडियन पोएट्स इन इंडिया’ में कहते हैं कि भारत में अंग्रेज़ी कविता की शुरुआत डिरेज़ियो से हुई जो न सिर्फ़ कवि थे, बल्कि कवियों के गुरु भी थे।
उन्होंने पहली बार भारतीय अंग्रेज़ी कविता में पाश्चात्य विचारों को अभिव्यक्ति दी। इसके अलावा उन्होंने पहली बार भारतीय अंग्रेज़ी कविता में भारतीय परिवेश, प्रतिमान, बिम्ब और आदर्शों को मुखर बनाया । सीलिये उन्हें भारत का पहला ‘राष्ट्रवादी कवि’ कहा गया। भारतीय राष्ट्रवाद की भावना को अपनी रचनाओं के माध्यम से पहली बार आवाज़ देने के कारण ई.एफ़. आटन सरीखे विद्वान ने भी उन्हें ‘भारत के राष्ट्रीय प्रणेता’ की उपाधि दे डाली थी।
डिरेज़ियो इतिहास के ‘पुर्नजागरण’ के दौर के कवि थे, जब रुढ़िवादी भारतीय समाज में पाश्चात्य शिक्षा और आधुनिक विचारों के आगमन के साथ परिवर्तन की नयी बयार बहने लगी थी। ब्रिटिश हुकूमत के शोषण और साम्राज्यवादी नीति के कुपरिणामों से आहत भारतीय जनमानस में इनसे निजात पाने की मंशा से ‘राष्ट्रीय चेतना’ का उदय हो रहा था। ‘पूरब’ और ‘पश्चिम’ की दो संस्कृतियों के मिलन से उत्पन्न ‘बौद्धिक दृष्टि’ देशवासियों को सामाजिक कुरीतियों से लड़ने की शक्ति देने के साथ उन्हें देशभक्ति के लिये भी प्रेरित कर रही थी। नवजागरण के इस दौर में बुद्धिजीवियों सहित कई लेखक-कवि राष्ट्र की मुक्ति का संदेश लेकर सामने आये जिनमें डिरेज़ियो का नाम सबसे आगे आता है।
डिरेज़ियो की देश-भक्ति के इस जज़्बे के संबंध में ‘इंडियन रूमिनेशन’ में प्रकाशित ‘बडिंग एण्ड ब्लूमिंग पेट्रियोटिज़्म इन हेनरी डिरेज़ियो पोएम्स’ शीर्षक आलेख में संजीत सरकार कहते हैं कि डिरेज़ियो के अंदर आज़ादी के प्रति एक धधकता हुआ जुनूऩ था तथा उनमें किसी भी तरह की दास्ता से मुक्ति की ग़ज़ब की ललक थी। गहराई से देखें तो उनकी हर कविता में देशभक्ति की छाप है।
विदेशी मूल के होते हुए भी डिरेज़ियो ने ख़ुद को हमेशा भारतीय माना और अपनी रचनाओं में ताज़िंदगी भारतीयता के भाव को अभिव्यक्ति दी। उनकी स्कूली शिक्षा कोलकाता के धर्मतल्ला के स्कूल में, डेविड ड्रमंड की देखरेख में हुई जिनके नैतिक दर्शन एवं बौद्धिक चेतना, ख़ासकर दासता की भावना के प्रतिरोध का, उनपर गहरा असर पड़ा। डिरेज़ियो, पुर्नजागरण के दौर में राजा राममोहन राय की, सती-प्रथा और अन्य सामाजिक कुरीतियों के ख़िलाफ़ छेड़ी गयी मुहिम के भी प्रबल हिमायती थे। डिरेज़ियो की सुप्रसिद्ध कृति ‘फ़क़ीर आफ़ जंघीरा’ में इसकी स्पष्ट छाप देखी जा सकती है।
ऐसे तो डिरेज़ियो का जन्म बंगाल में हुआ था और वहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई थी, लेकिन उन्हें साहित्य-सृजन की प्रेरणा बिहार के भागलपुर की मिट्टी से मिली थी। भागलपुर की गंगा, उसके आस-पास बिखरे प्राकृतिक सौंदर्य, खेत-खलिहान, ग्रामीण परिवेश आदि को देखकर उनमें एक प्रेरणा जागी और यहीं पर अपनी पहली रचना लिखी। भागलपुर से ही उन्होंने अपनी इस रचना को प्रकाशित करने के लिये, उस समय की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका कोलकाता के ‘इंडिया गज़ट’ को भेजी। उनकी रचना इंडिया गज़ट में प्रकाशित हुई और रातों-रात उनकी शोहरत साहित्य-जगत के उभरते सितारे के रूप में हो गयी।
हुआ यूं कि सन 1823 में, 14 साल की उम्र में स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद डिरेज़ियो कोलकाता की एक ब्रिटिश फ़र्म में क्लर्क की नौकरी पर लग गये। पर कल्पनाशील एवं स्वछंद विचारों वाले युवा डिरोज़ियो का मन आफ़िस के बोझिल वातावरण में नहीं लग पाया। क्लर्क की नौकरी छोड़ वे भागलपुर अपनी मौसी के पास आ गये। उनके मौसा आर्थर जानसन वहां इंडिगो प्लांटर अर्थात् नीलहे साहब थे। वे अपने मौसा की नील ( lndigo) की खेती और इसके प्रबंधन में हाथ बंटाने लगे। फ़ुरसत के समय में वे अपने मौसा की कोठी के निकट बहती गंगा और उसके आस-पास के प्राकृतिक दृश्य देखने निकल जाते। इस नैसर्गिक वातावरण ने कवि-हृदय डिरेज़ियो को इस क़दर प्रभावित किया कि उनके अंदर साहित्य सृजन की भावना जग उठी।
डिरेज़ियो की जीवनी ‘द् यूरेशियन पोएट, टीचर एण्ड जर्नलिस्ट’ में थामस एडवर्ड्स बताते हैं कि भागलपुर की यादें डिरेज़ियो के ज़ेहन में हमेशा मौजूद रहीं। गंगा में हिचकोले खाती नावों के चप्पुओं के छप-छप की आवाज़, कुंओं के इर्द-गिर्द पनिहारिनों की गप-शप, पीपल के पेड़ के नीचे खेलते बच्चों का शोर-शराबे, गेहूं पीसतीं युवतियों के गीतों की गूंज, पर्व-त्योहारों के जूलूस, शादी-विवाह के भोज और हंसी-मज़ाक़, निश्छल ग्रामीण सौंदर्य और झाड़-जंगल की निरवता के बीच जंगली जानवरों की चिंघाड़- ये सभी कुछ डिरेज़ियो के ज़ेहन में मानों समा से गये थे।
भागलपुर में डिरेज़ियो अक्सर नांव से गंगा की सैर पर निकल जाते। निकट के सुल्तानगंज में गंगा के बीच स्थित जंघीरा की पहाड़ी, जिसे स्थानीय लोग जहांगीरा या अजग़ैबीनाथ की पहाड़ी कहकर भी पुकारते हैं, का प्राकृतिक सौंदर्य व इसमें रहनेवाले साधु-फ़क़िरों के रोमांचक क़िस्से-कहानियां, उन्हें इतनी भायीं कि इसकी पृष्ठभूमि पर अपनी अमर काव्य-कृति ‘फ़क़ीर आफ़ जंघीरा’ लिख डाली। डिरेज़ियो के ‘फ़क़ीर आफ़ जंघीरा’ की गिनती आज विश्व के श्रेष्ठ अंग्रेज़ी साहित्य में होती है।
डिरेज़ियो का व्यक्तित्व बहुआयामी था। पर मूल रूप से उनके ज़ेहन में हमेशा स्वतंत्रता की भावना समायी रहती थी। अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने देश के युवा हृदय में मातृभूमि के प्रति प्रेम जागृत करने के लिये जहां भारत के समृद्ध, स्वर्णिम और गौरवशाली अतीत का गुणगान किया, वहीं इसकी समकालीन दुर्दशा के चित्र उकेर कर इसे दासता के बंधनों से मुक्त कराने का आह्वान भी किया।
डिरेज़ियो के देशप्रेम की भावना उनकी कविताओं में खुलकर व्यक्त हुई है। ‘टू इंडिया:माई नेटिव लैंड’ (मेरी मातृभूमि: भारत के प्रति) शीर्षक कविता में वे भारत देश को माता एवं देवी के रूप में संबोधित है।फिर उसे परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त करने का संदेश देते हैं। वहीं ‘हार्प आफ़ इंडिया’ (भारत की वीणा) में देश की तुलना विरान उपवन में पड़ी उस वीणा से करते हैं जिसके झंकृत होते तार, जो कभी स्वर-लहरियां बिखेरा करते थे, आज ख़ामोश हो गये हैं। वे आशापूर्ण शब्दों में कहते हैं, “ओ मेरे देश की वीणा…. छेड़ने दो तुम मुझे अपने तारों को!”
देश के युवाओं में हंसते-हंसते मातृभूमि के लिये क़ुर्बान होने का जज़्बा भरते हुए ‘फ़्रिडम आफ़ स्लेव’ (दास की मुक्ति) शीर्षक कविता में वे कहते हैं कि सफलता उसी देशभक्त की तलवार चूमती है और शोहरत उसी ख़ून में सनी छाती को गले लगाती है जो आज़ादी के लिये खुशी-खुशी अपना बलिदान कर देते हैं।
इसी तरह वह अपनी कविता ‘द् सांग आफ़ हिन्दुस्तानी मिन्स्ट्रियल’ में परतंत्रता, दासता और निरीहता के बंधनों को तोड़ मुक्ति का जयघोष करते हैं और आशा का संचार करते डिरेज़ियो कहते हैं, “… शीघ्र होगा बसेरा हमारा रौशनी के देश में/फिर मनायेंगे हम प्रेम और उल्लास के पर्व।”
इस तरह डिरेज़ियो ने अपनी कविताओं में देशप्रेम की प्रबल भावना को स्वर देते हुए उस मिथकीय नायकत्व तथा पराक्रम की प्रशंसा की है जो किसी राष्ट्र के एक आदर्श नागरिक के वांछित गुणों को परिभाषित करता है। आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से प्रकाशित पुस्तक ‘डिरेज़ियो:पोएट आफ़ इंडिया’ (2008) में रौशनिका चौधरी ने ठीक ही कहा है कि “डिरेज़ियो की कविताओं में भारत के स्वर्ण-युग के मिथक के साथ-साथ राष्ट्रीय गौरव के भाव परिलक्षित हैं।”
उन दिनों की अति प्रतिष्ठित पत्रिका ‘इंडया गज़ट’ में रचना प्रकाशित होते ही डिरेज़ियो की शोहरत ऐसी परवान चढ़ी कि उन्हें इसका सहायक सम्पादक बना दिया गया। लेकिन वह जमकर अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी लिखते रहे।
डिरेज़ियो की क़ाबिलियत को देखते हुए मात्र 17 साल की उम्र में उन्हें कोलकाता के हिन्दू कालेज (वर्तमान प्रेसिडेंसी कॉलेज) में पहले अंग्रेजी शिक्षक, फिर वहां का असिस्टेंट हेडमास्टर नियुक्त किया गया।
इसे विडंबना ही कहेंगे कि शोहरत की सीढ़ी पर तेज़ी से चढ़ती इस युवा प्रतिभा की सांसें मात्र 32 साल की आयु में, 26 दिसम्बर, 1831 को थम गयीं। उन्हें कोलकाता के पार्क स्ट्रीट सेमेंट्री में दफ़नाया गया। डिरेज़ियो की इस असामयिक मृत्यु पर प्रो. आर. डीन राईट ने ‘द् लाईफ़ एण्ड टाईम आफ़ हेनरी लुईस विवियन डिरेज़ियो: ए लिजेंड अमंग एंग्लो इंडियंस’ में ठीक ही लिखा है, “अपने अत्यंत छोटे-से जीवन-काल में डिरेज़ियो ने कई महत्वपूर्ण काव्य-कृतियों की रचना की और वे भारत के एक महत्वपूर्ण ‘लिजेंड’ बनने की राह पर थे।”
डिरेज़ियो की क़ब्र के शिलापट्ट पर लिखीं ये पंक्तियां सदैव उनकी कीर्ति की ख़ुश्बू फैलाती रहेंगी, “19वीं शताब्दी के भारतीय पुर्नजागरण के पुरोधा, इस युग के महानतम शिक्षक, महान तार्किक, देशभक्त कवि जो सुक़रात को पसंद करते थे, जिन्होंने युवा-पीढ़ी को तर्कसंगत बनने की प्रेरणा दी और जो ज्ञान की देवी के पुजारी थे।”
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