बेंगलुरु से उत्तर पश्चिम की ओर क़रीब 200 कि.मी. दूर जाने पर आपको एक ऐसा शहर मिलेगा जिसके साथ दिलचस्प इतिहास जुड़ा हुआ है। कर्नाटक का चित्रदुर्ग दक्षिण भारत के प्रमुख राजवंशों के लिये एक महत्वपूर्ण स्थान था और चित्रदुर्ग क़िले में दबी हैं कई कहानियां जो हमें उसका इतिहास बताती हैं। उनमें से एक कहानी बहादुर महिला ओबव्वा की भी है जिसने 18वीं शताब्दी में मैसूर के सुल्तान हैदर अली की सेना के हमले से क़िले को बचाया था।
चित्रदुर्ग को चित्रकलदुर्ग नाम से भी जाना जाता है। चित्रदुर्ग ग्रेनाइट की उबड़ खाबड़ वाली पर्वत श्रंखला से घिरे एक विशाल क़िले के नीचे चित्रदुर्ग ज़िले में स्थित है। इसके आसपास शिलाखंड हैं। पथरीली घाटी और विशाल शिलाखंड एक तरह से क़िले के सुरक्षा का काम करते थे जो कुछ पहाड़ियों में फैला हुआ है। कहा जाता है कि ये शिलाखंड देश की सबसे पुरानी चट्टानों में से एक हैं।
वेदवती नदी की रमणीय घाटी में स्थित चित्रदुर्ग का इतिहास तीसरी ई.पू. सदी से जुड़ा हुआ है। यहां ब्रह्मगिरी नामक स्थान में छोटी चट्टानों पर अशोक के फ़रमान अंकित हैं जिनसे ये संकेत मिलता है कि उत्तरी चित्रदुर्ग ज़िला तीसरी ई.पू. सदी में मौर्य साम्राज्य का हिस्सा रहा होगा। मौर्य के बाद यहां सातवाहन राजवंश का शासन हो गया था जिन्होंने ई.पू. दूसरी सदी से लेकर दूसरी ईस्वी शताब्दी तक दक्कन पर राज किया था। चित्रदुर्ग के पास सातवाहन शासक शतकर्णी के समय के सिक्के और पड़ौसी ज़िले शिमोगा में उसका एक अभिलेख मिला है जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि दूसरी ईस्वी के आसपास इस क्षेत्र पर सातवाहनों का शासन हुआ करता था।
चित्रदुर्ग में आज भी इतिहास कि एक झलक दिखती है और उसका एक हिस्सा है विशाल चित्रदुर्ग क़िला। इसे समझने के लिये चित्रदुर्ग के राजनीतिक इतिहास को भी समझना ज़रुरी है। सातवाहनों के बाद यहां कदंब राजवंश का शासन (चौथी से छठी ईस्वी) हो गया था जो चालुक्य साम्राज्य में जागीरदार हुआ करते थे।
अगले कुछ वर्षों तक यहां राष्ट्रकूट, चालुक्य और होयसल जैसे दक्षिण भारतीय राजवंशो का शासन रहा। होयसल ने वर्तमान समय के कर्नाटक के अधिकतर हिस्सों पर 10वीं और 14वीं शताब्दी के दौरान शासन किया था। इन क्षेत्रों में ताक़तवर होने के बाद होयसल ने बेम्माट्टंकल्लू (मौजूदा समय में चित्रदुर्ग) को अपनी राजधानी बना लिया। लेकिन 14वीं शताब्दी में होयसल दिल्ली सल्तनत द्वारा आक्रमणों का शिकार हो गए। ये वो समय था जब विजयनगर साम्राज्य का उदय हुआ था और चित्रदुर्ग भी एक महत्वपूर्ण क्षेत्र बना।
चित्रदुर्ग का पालेगरों या नायकों से गहरा संबंध रहा जिन्होंने यहां सन 1558 से लेकर सन 1779 तक शासन किया था। चित्रदुर्ग नायक ने विजयनगर के राजाओं के साथ अपने संबंधों पर अपने शासन की वैधता को आधार बनाय। उन्होंने विजयनगर के शासकों का ध्यान आकर्षित जिसके बाद वे स्थानीय राज्यपालों के रूप में नियुक्त हुए। पहला नायक शासक थिमन्ना नायक था जिसे विजयनगर साम्राज्य ने 16वीं शताब्दी में चित्रदुर्ग का गवर्नर नियुक्त किया था। सन 1588 में थिमन्ना का पुत्र ओबन्ना या मदरी नायक उनका उत्तराधिकारी बना। इसका चित्रदुर्ग क़िले से गहरा संबंध रहा है।
चित्रदुर्ग क़िले को स्टोन फ़ोरट्रेस (कल्लिना कोटे) के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि चालुक्य और होयसल शासकों ने क़िले के निर्माण में योगदान किया था। लेकिन ये भी कहा जाता है कि क़िले के निर्माण में सबसे ज़्यादा योगदान चित्रदुर्ग के नायकों ने किया था। ओबन्ना नायक ने विजयनगर से ख़ुद को आज़ाद घोषित करने के बाद क़िले पर कब्ज़ा कर चित्रदुर्ग को अपनी राजधानी बना लिया था। चित्रदुर्ग पर सन 1779 तक उनके उत्तराधिकारियों का कब्ज़ा रहा। चित्रदुर्ग का अंतिम नायक मदकरी नायक-पंचम था। 18वीं शताब्दी के अंत में मध्य कर्नाटक पर नियंत्रण को लेकर मराठों और मैसूर के हैदर अली के बीच जंग छिड़ गई थी और तभी चित्रदुर्ग की राजनीति में अस्थिरता आ गई।
सन 1779 में हैदर अली ने चित्रदुर्ग पर कब्ज़ा कर लिया। चित्रदुर्ग क़िले के विस्तार और मज़बूती का श्रेय हैदरअली और उसके पुत्र टीपू सुल्तान को जाता है। सन 1799 में मैसूर के चौथे युद्ध में अंगरेज़ों के हाथों टीपू सुल्तान की हार के बाद क़िला मैसूर प्रांत में आ गया। अंगरेज़ इसे चीतलदुर्ग कहते थे। उनके लिये क़िले का बहुत महत्व था क्योंकि इससे मैसूर की उत्तरी सीमा की अच्छी तरह से सुरक्षा की जा सकती थी। अंगरेज़ सन 1802 तक क़िले में अपने सैनिक रखते थे यानी उन्होंने क़िले को एक छावनी में तब्दील कर दिया था। बाद में ये क़िला मैसूर सरकार को सौंप दिया गया। चित्रदुर्ग पर गहन अध्ययन करने वाले इतिहासकार बैरी लुईस अपनी रिपोर्ट चित्रदुर्ग: स्पैशल पैटर्न्स ऑफ़ ए नायक पीरियेड सक्सेसर स्टेट इन साउथ इंडिया में लिखते हैं- चित्रदुर्ग पर जिसका कब्ज़ा होता था उसका प्रांत (मैसूर) पर नियंत्रण होता था।
क़िले की सात सुरक्षा प्राचीरें हैं और हर थोड़ी दूरी पर विभिन्न आकार के दुर्ग हैं। इनमें से तीन दुर्ग पहाड़ी के नीचे और बाक़ी चार दुर्ग पहाड़ी के ऊपर हैं। क़िले की दीवार क़रीब 8 कि.मी. लंबी है। बाहरी दीवार में चार दरवाज़े हैं। क़िले के बाहर की तीन दीवारों के नीचे गहरी खंदक है। कहा जाता है कि क़िलेबंदी ऐसी की गई थी कि क़िले के 19 प्रवेश द्वार थे, 38 चोर दरवाज़े थे और 35 गुप्त द्वार थे। किले में निगरानी के लिये दो हज़ार बुर्ज थे।
चित्रदुर्ग क़िला क्षेत्र के बाक़ी क़िलों से अलग है। इसके विशाल महल, इसकी वास्तुकला, क़िले के उतार-चढ़ाव और अन्य वास्तुशिल्पी संबंधी चीज़े अन्य क़िलों से एकदम भिन्न हैं। क़िले के ज़्यादातर हिस्सों को हैदर अली और टीपू सुल्तान ने पत्थरों से मज़बूत करवाया था। ऐसा कहा जाता है कि पहले क़िले में काफी निर्माण मिटटी से किया गया था। मिट्टी की संरचनाओं के कुछ अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं।
क़िलेबंदी के अंदर क़रीब 18 मंदिर हैं। ये मंदिर सिद्देशवर, हिडिंबेश्वर, फालगुनेश्वर, गोपालकृष्ण, गणेश, अनजन्य और एकांतेश्वर को समर्पित हैं। लुईस ने अपनी रिपोर्ट में ये भी लिखा है कि चित्रदुर्ग क़िले में प्रांत के सबसे बड़े और सुंदर मंदिर हैं जिसकी वजह से शहर की ख्याति बढ़ी है। ज़्यादातर मंदिर ग्रेनाइट से बने हैं और इनकी वास्तुकला विजयनगर शैली की है। इन्हें चित्रदुर्ग नायकों ने बनवाया और सजाया था। हिडिंबेश्वर मंदिर को क़िले का सबसे पुराण मंदिर माना जाता है।
क़िले में अन्न भंडार, तेल टैंक और बड़े-बड़े सिल बट्टे जैसी चीज़े भी हैं। मिट्टी के बने महलों के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। बरसात के पानी को जमा करने के लिये क़िले में कई प्राकृतिक तथा पत्थरों के बनाए कुएं थे। क़िले में एक मस्जिद भी है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण हैदर अली या टीपू सुल्तान के समय हुआ था। ये क़िला अच्छी तरह संरक्षित है और इसके ज़्यादातर हिस्से सही सलामत हैं। क़िले की घेराबंदी की स्थिति से निपटने के लिए क़िले के अंदर गोदाम, गड्ढे और जलाशय बनाए गए थे। यहां सैनिकों के लिये रसद की सप्लाई का भी इंतज़ाम किया गया था। ये तमाम चीज़ें अभी भी मौजूद हैं।
क़िले में रहने वाली एक महिला को लेकर एक दिलचस्प कहानी है जो लोकप्रिय हो चुकी है। हैदर अली ने तीन युद्ध लड़े थे और इसी दौरान ओबव्वा नाम की महिला सुर्ख़ियों में आई। माना जाता है कि ओबव्वा का पति मुड्डा हनुमा क़िले की तरफ़ जाने वाले गुप्त मार्ग पर एक सकरे दर्रे पर पहरा देता था। एक दिन जब वह पहरा देकर वापस घर लौटा, ओबव्वा उसके लिये पानी लेने बाहर निकली। तभी उसने देखा कि हैदर अली के सिपाही गुप्त मार्ग से क़िले में घुसने की कोशिश कर रहे हैं। पति को सोता देख, ओबव्वे ने एक मूसल उठाया और सिपाहियों पर टूट पड़ी। इस तरह ओबव्वे ने क़िले की रक्षा कर ली। इस संकरे दर्रे को आज ओबव्वा के सम्मान में ओबवन्ना किंडी या विनाके किंडी कहते हैं। ओबव्वा को आज भी उसकी बहादुरी के लिये याद किया जाता है।
दिलचस्प बात ये है कि चित्रदुर्ग उन स्थानों में से एक था जहां टीपू सुल्तान ने मैसूर-रॉकेट के अध्ययन के लिये सैन्य रिसर्च संस्थान बनाए थे।
क़िले के एक प्रवेश द्वार को रंगायन बागिलू कहते हैं और यहां आज एक पुरातत्व संग्रहालय है। हालंकि कर्नाटक के होसादुर्ग और कणाकुप्पा भी चित्रदुर्ग क़िले की तरह ही विशाल हैं लेकिन इन क़िलों के अंदर ऐसा कुछ बचा नहीं रह गया है जिससे पता लगे कि यहां महल, शाही निवास आदि भी हुआ करते होंगे जोकि चित्रदुर्ग क़िले की क्षेत्रीय वास्तुशिल्प परंपरा में नज़र आती है।
चित्रदुर्ग कर्नाटक के इतिहास का एक महत्पूर्ण स्थान तो है ही साथ ये वास्तुकला का भी अद्भुत उदाहरण है जिसे ज़रुर देखना चाहिये।
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