राजस्थान का पश्चिमी भाग विशेषतः मारवाड़ क्षेत्र प्रतिहार कालीन संस्कृति एवं कला की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध रहा है। नागौर ज़िले का अंचल उसका अभिन्न अंग है। स्थापत्य एवं मूर्ति कला की गौरवशाली परम्परा इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही विद्यमान रही है। यहाँ प्रतिहार, चौहान व राठौड़ कालीन स्थापत्य एवं मूर्ति कला के अनेक अनुपम उदाहरण मिलते हैं।
इनमें से मुख्य रूप से महामारू शैली में निर्मित दधिमति माता गोठ-मांगलोद, गुणेश्वर महादेव मंदिर किष्किन्धा केकिन्द, देवी मंदिर भंवाल उल्लेखनीय है। इनके अलावा ज़िले भर में कई जगहों पर यत्र-तत्र स्थित प्राचीन धरोहरों के रूप में स्थापत्य, शिल्प एवं मूर्तिकला का परिचय मिलता है। नवरात्रि के पावन पर्व पर चलिए नागौर ज़िले का सबसे प्राचीन दधिमति माता के मंदिर के इतिहास के बारे में जानते हैं।
दधिमति माता मंदिर :-
नागौर ज़िला मुख्यालय से 40 कि.मी. दूर जायल तहसील में स्थित दधिमति माता का यह प्राचीन मंदिर गोठ तथा मांगलोद गांवों के मध्य में स्थित है जो प्रतिहार कालीन मंदिर स्थापत्य का सिरमौर है। दाहिमा (दाधीच) ब्राह्मणों के अलावा अग्रवाल, माहेश्वरी, जाट, राजपूत सहित आदि वंश-गौत्र की कुल देवी को समर्पित यह मंदिर भारतीय स्थापत्य एवं मूर्तिकला का गौरव है। पुरातत्त्व एवं संग्रहालय विभाग राजस्थान द्वारा संरक्षित शिखरबद्ध यह मंदिर पूर्वाभिमुख है। वेदी बंध की सादगी जंघा, भाग में रथिकाओं में देवी देवताओं की मूर्तियां, मंडोवर व शिखर की मध्यवर्ती कंठिका में चारों ओर रामायण दृश्यावली, नागरशैली का भव्य शिखर प्रतिहारकालीन परम्परा के अनुरूप है। यह महा-मारू शैली के मंदिर का सुंदर उदाहरण है।
राजस्थान की प्रतिहार कालीन मूर्तिकला में रामायण दृश्यावली का प्राचीनतम अंकन दाधिमति माता मंदिर में ही प्राप्त होता है। शिखर भाग में 15 बड़े फलकों में राम वनवास से लंका विजय तक के दृश्य मनमोहक तरीके से बनाये हुए हैं। गर्भगृह द्वारा पंच शाखा, लता शाखा, नाग शाखा, रूप शाखा, कीर्ति मुख शाखा व चैत्य मुखों के मध्य रूप शाखा से युक्त हैं।
मण्डप स्तम्भों पर कीर्ति मुखों, चैत्य मुखों, घट पल्लव, पूर्ण खिले कमलों व अन्य पुष्पा कृतियों का सुन्दर अंकन है। जंघा भाग पंचरथ है जिसके पश्चिम की ओर मध्यवर्ती प्रधान ताख में आसनस्थ चतुर्भुजी दुर्गा, उतर की ओर गौरी, दक्षिण की ओर गणपति की प्रतिमाएं विद्यमान हैं। साथ ही कर्णरथ पर द्विबाहु स्थानक दिग्पाल वाहन सहित अंकित हैं। मेषवाहना अग्नि महीषवाहना यम, नरवाहना नैऋत्य तथा मकरवाहना वरूण का भी सुन्दर अंकन है। प्रतिरथ में द्विबाहु स्थानक चामरधारिणी का अंकन है। इस मंदिर की एक विशेष मूर्ति गोधासना गौरी का अंकन गुप्तकाल के उत्तरार्द्ध से मिलता है।
डॉ. डी.बी. क्षीर सागर के अनुसार इस मंदिर की मूल प्र्रशस्ति से सम्बन्धित अभिलेख को पण्डित रामकरण आसोपा ने लगभग 100 वर्ष पूर्व प्रकाशित किया था। इसे मारवाड़ के प्राचीनतम अभिलेख की संज्ञा देते हुए उसमें अंकित तिथि संवत्सर सतेषु 289 श्रावण ब (दि) 13 (16 जुलाई सन 608 ) की उन्होनें गुप्त संवत् से जोड़ते हुए गुप्तकालीन (289 + 319 = 608 ई.) वि.सं. 665 बताया था। संभवतः यह मंदिर प्रतिहार नरेश भोजदेव प्रथम (836-892 ई.) के समय में बना था। दौलतपुरा के विक्रम संवत् 900 (843 ई.) के ताम्रपत्र में भगवती का अंकन का प्रमाण मिलता है।
दूसरी किवदंती के अनुसार पंवार वंश के राजा मान्धाता ने यहाँ विशाल यज्ञ किया था। हवन के दौरान बनाए गए चार कुण्ड में गंगा, यमुना, सरस्वती व नर्मदा नदी का जल प्रकट हुआ था। मंदिर के पास स्थित कपाल कुण्ड जन आस्था का प्रमुख केन्द्र है। पुराणों के अनुसार दधिमति माता महर्षि दधीचि की बहन है। इन्हें देवी लक्ष्मी का अवतार भी माना जाता है। देवी ने ही दैत्य विताकासुर का वध किया था। माता का प्राकट्य लगभग दो हज़ार साल वर्ष पहले हुआ था। इस मंदिर में माता के कपाल (चेहरे) की पूजा अर्चना होती है। चैत्र व आसोज नवरात्रा के दोरान विशाल आयोजन के तहत मेला व सप्तमी के दिन माता की शौभायात्रा मंदिर के कपाल कुण्ड तक निकाली जाती है एवं रात्रि जागरण होता है।
मुग़ल काल में इस मंदिर को खण्डित करने का प्रयास किया गया था। मगर यहाँ शक्ति के रूप में मौजूद सैंकड़ो मधुमक्खियों ने मुग़ल सेना पर हमला कर दिया था। मान्यता है कि कलयुग के बढ़ते प्रभाव से इस मंदिर के सभा मण्डप में से एक अधर स्तम्भ ज़मीन से चिपकता जा रहा है।
मंदिर के आस-पास क्षेत्र में जिप्सम खनिज का प्रचुर मात्रा में भंडार उपलबध है जिसका उपयोग रासायनिक ऊवर्रक, फ़िल्मी सेट, मूर्तिया व खिलौने बनाने में उपयोग होता है। दाधीच समाज के लोग अपने बच्चों के रिश्ते मंदिर परिसर में माँ के समक्ष ही पक्का करते है। साथ ही भक्तों द्वारा जात-जड़ले भी दिए जाते हैं। माता का प्रतिदिन दुग्धाभिषेक करने के बाद विशेष शृंगार किया जाता है।
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