कोलकता से 102 कि.मी. दूर पश्चिम बंगाल के शहर बरद्वान में एक शानदार मक़बरा है जो ‘नवाबबाड़ी’ के नाम से जाना जाता है । बंगाल में ख़्वाजा अनवर का तीन सौ साल पुराना ये मक़बरा परिसर मुग़ल काल के बेहतरीन वास्तुकला के नमूनो में से एक है । इसका निर्माण मुग़ल बादशाह फ़र्रुख़ सयार ने वफ़ादार अफ़सर ख़्वाजा अनवर के सम्मान में करवाया था । ख़्वाजा अनवर ने ऐसे समय में यूरोपिय ताक़तों से डटकर मुक़ाबला किया था जब वे बंगाल में पांव जमाने की कोशिश कर रहा था ।
पश्चिम बंगाल का बर्धमान (बरद्वान) ज़िला भौगोलिक रुप से झारखंड पठार और गंगा-ब्रह्मपुत्र जलोढ़ मैदान के बीच है । 5000 ई.पू. में बरद्वान के इतिहास का उल्लेख मिलता है । वो उत्तर पाषाण युग होता था।। अबुल फ़ज़ल ने अपनी किताब ‘आइन-ए-अकबरी’ में बर्धमान को सरकार शरीफ़ाबाद का महल या परगना बताते हुए उसकी क़ीमत 18 लाख 76 हज़ार 1 सौ 42 रुपय आंकी है।
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि बर्धमान नाम 24 वें जैन तीर्थंकर महावीर ने दिया था जो यहां जैन धर्म के प्रचार के लिए आए थे। बर्धमान का अर्थ ऐसी जगह से है जो समृद्ध और विकसित हो। बर्धमान बहु सांस्कृतिक विरासत का केंद्र है। यहां टेराकोटा मंदिर, ईचाई घोष के मंदिर, 108 शिव एवं साक्ता के रेखा मंदिर और वैष्णव मंदिर हैं जो मध्यकाल में हिंदू वास्तुकला के उदाहरण हैं । इनके अलावा यहां इस्लामिक संस्कृति के प्रभाव को दर्शाने वाले मक़बरे और दरगाह भी हैं।
बरद्वान के दक्षिण में स्थित नवाब बाड़ी के महत्व का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि दो अप्रैल 1904 में जब भारत के वायसराय लॉर्ड कर्ज़न बर्धमान आए थे तब बर्धमान के महाराजा बिजय चंद मेहताब ने उन्हें तस्वीरों का एक अलबम भेंट किया था और इसमें शहीद ख़्वाजा अनवर के मक़बरे की भी तस्वीर थी।
कौन था ख़्वाजा अनवर?
ख़्वाजा अनवर के आरंभिक जीवन के बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं मिलती सिवाय इसके कि वह एक मुग़ल अफ़सर था। मुग़ल साम्राज में बंगाल सबसे समृद्ध प्रांत हुआ करता था। औरंगज़ेब के शासनकाल के अंतिम वर्षों में बंगाल में विद्रोह हो रहा था। औरंगज़ेब ने सूबेदार इब्राहीम ख़ान को बर्ख़ास्त कर अपने पोते अज़ीम-उस-शान को सन 1697 के मध्य में बंगाल, बिहार और उड़ीसा का सुबेदार बना दिया। अज़ीम-उस-शाह औरंगज़ेब के सबसे बड़े बेटे मोहम्मद मुअज़्ज़म बहादुर शाह का बेटा था। शहज़ादे अज़ीम-उस-शान को औरंगज़ेब ने ‘ख़िलत’, मोतियों से जड़ी तलवार, मंसब और माही के बिल्ले से नवाज़ा था । ख़्वाजा अनवर शहज़ादे अज़ीम-उस-शान का प्रधान सेनापति था।
इस अवधि के दौरान लगातार विद्रोह और अस्थिरता की वजह से, अंग्रेज़, फ़्रांसीसी और डच अपने कारख़ानों की सुरक्षा बढ़ाने लगे। ख़्वाजा इससे होने वाले ख़तरे को भांप गया और उसने इसे रोकने की कोशिश की। ब्रटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल के नये सूबेदार से कलकत्ता, सुतानाती और गोबिंदपुरा गांव (इन गांवों को मिलाकर कलकत्ता बना था) से ज़मींदारी के अधिकार ख़रीदने की पेशकश की ताकि उनके व्यापार पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का पूरा नियंत्रण हो जाए लेकिन ख़्वाजा ने इसे मानने से साफ़ इंकार कर दिया।
इस बात का सबूत श्री वाल्श द्वारा लिखे जून 22, 1698 के पत्र से मिलता है, “श्री वाल्श का एक पत्र मिला जिसमें उन्होंने किन्हीं कोजाह अन्नुर (ख्वाजा अनवर) का विशेष ज़िक्र किया है जिन्होंने हुगली के फ़ौजदार से युद्ध के दौरान हमारे ख़िलाफ़ शिकायत की थी जिसे शहज़ादे के समक्ष पेश किया गया था। लेकिन शहज़ादे ने सरसरी तौर पर दस्तावेज़ों को देख कर उन्हें कोजाह मनवर (ख़्वाजा अनवर) को हमारे सुपुर्द करने को दिया इस, वादे के साथ कि कुछ ही दिनों में उनका निशान और उसमें शामिल शहर भी हमें मिलेंगे ताकि को कोजाह अन्नुर (ख़्वाजा अनवर) और उनके साथियों के दुराग्रह को ख़त्म किया जा सके। ”(ओल्ड फ़ोर्ट विलियम रिकॉर्ड्स, सी.आर. विल्सन, वोल्यूम I, पेज 37)।
लेकिन भाग्य में कुछ और ही लिखा था। भाड़े के अफ़ग़ान लड़ाकू रहीम ख़ान ने मुग़ल प्रशासन के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया। शहज़ादे अज़ीम-उस-शान ने बातचीत के ज़रिये रहीम ख़ान को मनाने की कोशिश की। रहीम शाह बातचीत के लिए तैयार हो गया और उसने इसके लिए शहज़ादे अज़ीम-उस-शान के प्रधान सेनापति ख़्वाजा अनवर को भेजने को कहा। शहज़ादे अज़ीम-उस-शान ने ख़्वाजा अनवर को रहीम शाह के शिविर जाने का हुक़्म दिया और कहा कि वह उससे शाही दरबार से वफ़ादारी का वादा लें। ख़्वाजा अनवर, कुछ सोचे समझे बग़ैर, शहज़ादे के हुक्म का पालन करते हुए बिना सुरक्षा इंतज़ाम के कुछ सैनिकों के साथ रहीम शाह के शिविर पहुंच गए। दरअसल ये रहीम शाह की एक चाल था। रहीम शाह के सैनिकों ने शहज़ादे अज़ीम-उस-शान के संदेश वाहकों को घेर लिया। ख़्वाजा अनवर ने उनका बहादुरी से मुक़ाबला किया लेकिन आख़िरकार उन्होंने लड़ते लड़ते अपनी जान की क़ुर्बानी दे दी।
ख़्वाजा अनवर एक बहादुर फ़ौजी की तरह मारे गये और कुछ महीने बाद ही एक भयावह घटना हुई। अंग्रेज़ हमेशा से कलकत्ता के गांवों की ज़मींदारी चाहते थे लेकिन ख़्वाजा अनवर रास्ते का रोड़ा बने हुये थे। लेकिन अब जबकि ख़्वाजा अनवर नहीं रहे तो अंग्रेज़ों की ईस्ट इंडिया कंपनी को तीन गांव ख़रीदने की इजाज़त मिल गई । 9 नवंबर 1698 (1110 हिजरी, औरंगज़ेब के शासन के 44 साल), में तीन गांव अंग्रेज़ व्यापारियों ने ख़रीद लिए। इसके दस्तावोज़े पर क़ाज़ी की सील और ज़मींदारों के दस्तख़त थे जिसका ब्यौरा इस प्रकार है हम इस्लाम के अधीन, अपना नाम और वंशावली की घोषणा करते हैं, नाम, मनोहर दत्त पुत्र बासदेओ, पुत्र रघु और रामचंद, पुत्र बिदियाधर, पुत्रजगदीस और रामबहादर, पुत्र रामदेओ, पुत्र केसू और प्राण, पुत्र कलेसर, पुत्रगौरी और मनोहर सिंह, पुत्र गन्दर्ब, पुत्र। … विधि सम्मत मुहैय्या सभी नियमों के तहत मिले अधिकारों के मुताबिक़ क़ानूनी तौर पर इस ज़मीन की मिलकियत के अधिकार घोषणा-पत्र में इस स्वीकारोक्ति की घोषणा करते हैं कि हमने सम्मिलित रूप से अमीराबाद परगना के अधिकार क्षेत्र में आनेवाले गाँव देही-कालकताह और सुतालुति सहित पैकान और कलकताह परगना के अधिकार क्षेत्र में आनेवाले गाँव गोनिंदपुर को उससे मिलनेवाले किराय समेत अंग्रेज़ कंपनी को बेच दिया है और इसका वैध हस्तांतरण पत्र भी बनवा दिया है। (ओल्ड फ़ोर्ट विलियम रिकॉर्ड्स, सीआर. विल्सन, वोल्यूम 1पेज 40-41)
शहीद ख़्वाजा अनवर का मक़बरा: मुग़ल वास्तुकला का एक ख़ूबसूरत नमूना था
ख़्वाजा अनवर के कफ़न दफ़न के लिए शहंशाह ने शाही ख़ज़ाने का मुंह खोल दिया था। शहंशाह फ़र्रुख़ सियार ने सन 1127,( 1715 हिजरी) में मक़बरा ख़्वाजा अनवर के परिवार को सौंप दिया और इसकी देखभाल के लिए उन्हें पांच गांव दे दिये। शाही मदद से मक़बरे के परिसर में एक भव्य प्रवेश द्वार, एक शानदार मंडप और मस्जिद के साथ एक हौज़ बनवाई गयी। मक़बरे के परिसर के चारों तरफ़ ऊंची दीवारें हैं। ये परिसर बंगाली और मुग़ल वास्तुकला का एक अद्भुत उदाहरण है । ये क्षेत्र क़रीब दस बीघा में फ़ैला हुआ है। मक़बरा उत्तरी दिशा की तरफ़ है और दक्षिण दिशा में एक बड़े द्वार से यहां प्रवेश किया जाता है। परिसर के पश्चिम दिशा में एक मस्जिद है। इस मस्जिद की वास्तुकला बंगाल में 17वीं या आरंभिक 18वीं सदी में और कहीं नहीं मिलती।
परिसर के बीच में एक बड़ी गहरी हौज़ है और एक मंडप है जिसके चारों तरफ़ मेहराबदार सड़क है जो न सिर्फ़ बंगाल बल्कि भारत में एक अनूठी चीज़ है। एक समय यहां के मंडप में सांस्कृतिक समारोह हुआ करते थे। दुर्भाग्य से अब हौज़ सूख चुका है और यह स्थानीय बच्चों के लिए खेलने की जगह बन गयी है।
शहीद ख़्वाजा अनवर का मक़बरा भारतीय वास्तुकला में, इस मायना में अनूठा है क्योंकि इसका गुंबद चौकोर है और पूर्व तथा पश्चिम दिशा में ढ़लानदार छत है।
दो तरफ़ से ढलानदार छत (दो-चाला) बंगाली हिंदू मंदिरों और गौड़, माल्दा के फ़तेह ख़ान के मक़बरे की याद दिलाती है। मक़बरे के पलस्तर के किनारों को गहराई से उकेरा गया है जो बेहद सुंदर लगते हैं। इस तरह की नक़्क़ाशी मक़बरे में हर जगह दिखाई देती है। इस तरह की कलाकारी इलाहबाद में ख़ुसरो बाग़ में भी मिलती है जो 17वीं शताब्दी में बनवाया गया था।
बंगाली मुग़ल शैली की वास्तुकला की सुंदरता आज भी हमें आकर्षित करती है जिसे शहीद ख़्वाजा अनवर के मक़बरे के भीतरी भाग और आसपास की मस्जिदों में देखा जा सकता है।
तीन खण्डों वाली इस मस्जिद में जुड़े हुए आले और अंदरूनी साज सज्जा का ये ऐसा अतिरेक है जो सत्रहवीं शताब्दी के अंत या अठारहवीं शताब्दी के शुरू में बनी किसी भी बंगाली मस्जिद में पहले नहीं दिखाई देता है। हो सकता है कि इस तरह की साज-सज्जा पर, लाहौर में औरंगज़ेब की बादशाही मस्जिद (सन 1674) की असर हो ।
नवाब बाड़ी नाम क्यों ?
मुग़ल यौद्धा शहीद ख़्वाजा अनवर का मक़बरा और उससे जुड़ी मस्जिदें समृद्ध और शानदार अतीत की गवाह हैं । मक़बरे के विशाल प्रवेश द्वार, हवामहल, बीच में बड़ी हौज़ और भव्य मंडप की वजह से शायद स्थानीय लोग इसे ‘नवाब बाड़ी’ कहते थे। तीन सौ साल पुराने मक़बरे को लेकर और भी किवदंतियां हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि मक़बरे के अंदर एक बड़े अंडे के आकार की एक मूर्ति थी। माना जाता था कि ये अंडा बंगोमा और बंगोमी (विशाल जादुई पक्षी) का है। माघ के पहले दिन लोग डुबकी लगाने यहां आते थे।
समापन टिप्पणी
दरअसल इस मकबरे का समावेशी इतिहास इस लेखन के दायरे से बहुत परे है लेकिन ये मक़बरा जो युद्ध, वफ़ादारी, दुश्मनी और लोक-कथाओं का गवाह रहा है, अब धीरे धीरे अपनी पहचान खोता जा रहा है। मक़बरे के चारों तरफ़ जंगली पेड़ उगे हुए हैं, दीवारों से ईंटे बाहर निकल रही हैं और मस्जिद तथा मंडप का पलस्तर उखड़ रहा है। लेकिन इसके बावजूद बरद्वान की‘नवाब बाड़ी’गौरवशाली दिनों के गवाह के रूप में मौजूद है जिसकी वास्तुशिल्पीय भव्यता आज भी विस्मित करती है। इसके अलावा इसकी वास्तुकला हमें हिंदू-मुस्लिम की साझा संस्कृति की भी याद दिलाती है। ये हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि हम इस मक़बरे का ऐतिहासिक महत्व और इसकी असाधारण संरचनात्मक डिज़ाइन को मेहफ़ूज़ रखें।
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