जो सुख छज्जू के चैबारे, न बल्ख़, न बुख़ारे
लाहौर में मौजूद है ‘छज्जू का चैबारा’ और ‘छज्जू भगत की समाधि’
पंजाबी का एक प्रसिद्ध मुहावरा है ”जो सुख छज्जू दे चैबारे, न बल्ख़, न बुख़ारे”। जिसका अर्थ है, अपने घर जैसा सुख कहीं और नहीं मिलता। सामान्य तौर पर इस मुहावरे का इस्तेमाल बोल-चाल के दौरान अनेकों बार किया जाता है, परन्तु बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि आखिर ये मुहावरा बना कैसे? और इसमें ‘छज्जू का चैबारा’ कैसे और क्यों जुड़ा?
यह अचरच की बात है कि बल्ख़-बुख़ारे (मध्य एषिया के दो प्रमुख शहर) से भी ज्यादा सुख और सुकून देने वाला छज्जू का चैबारा न तो काल्पनिक है और न ही इस शब्द को महज़ तुक-बंदी करने के लिए इस्तेमाल किया गया है। असल में छज्जू का चैबारा, जो देश के बँटवारे से पहले हिंदुओं का प्रसिद्ध धर्मिक स्थल हुआ करता था, आज भी पाकिस्तान के शहर लाहौर में मौजूद है।
इतिहास का अध्ययन करें तो पता चलता है कि छज्जू भाटिया लाहौर के निवासी थे और मुगल बादशाह जहांगीर और शाहजहां के समय लाहौर में सुनार का कारोबार करते थे। हर समय प्रभू भक्ति तथा साधू, फकीरों और राहगीरों की सेवा में व्यस्त रहने के कारण वे छज्जू भाटिया की बजाए ‘छज्जू भगत’ नाम से विख़्यात हो गए।
भाई काहन सिंह नाभा ‘महान कोष’ के पृष्ठ 485 पर छज्जू भगत के संबंध में लिखते हैं कि छज्जू भगत के सम्प्रदाय को लोग छज्जू पंथी या दादू पंथी कहकर संबोधित करते थे। इस सम्प्रदाय के नियम अपने आप में हिंदू तथा मुस्लिम धर्म-नियमों का सुमेल थे। छज्जू भगत के अनुयायी न तो नशा करते थे और न ही माँस खाते थे| छज्जू भगत के बारे में यह भी पढ़ने में आता है कि इन्होंने ही पहली बार सूफी कवि लाल हुसैन को शाह हुसैन कहकर संबोधित किया था। सिख विद्वानों के अनुसार छज्जू भगत ने लाहौर में ही पहली बार गुरू अर्जन साहिब के दर्शन किए थे।
19वीं सदी के प्रख्यात इतिहासकार सय्यद मोहम्मद लतीफ ‘लाहौर-1892’ के पृष्ठ 207 पर लिखते हैं-”छज्जू भगत की अति धार्मिक एवं दयालू प्रवृत्ति के कारण बादशाह जहांगीर और शाहजहां के दिल में उनके लिए विशेष इज्ज़त थी। हिंदू-मुस्लिम उनकी किसी अवतार की भांति पूजा करते थे। अपने अंत समय छज्जू भगत अपने कमरे के भीतर गए और काफी समय तक बाहर नहीं आए। उनके अनुयाईयों ने जब वह कमरा खोला तो छज्जू भगत वहां से आलोप हो चुके थे। जिस के बाद उन्होंने उसी कमरे में एक संगमरमर का ऊँचा थड़ा तैयार कर उस पर छज्जू भगत की समाधि बना दी। बाद में इस समाधि स्मारक तथा आश्रम में गद्दीनशीन महंत बावा प्रीतम दास ने इस स्थान पर बहुत बड़ा मंदिर तथा धर्मशाला बनवा दी। जिसे छज्जू भगत का चैबारा कहा जाने लगा। उसी दौरान इस स्थान के चारों ओर सुंदर बगीचियां व एक तालाब भी बनवाया गया।”
दरिया रावि इस स्थान से ज्यादा दूर न होने के कारण इस ओर से आने वाली शीतल हवा के झोंके और आस-पास का खूबसूरत नज़़ारा यहां ठहरने वाले लोगों को अवश्य मंत्र-मुग्ध कर देता होगा। बताया जाता है कि यहां ठहरने वाले साधू, फकीरों व यात्रियों को खाने के लिए निःशुल्क भोजन, मिठाईयां, फल तथा पहनने के लिए वस्त्र भी दिए जाते थे। महाराजा रणजीत सिंह ने अपने शासन के दौरान यहां दो शाही हकीम भी पक्के तौर पर नियुक्त कर रखे थे, जो लोगों की निःशुल्क चिकित्सा देते थे। अवष्य ही यहां इस प्रकार की मिलने वाली सेवायों और इस स्थान के आस-पास के शांत तथा मन-मोहक वातावरण के कारण इस स्थान से संबंधित यह मुहावरा ”जो सुख छज्जू दे चैबारे, न बल्ख़, न बुख़ारे” प्रसिद्ध हो गया होगा।
डिस्ट्रिक्ट गज़ेटीयर लाहौर के अनुसार छज्जू भगत के चैबारे वाले स्थान पर प्रत्येक सोमवार तथा मंगलवार को कीर्तन हुआ करता था। स्थान की सेवा करने वाले ब्रह्मचारी दादूपंथी महन्त सिर के बाल कटवाकर रखते थे और सिर पर गेरू लाल रंग की पगड़ी पहनते थे। वे जिस ग्रंथ से पाठ प्रवचन करते थे, उसे ‘दादू राम की बानी’ कहा जाता था।
सय्यद मोहम्मद लतीफ ‘लाहौर-1892’ के ही पृष्ठ 242 पर लिखते हैं-”छज्जू भगत शुरू-शुरू में जिस स्थान पर भजन-बंदगी करने के लिए जाते थे, वह स्थान लाहौर के ढाल मुहल्ले में है। इस स्थान की देखभाल एक वृद्ध महिला करती थी; जो हर बैसाखी पर हरिद्वार में गंगा स्नान के लिए जाती थी। एक बार गंगा में पानी का बहाव बहुत चढ़ जाने के कारण छज्जू भगत ने उसे कहा कि वह हरिद्वार न जाए, वे उसे यहीं पर गंगा स्नान करा देंगे। जब उसने छज्जू भगत की बात मानकर आँखें बंद कीं तो उसे ऐसे महसूस हुआ जैसे वाकई वह स्वयं गंगा में स्नान कर रही हो। इस के बाद वह पक्के तौर पर छज्जू भगत की श्रद्धालु बन गई और इस स्थान की सेवा करने लगी। नूर अहमद चिश्ती ने भी ‘तहकीकात-ए-चिश्ती’ में छज्जू भगत तथा उनके उक्त चैबारे का विशेष रूप से वर्णन किया है।
लाहौर की आबादी पुरानी आनारकली में रतन चंद की सराय के दक्षिण में म्याऊँ अस्पताल के साथ सटे छज्जू भगत के चैबारे पर अस्पताल का कब्जा कायम है, जबकि छज्जू भगत की समाधि आज भी मौजूद है।
इस समाधि की ऊँचाई 20 फुट और इसके अंदरूनी फर्श की लंबाई 16.7 फुट है। देष के बँटवारे से पहले समाधि के फर्श पर लाल रंग का कीमती पत्थर लगा हुआ था, कुछ वर्ष पहले उसके ऊपर सात ईंच मोटा सीमेंट का पलस्तर कर देने के कारण अब लाल पत्थर अथवा पुराने फर्श की कोई निशानी नज़र नहीं आती। समाधि की छत्त पर रंग-बिरंगे शीशों की कटाई कर की गई मीनाकारी लाहौर शाही किले के शीश महल की हू-ब-हू नकल दिखाई पड़ती है और यह सज़ावट आज भी कायम है।
खैर, फिलहाल यह कहना तो मुश्किल होगा कि छज्जू भगत की समाधि और कितने लंबे समय तक सुरक्षित रह सकती है, परन्तु यह बात आईने की तरह साफ है कि पंजाबियों के प्रसिद्ध मुहावरे ”जो सुख छज्जू दे चैबारे, न बल्ख़, न बुख़ारे” में मौजूद ‘छज्जू के चैबारे’ की एकमात्र बची निशानी उक्त समाधि का भविष्य ज्यादा सुरक्षित प्रतीत नहीं होता।
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