मई सन 2019 में उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्व विभाग ने एक ऐसी दिलचस्प खोज की जिससे पूरे लखनऊ शहर में खलबली मच गई। गोमती नदी के तट पर 220 साल पुराने छतर मंज़िल पैलेस के स्थान पर खुदाई चल रही थी, तभी वहां 42 फ़ुट लंबी और 11 फ़ुट चौड़ी गोंडेला नाव मिली जो नवाबों के समय की है। इस तरह की पारंपरिक नाव का पेंदा चपटा होता है। इस खोज ने जीर्ण-शीर्ण अवस्था वाले पैलेस पर एक नयी रौशनी डाल दी है। अभी कुछ समय पहले तक पैलेस में सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट का दफ़्तर हुआ करता था।
छतर मंज़िल या अंब्रेला पैलेस हाई कोर्ट की पुरानी बिल्डिंग के सामने लखनऊ की महात्मा गांधी रोड पर स्थित है। ये कभी लखनऊ की बेगमों का निवास हुआ करता था। इसका संबंध लखनऊ दरबार में रहे फ्रांस के प्रसिद्ध यात्री क्लॉड मार्टिन (1735-1800) की कोठी से भी रहा है।
सन 1775 में नवाब आसफ़उद्दौला ने फ़ैज़ाबाद को छोड़कर लखनऊ को अवध की राजधानी बना लिया था। यहीं उन्होंने रुमी दरवाज़ा और बड़ा ईमामबाड़ा जैसी भव्य इमारतें और एक शानदार दरबार बनवाया था। लखनऊ दरबार की धन-दौलत की वजह से देश-विदेश से व्यापारी और यात्री अपनी क़िस्मत आज़माने लखनऊ आया करते थे।
इन्हीं विदेश यात्रियों में एक यात्री थे मेजर जनरल क्लॉड मार्टिन (5 जनवरी 1735-13 सितंबर 1800)। मार्टिन फ़्रांस के लियोंस शहर से आये थे और वह पहले फ्रांसिसी सेना और बाद में भारत में इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करने लगे थे। आसफ़उद्दौला द्वारा लखनऊ को राजधानी बनाने के एक साल बाद मार्टिन सन 1776 में लखनऊ आ गए। वास्तुकला में महारत की वजह से मार्टिन को शहर में बहुत प्रसिद्धी मिल गई थी। आसफ़उद्दौला के क़रीबी होने की वजह से उन्हें नवाबी लखनऊ के विकास में हिस्सा लेने का मौक़ा मिला। मार्टिन और आसफ़उद्दौला दोनों की कोशिशों से लखनऊ शहर में कई यादगार इमारतें बनवाई गईं।
फ़रहत बख़्श कोठी, शहर की स्थापत्यकला के बेहतरीन नमूनों में से एक है जिसे आज छतर मंज़िल के नाम से जाना जाता है। भवन की बनावट की वजह से इसका नाम छतर मंज़िल पड़ गया। मेजर जनरल क्लॉड मार्टिन ने अपने निवास के पास गोमती नदी के किनारे के जंगलों को साफ़ कर फ़रहत बख़्श कोठी बनाई थी जिसे वह अपना टाउन हाउस कहते थे। मार्टिन का शहर के बाहर भी एक बड़ा घर था जिसे कॉन्स्टेंटिया कहते थे और जहां अब ला मार्तिनियर कॉलेज है। फ़रहत बख़्श कोठी का निर्माण कार्य सन 1781 में पूरा हो गया था और मार्टिन यहां सन 1800 तक रहे। यहीं एक कमरे में उनका निधन हुआ था। उनकी इच्छानुसार उन्हें कोंस्टेशिया में ही दफ़्न किया गया जो अब लड़को का ला मार्टिनियर कॉलेज है। मार्टिन ने यहां अपनी क़ब्र के लिये एक शव कक्ष पहले से ही बनवा रखा था।
फ़रहत बख़्श कोठी या छतर मंज़िल उस समय एक अनूठी इमारत थी। भवन का भू-तल भी दो मंज़िला था, ये मंज़िलें तभी नज़र आती थीं जब नदी का जलस्तर बहुत कम हो जाता था। इस तरह के तलघर बहुत बड़े होते थे और मॉनसून में जब नदी का जलस्तर बढ़ जाता था तब इनमें पानी भर जाया करता था। ऐसे में ये तलघर ख़ाली छोड़ दिए जाते थे और नदी का जलस्तर कम होने पर ही यहां वापसी होती थी। तलघर के दो तरफ़ अष्टकोणीय मीनारें थीं, जहां से हवा आती थी ताकि तलघर ठंडा रहे। हाल ही में मिली शाही गोंडोला नाव से इन बातों को बल मिलता है।
इमारत की छत पर एक गुंबदनुमा भवन है जिस पर छतरी बनी हुई है और जो काफ़ी सुसज्जित है। छतरी की वजह से ही इसका नाम छतर मंज़िल या अंब्रेला पैलेस पड़ा है।
तलघर के ऊपर यानी भवन की पहली मंज़िलपर एक बड़ा हॉल था जो नदी के ऊपर उत्तर दिशा तक फैला हुआ था। हॉल के लिये नदी पर बांध बनाए गए थे और हॉल मेहराबों पर टिका हुआ था। भवन में हवादार मंडप भी होते थे। छत पर इंग्लैंड से मंगवाए गए दो टेलिस्कोप लगाए गए थे जिनसे खगोलीय अध्ययन किया जाता था। हालंकि मार्टिन ने शादी नहीं की थी लेकिन उनकी प्रेमिका के लिये भवन के एक तरफ़ बाग़ के साथ एक ज़नानाख़ाना बनवाया गया था।
मई सन 1781 में जब कोठी लगभग बनकर तैयार हो गई थी तभी मार्टिन के दुश्मनों ने इस पर हमला बोल दिया था। अपने नये घर की रक्षा के लिये मार्टिन ने घर के तीन तरफ़ खंदक़ें खुदवा दी थीं। चौथी चरफ़ नदी हुआ करती थी।मार्टिन ने इसके अलावा प्रवेश के लिये एक बड़ा मेहराबदार ड्रॉ-ब्रिज बनवाया था।
भवन के मुख्य हॉल में मार्टिन का पुस्तकालय और संग्रहालय हुआ करता था। उनके पास फ़्रांसिसी और अंग्रेज़ी की क़रीब चार हज़ार किताबें थीं। इसके अलावा फ़ारसी भाषा में हस्तलिखित पांच सौ किताबें भी थीं। एक अंगरेज़ सैलानी ने मार्टिन के संग्रहालय को बेइंतहा आनंद देने वाले संग्रहालय की संज्ञा दी थी। यहां बड़े शीशे, चाइना और कांच के बर्तन, आतिशबाज़ी, चीनी खिलौने, जैविक नमूने (जिनमें एक महिला का कंकाल भी शामिल था), कठपुतली थिएटर का सामान तथा घड़ियों के अलावा भाप के इंजिन, प्रिंटिंग प्रेस, जादुई लालटेन जैसे आधुनिक सामान भी होते थे। मार्टिन के पास पेंटिंग्स का भी बड़ा संकलन था।
सन 1797 में गवर्नर जनरल शोर यहां आया था और उसने कहा था कि यहां रखे सामान को देखने के लिये कम से कम एक हफ़्ते का समय चाहिये। जनरल की टिप्पणी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि मार्टिन का संकलन कितना बड़ा होगा।
मार्टिन के निधन के बाद उनके स्पेनिश सहयोगी जोसेफ़ क्वेइरोस ने निवास की नीलामी कर इसे चालीस हज़ार रुपये में ख़रीद लिया। नीलामी में अवध के नवाब सआदत अली ख़ान ने भी बोली लगाई थी लेकिन जोसेफ़ ने ज़्यादा बोली लगाकर इसे ख़रीद लिया था। बहरहाल, इस बीच नवाब बीमार पड़ गए और आब-ओ-हवा बदलने के लिये उन्होंने ये कोठी ले ली। बीमारी से उबरने के बाद नवाब ने इसे ख़रीद ने के लिये क्वेइरोस पर ज़ोर डलवाया। ये कोठी अवध के नवाबों और राजाओं का काफ़ी समय तक निवास स्थान रहा। बाद में वाजिद अली शाह (1847-1856) ने क़ैसर बाग़ को अपना निवास स्थान बना लिया। इसे राजा का क़स्र-ए-सुल्तान भी कहा जाता था।
नवाब सआदत अली ख़ान ने फ़रहत बख़्श कोठी के पास लाल बारादरी और चीना बाज़ार बनवाया। उनके पुत्र ग़ाज़ीउद्दीन हैदर, जो अवध के पहले राजा थे, ने फ़रहत बख़्श कोठी के पास एक बाग़ बनवाया जहां मूर्तियों की क़तारे थीं। इसका नाम उन्होंने गुलिस्तान-ए-इरम (स्वर्गिक का बाग़) रखा था। बाग़ के सामने उन्होंने दर्शन विलास के नाम से एक कोठी भी बनवाई थी। फ़रहत बख़्श कोठी में ग़ाज़ी उद्दीन हैदर के आधुनिकीकरण तथा अन्य निर्माण से ही छतर मंज़िल का उदय हुआ था हालंकि सन 1827 में उनके निधन के समय तक ये निर्माण अधूरे थे।
छतर मंज़िल परिसर का हिस्सा छतर मंज़िल भवन का निर्माण कार्य नवाब सआदत अली ख़ान ने अपनी हिंदू मां छतर कंवर की याद में शुरु करवाया था लेकिन निर्माण कार्य उनके तीसरे पुत्र ग़ाज़ीउद्दीन हैदर शाह ने सन 1810 में पूरा करवाया। उन्होंने इसी तरह का एक और छोटा भवन बनवाया था जिसे छोटी छतर मंज़िल कहते थे। पहली इमारत को बड़ी छतर मंज़िल कहा जाता था। दोनों इमारतों के ऊपर गुंबद पर छतरियां थीं। छतर मंज़िल अपनी इन सोने की छतरियों की वजह से जाना जाता था।
ये महल परिसर सन 1856 तक लखनऊ के शाही परिवार का निवास स्थान रहा। सन 1856 में नवाब वाजिद अली शाह को निर्वासित कर अंगरेज़ों ने इसे अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया। अगले ही साल सन 1857 में बेगम हज़रत महल की अगुवाई में अवध में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत हो गई। भीषण लड़ाई के बाद सन 1858 में लखनऊ पर अंगरेज़ सेना का कब्ज़ा हो गया।
दोबारा बग़ावत के अंदेशे से अंग्रेज़ों ने लखनऊ के कई महल परिसरों को ढ़हा दिया। छतर मंज़िल पैलेस परिसर की भी शकल एकदम बदल गई। सन 1858 में बग़ावत को कुचलने के बाद अंग्रेज़ों ने फ़रहत बख़्श परिसर और क़ैसर बाग़ निवासों को नष्ट कर दिया था। अंग्रेज़ों की इस मुहिम में सिर्फ़ छतर मंज़िल के दों ढांचे और लाल बारादरी का एक हिस्सा ही बच पाया था। अंग्रेज़ बड़ी छतर मंज़िल का इस्तेमाल बैठकें करने और नाच-गाने तथा अन्य उत्सवों के लिये करने लगे थे।
आज़ादी मिलने के बाद फ़रहत बख़्श कोठी और छतर मंज़िल को, साइंस एंड इंडस्ट्रियल डेवलेपमेंट कौंसिल को सौंप दिया गया, जिसने यहां सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट का दफ़्तर खोल दिया था। छोटी छतर मंज़िल में भी एक सरकारी दफ़्तर होता था। साठ के दशक में ये मंज़िल अचानक ढ़ह गई लेकिन ख़ुशक़िस्मती से कोई हताहत नहीं हुआ क्योंकि ये इमारत छुट्टी के दिन गिरी थी।
साल भर पहले ख़बर आई थी कि छतर मंज़िल में मरम्मत के कार्य के लिये गठित उत्तर प्रदेश राजकीय निर्माण निगम को यहां सुरंग की तरह दिखने वाली तीन ढांचे मिले थे। माना जाता है कि ये सुरंगे गोमती नदी तक जाती थीं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इमारत से नदी के किनारे निकलने वाली सुरंगों का इस्तेमाल शाही परिवार की महिलाएं करती थीं। खुदाई में एक पूरी मंज़िल भी मिली जो एकदम दुरुस्त हालत में थी। लेकिन खुदाई में जो सबसे दिलचस्प चीज़ सामने निकलकर आई वो है 42 फुट लंबी और 11 फुट चौड़ी गोंडोला नाव ( शाही नाव)। माना जाता है कि ये नाव 220 साल पुरानी है।
ऐसी उम्मीद की जाती है कि छतर मंज़िल एक बार फिर जीवित हो उठेगी। उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्व विभाग छतर मंज़िल में संग्रहालय बनाने की योजना बना रहा है जिसमें, पूरे उत्तरप्रदेश में खुदाई में मिलीं वस्तुएं रखी जाएंगी। लखनऊ में अब न तो नवाब रहे और न ही उनकी शान-ओ-शौक़त लेकिन जो बचा रह गया है वो हैं शानदार इमारतें जो हमें आज भी नवाबी दौर की याद दिलाती हैं।
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