मई सन 1854 में लखनऊ की सड़कों पर एक ग़ैरमामूली और ग़मगीन क़िस्म का जुलूस निकला जिसका नेतृत्व अवध के नवाब वाजिद अली शाह (1847-56) कर रहे थे। ये एक ऐसा धार्मिक और पवित्र मौक़ा था जिसमें लोगों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। शहर की संकरी गलियों में स्थानीय लोग श्रद्धाभाव से खड़े हुए थे। काले लिबास में नवाब, अनके अमीर और अधिकारी करबला में इमाम हुसैन के मक़बरे की तरह की ज़रीह उठाये मातम करते हुए जुलूस निकाल रहे थे।
ये ज़रीह ख़ाक-ए-शिफ़ा (रोग निवारक मिट्टी) की बनी हुई थी। विश्वास किया जाता है कि ये मिट्टी पैग़ंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन की क़ब्र से लाई गई थी और ये रोगनिवारक थी। सारी दुनिया के शिया मुसलमान इमाम हुसैन को अपना इमाम मानते हैं। ये मिट्टी मेहदी हसन नाम का एक व्यक्ति करबला (अब इराक़ में) से लाया था जहां वह बीस साल तक रहा था।
जुलूस एक इमामबाड़े पर आकर ख़त्म हुआ। इमामबाड़ा लोगों के जमा होने का वो स्थान था जहां वे इमाम हुसैन की शहादत को यादकर शोकसभा (मजलिस) करते थे। लखनऊ शहर में नवाबों द्वारा इमामबाड़े बनवाने की परंपरा रही थी लेकिन ये इमामबाड़ा किसी नवाब ने नहीं बनवाया था। इसे एक ज़नख़े ने बनवाया था। नूर बान, लखनऊ में काजीमेन के उत्तर-पश्चिम में दो सौ मीटर की दूरी पर जुलूस दयानतउद्दौला पर आकर ख़त्म हुआ जहां ज़रीह को रखा गया । इसे आज भी वहां देखा जा सकता है।
दयानतउद्दौला इमामबाड़ा लखनऊ के चर्चित स्मारकों में नही गिना जाता है लेकिन इसके साथ जुड़ी दिलचस्प कहानी और इसकी प्रभावशाली वास्तुकला की वजह से इसका अदब और तहज़ीब के शहर में एक अलग ही मुक़ाम है। इसका निर्माण अवध के दसवें और अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के “शहर के भीतर शहर” क़ैसर बाग़ में परीख़ाना या हरम के मुख्य ज़नख़े ने करवाया था जिसे दयानतउद्दौला का ख़िताब दिया गया था।
इस इमामबाड़े को करबला भी कहा जाता है। करबला शहर में इमाम हुसैन का मक़बरा है। दयानतउद्दौला इमामबाड़ा सोने के पानी का चढ़े अपने सुंदर गुंबद और क़ुरान की आयतों की उत्कृष्ट लिखाई के लिये जाना जाता है। इमामबाड़े के प्रवेश द्वार और दीवारों पर भी कलात्मक लिखाई थी लेकिन मरम्मत के दौरान पलस्तर में दब गईं।
इमामबाड़े के भीतर फूलों के सुंदर पैटर्न बने हुए हैं और अरबी में लक़दक़ करती फूल पत्तियां बनी हुई हैं। बरामदे में लकड़ी के दो खंबों पर रंगीन शीशों का काम तो बस देखते ही बनता है हालंकि बरामदे की ख़ुद की हालत काफ़ी दयनीय है।
लखनऊ के इमामबाड़े सैलानियों के लिए आकर्षण का मुख्य केंद्र हैं। दरअसल इन इमामबाड़ों की वजह से ही लखनऊ को“इमामबाड़ों का शहर”कहा जाने लगा है। लोग अकसर बड़ा इमामबाड़ा और छोटा इमामबाड़ा देखने जाते हैं लेकिन लखनऊ में दयानतउद्दौला जैसे कई अन्य इमामबाड़े हैं जो देखने लायक़ हैं।
लखनऊ शिया मुसलमानों का गढ़ रहा है और दयानतउद्दौला की तरह यहां इमामबाड़ों में महत्वपूर्ण शिया दरगाहों के प्रतिरुप बने हुए हैं। शिया वंश के नवाबों में इमाम हुसैन की शहादत की याद में अज़ादारी (मातम) को बढ़ावा देने की पारंपरा थी। करबला 61 ए .एच (10 अक्टूबर, 680) के युद्ध में इमाम हुसैन शहीद हुए थे।
लखनऊ शहर में पैग़म्बर मोहम्मद के परिवार के हर सदस्य के मक़बरे की नक़ल शबीह-ए-रोज़ा मौजूद हैं। इन्हें अहलेबैत कहा जाता है। इनका निर्माण नवाबों, कुलीन परिवार के सदस्यों और स्थानीय धनवान लोगों ने उन लोगों के लिये किया था जो मध्य पूर्वी देशों में स्थित असली दरगाहों पर नहीं जा सकते थे।
इमामबाड़ा क्या है?
इमामबाड़ा का अर्थ है इमाम का घर या इमाम का दरबार। इस शब्द की उतपत्ति उत्तर भारत में हुई थी। इमामबाड़ा एक ऐसा भवन है जिसमें एक सभागार होता है। इस सभागार में मजलिस (सभा) के लिये लोग जमा होते हैं। इमामबाड़े के मुख्य भवन को अज़ाख़ाना कहते हैं। इसके गुंबद के नीचे तीन फ़ुट ऊंचे चबूतरे पर इमाम हुसैन के मूल मक़बरे और करबला के युदध में शहीद हुए लोगों की क़ब्रों की नक़ल बनी होती है। ये चारों तरफ़ से ग्रिल से घिरी रहती हैं। श्रद्धालु ग्रिल तक आकर सजदा कर सकते हैं और चबूतरे को चूम सकते हैं। भवन में मजलिस के लिये एक या दो बड़े सभागार भी होते हैं।
मोहर्रम पर मातम के लिये लखनऊ का पहला इमामबाड़ा नवाब सफ़दर जंग (1167/1754)ने बनवाया था। लेकिन सन 1784 में नवाब असफ़उद्दौला ने मशहूर बड़ा इमामबाड़ा बनवा दिया। उसके बाद ही लखनऊ में कई महत्वपूर्ण इमामबाड़े बने। इनमें से कुछ इमामबाड़े महत्वपूर्ण लोगों के मक़बरे के रुप में बनवाए गए थे। इमामबाड़ों के निर्माण में मदद करना शिया मुसलमानों में नेकी का काम माना जाता था।
नवाबी दौर में ज़नख़ों की भूमिका
दयानतउद्दौला इमामबाड़ा मोहम्मद अली ख़ान ने बनवाया था जो ज़नख़ा था और जिसका वाजिद अली शाह के दरबार में महत्वपूर्ण स्थान हुआ करता था। मोहम्मद अली ख़ान मुख्य ज़नख़ा या ख़्वाजासरा था। जब उसे दयानतउद्दौला ( दयानतार अर्थात ईमानदार) का ख़िताब मिला तो उसने अपना नाम मुअतमिद अली ख़ान रख लिया। मुअतमिद अर्थात विश्वासपात्र । उसने अपने ख़ुद के लिये मक़बरा बनवाया था।
वाजिद अली शाह कला के बड़े संरक्षक थे और ख़ुद भी शायर और नृतक थे। उन्होंने कला और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिये लखनऊ में शानदार क़ैसर बाग़ बनवाया था। क़ैसर बाग़ में वाजिद अली शाह का परीख़ाना कोई मामूली हरम नहीं था। ये एक तरह की संगीत और नृत्य की अकादमी थी जहां बहुत कमसिन लड़कियों को नृत्य, गाने आदि की कला में निपुण किया जाता था और जो आगे चलकर दरबार की नृतकी, तवायफ़ या फिर बेगम बनती थीं।
नवाब वाजिद अली शाह बहुत ही शौकीन और रंगीन तबीयत के इंसान थे और वह क़ैसर बाग़ में कई शामें बिताया करते थे और परियों के नाच-गाने का लुत्फ़ लिया करते थे। इसके अलावा वह यहां हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों में भी हिस्सा लेते थे। परीख़ाने की देखभाल का ज़िम्मा उन्होंने मोहम्मद अली ख़ान को सौंप रखा था।
नवाबों के दरबार में ज़नखों की अहम भूमिका होती थी। नवाब उन्हें संपत्ति की देखरेख और कर वसूली का काम देते थे। कुछ का तो सियासी मामलों में भी अच्छा ख़ासा दख़ल होता था। वे शाही हरम और बाहरी दुनिया के बीच मध्यस्थ के रुप में भी काम करते थे। हरम की चहारदीवारी में रहने वाली बेगमें बाहरी दुनिया से संपर्क के लिये इनका इस्तेमाल करती थी और इनके ज़रिये दरबार के अधिकारियों को संदेश भिजवाती थी।
अमूमन मुख्य ज़नख़े या ख़्वाजासरा बहुत प्रभावशाली और ताक़तवर होते थे। कुछ तो कुशाग्र राजनयिक और सत्ता के दलाल भी होते थे। इसके अलावा कुछ ख़्वाजासरा सियासी मामलों में राजनीतिक भूमिका निभाते थे। कई ऐसे भी ख़्वाजासरा रहे हैं जिन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल निजी फ़ायदे के लिये किया।
अन्य कई ख़्वाजासरों की तरह मोहम्मद अली ख़ान या दयानतउद्दौला क़ानून से परे था और एक ऐसे संस्थान का रखवाला था जो नवाब के दिल के बहुत क़रीब था।
*मुख्य चित्र – दयानतउद्दौला इमामबाड़ा – विकिमीडिआ कॉमन्स
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