तमिलनाडु के तंजावुर ज़िले में बृहदीश्वर मंदिर चोल-काल की बुलंदियों की नुमाइंदगी करता है। एक तरफ़ जहां मंदिर की अधिकता और भव्यता इस सच्चाई को साबित करती है, वहीं मंदिर में मौजूद कई शिलालेख चोल शासनकाल की ख़ुशहाली का एक और सबूत भी हैं। पत्थर पर खुदे हुए इन शिलालेखों से इस शक्तिशाली साम्राज्य की समृद्धि का अंदाज़ा लगया जा सकता है।
तंजावुर शहर में स्थित बृहदीश्वर मंदिर प्राचीन भारत के वास्तुशिल्पीय अजूबों में से एक है। मध्यकालीन चोल राजवंश (सन 848-1070) प्राचीन भारत के सबसे शक्तिशाली राजवंशों में से एक था, जिसका साम्राज्य उत्तर में गंगा नदी से लेकर दक्षिण में श्रीलंका तक फैला हुआ था। इस राजवंश का प्रभाव आज के म्यांमार, मालदीव और इंडोनेशिया तक भी था। चोल शासक कला और वास्तुकला के बड़े संरक्षक थे और उनके शासनकाल में बहुत मंदिर बनाये गये थे। इस राजवंश का सबसे प्रसिद्ध और शक्तिशाली शासक बेशक़ राजराजा-प्रथम था। सन 985 ईस्वी से लेकर सन 1014 इसवी तक उसके लगभग 30 वर्षों के शासनकाल के दौरान, चोल साम्राज्य नई ऊंचाइयों पर पहुंचा।
राजराजा-प्रथम के शासन के दौरान ही बृहदीश्वर मंदिर बना था, जिसे राजराजेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर का नाम राजा के नाम पर ही रखा गया था। दो गोपुरम वाले आयताकार परिसर में मध्य मंदिर में एक गर्भगृह है, जिसमें 200 फ़ीट की विशाल श्रीविमान (बड़ी इमारत), एक अर्धमंडप, एकमहामंडप (मुख्य सभागार), मुखमंडप (सामुदायिक सभागार) और एक नंदी मंडपम (नंदी सभागार) है।
मंदिर के सबसे पुराने अभिलेख में 107 पैराग्राफ हैं, जो केंद्रीय मंदिर की बाहरी दीवारों पर खुदे हुए हैं। इन अभिलेखों को उकेरने का काम राजराजा-प्रथम के 26वें शासन वर्ष (सन 1011 ईस्वी) के 20वें दिन शुरू किया गया था, जिसमें उनके 23वें से लेकर 29वें तक के शासनकाल (सन 1008-1014 ईस्वी) का लेखा-जोखा है। राजराजा-प्रथम के आदेश पर उनके अलावा उनकी रानियों, उनकी बहन और अन्य लोगों द्वारा मंदिर को दिये गये उपहार मंदिर के श्रीविमान पर उकेरे गए थे। अभिलेख में मंदिर द्वारा प्राप्त ढेर सारे उपहारों का विस्तृत वर्णन है।
राजराजा-प्रथम ने मंदिर को कई उपहार दिए, जिन्हें मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है- देवी-देवताओं की धातु की मूर्तियां, और सोने के गहने तथा बर्तन। ये उपहार राजराजा-प्रथम के ख़ज़ाने और उसकी सैन्य विजय से प्राप्त धन से बनाए गए थे। राजराजा-प्रथम ने केरल में मलाई नाडु के चेर और पांड्या साम्राज्यों को हराया था। इनके ख़ज़ानों से राजराजा-प्रथम को गले के हार, अंगूठियां, कंगन, गहनों से जड़े सोने की परत वाली खड़ांऊ, नवरत्न वाली अंगूठियां मिली थीं। ‘शिवपदशेखर’ और ‘श्री राजराजा’ की उपाधि मिलने के बाद राजराजा-प्रथम ने अपने ख़ुद के ख़ज़ाने से उपहार दिए थे। उसने अपने ख़ज़ाने से सोने का एक मुकुट, सोने का एक कलश, और देवताओं की मूर्तियां भेंट किए थे। राजराजा-I ने पश्चिमी चालुक्य राजा सत्यश्रय (शासनकाल सन 997-1008 ईस्वी) को हराया और देवता के प्रति आभार व्यक्त करने के लिये उसने मूर्ति के चरणों में सोने के फूल चढ़ाए थे। इतिहासकार एस. आर. बालसुब्रमण्यम के अनुसार, “अगर हम राजराजा-प्रथम द्वारा बनाई गई सोने की मूर्तियों, आभूषणों, बर्तनों आदि उपहारों को एक साथ जोड़कर देखें, तो इनका मूल्य 38,604 कलंजुस (उस समय की मुद्रा) होती है।” इनके अलावा, आंशिक सोने से बने कई गहने और क़ीमती नग और मोतियां भी मंदिर को उपहार में दी गईं थीं।
इन उपहारों के अलावा, सोने, चांदी, तांबे और पंचलोह (पांच धातु) जैसी धातुओं से बने देवी-देवताओं की 66 मूर्तियों के भी रिकॉर्ड मिलते हैं। ये मूर्तियां राजराजा-प्रथम, उनकी बड़ी बहन कुंडवई और उनकी रानियों ने उपहार में दी थीं।
बृहदीश्वर के शिलालेखों में हमें चोल शासकों के वित्तीय इतिहास और नीतियों की भी झलक मिलती है। राजराजा- प्रथम ने मंदिर के रखरखाव के ख़र्चे के लिये एक बड़ी ज़मीन दी थी। शिलालेखों के अनुसार, मंदिर के लिये कई गाँवों से सोना, धान और धन राजस्व के रुप में जमा किया जाता था। गाँवों पर निर्धारण करते समय गाँवों के कुल क्षेत्रफलों को ध्यान में रखा जाता था, जिसमें जनोपयोगी क्षेत्र शामिल नहीं होते थे। बाक़ी क्षेत्रों पर किराया लगाया जाता था। दिलचस्प बात यह है, कि शिलालेखों में उस समय उपयोग की जाने वाली नाप-तोल की इकाईयों का भी उल्लेख है, जैसे कसुस और कलंजू। धातुओं और कीमती नगों के नाप-तोल के लिए जिस इकाई का इस्तेमाल किया जाता था, उसे अदावल्लन कहते थे।
बृहदीश्वर जैसे विशाल मंदिर की देख-रेख के लिये प्रशासनिक व्यवस्था और सुरक्षा की भी ज़रुरत थी। इसे देखते हुए राजराजा-प्रथम ने मंदिर के कोषाध्यक्षों, मंदिर के सेवकों के रूप में ब्रह्मचारियों की और मंदिर के खातों के प्रबंधन के लिए लेखाकारों की नियुक्ति के आदेश मंदिर पर उकेरवा दिये थे। इन्हें प्रति वर्षभत्ते के रुप में धान मिलता था। राजराजा- प्रथम ने मंदिर की सुरक्षा के लिये तीन सुरक्षाकर्मी नियुक्ति किये थे, जिन्हें मेक्कापुस कहा जाता था। इनमें से दो बाहरी गोपुरम की चौकीदारी करते थे, जबकि तीसरा प्रवेश-द्वार की चौकीदारी करता था। इनके अलावा, कई अन्य लोगों को भी मंदिर की सेवा के लिए नियुक्त किया गया था, जिनमें नर्तक, अभिनेता, गायक, ज्योतिषी, दर्ज़ी, धोबी आदि शामिल थे।
दिलचस्प बात यह है, कि एक दस्तावेज़ में मंदिर के लिये पवित्र भोजन और प्रसाद तैयार करने का उल्लेख है। दस्तावेज़ में उन भोजन सामग्रियों का भी उल्लेख है, जिनकी ज़रुरत होती थी जैसे पके हुए चावल, तरी वाली विभिन्न प्रकार की सब्ज़ियां, तली हुई करी, दही, सुपारी,पान,सरसों, दालें, नमक और काली मिर्च आदि।मंदिर में एक विशाल अन्न भंडार भी था, जिसमें लगभग एक लाख कलम (उस समय का नाप) धान का भंडारण किया जाता था। इसका उपयोग मंदिर की गतिविधियों के लिए किया जाता था।
शिलालेख में राजराजा-प्रथम की सात रानियों के नामों का उल्लेख है, जिनमें से प्रत्येक ने मंदिर को कई गहनों के साथ देवी-देवताओं की मूर्तियां भेंट की थीं। रानी पंचवन महादेवी के एक दस्तावेज़ में उस समय के गहनों का विस्तृत उल्लेख है। रानी पंचवन महादेवी ने तंजयलगा (शिव), उमा और गणपति की मूर्तियों की स्थापना की और देवी-देवताओं को कई आभूषण भेंट किए थे। इनमें सोने, नीलम, हीरे, क्रिस्टल, मूंगा, लाल पत्थर और विभिन्न प्रकार के मोतियों से बने हार, बाज़ूबंद, पांव की उंगलियों की बिछियाँ, कंगन, झुमके और करधनी आदि शामिल थे। दिलचस्प बात यह है, कि चोल लगभग 12 प्रकार के मोतियों से परिचित थे, जिनका उल्लेख यहाँ दस्तावेज़ों में मिलता है।
राजराजा-प्रथम की बड़ी बहन कुंडवई के एक दस्तावेज़ के अनुसार उन्होंने मंदिर को चार देवी-देवताओं की मूर्तियां उपहार में दीं थीं। उन्होंने प्रत्येक मूर्ति के साथ सोने और क़ीमती नगों से बने कई महंगे गहने और सोने के ग्यारह बर्तनों भी भेंट किए थे। इसके अलावा उन्होंने पवित्र भोजन, मंदिर के दीयों, मालाओं और मंदिर पर होने वाले अन्य ख़र्चों के लिए पैसे जमा करवाए थे। यह पैसा गाँवों में ब्याज पर (धान के रूप में) जमा किया जाता था, जिसे कोषागार में देना पड़ता था। उन्होंने एक निश्चित संख्या में भेड़ ख़रीदने के लिए पैसे भी जमा करवाए थे, जिनके दूध से मंदिर के दीये जलाने के लिए घी बनाया जाता था।
राजराजा-प्रथम के बाद उनका पुत्र राजेंद्र-प्रथम उनका उत्तराधिकारी बना, जिसने सन 1014 ईस्वी से लेकर सन 1044 ईस्वी तक शासन किया। अपने शासनकाल के दौरान, उसने देवी-देवताओं की कई मूर्तियों के लिये दान किया। उसके शासनकाल के दौरान मंदिर के देवता के रख-रखाव के लिए कुछ गांवों से कर लिया जाता था।
एक दस्तावेज़ के अनुसार राजेंद्र-द्वितीय (सन 1054-1064 ईस्वी) ने वैकासी उत्सव के दौरान राजराजेश्वर मंदिर में राजराजेश्वर-नाटकम् नाटक को खेलने के लिए अभिनेताओं को 120 कलम धान दिया था।
शाही परिवार के अलावा कई अधिकारियों ने भी मंदिर में दान किया था। एक दस्तावेज़ में राजराजा-प्रथम के मंत्री अदितन सूर्यन का उल्लेख है, जो राजराजेश्वरम मंदिर के प्रबंधन की देखभाल करता था, उसने राजराजा-प्रथम और उनकी रानी लोगा महादेवी की मूर्तियों सहित देवी-देवताओं की कई मूर्तियां उपहार में दी थीं।
राजराजा-प्रथम के सेनापति कृष्णन रमन ने बाड़े की सबसे भीतरी दीवार और अर्धनारीश्वर (आधा शिव, आधा पार्वती) की एक धातु की मूर्ति बनवाई थी। अर्घनारीश्वर की मूर्ति कमल पर बनी हुई थी, जो रत्नों से सुसज्जित था।
17वीं शताब्दी में तंजावुर मराठा शासन के अधीन आ गया। सरफोजी-द्वितीय इस राजवंश के सबसे प्रमुख राजाओं में से एक था जिसने 1798 ईस्वी से लेकर 1832 ईस्वी तक शासन किया था। बृहदीश्वर मंदिर की दक्षिणी दीवार पर सरफोजी-द्वितीय के अभिलेख हैं। मराठी में लिखे इन अभिलेखों में सरफोजी-द्वितीय तक भोंसले परिवार की वंशावली और सरफोजी-द्वितीय द्वारा किए गए मरम्मत के कई कामों और दान का उल्लेख है। सरफोजी-द्वितीय ने मंदिर के मुख्य देवता राजराजदेव के लिये बहुमूल्य रत्न भेंट किए। उसने कई अन्य उप-मंदिरों के साथ मंदिर के गणपति मंदिर को दोबारा बनवाया था। इसके अलावा उसने एक नया मंडप बनवाया और फ़र्श, बरामदे और मंदिर की रसोई की मरम्मत भी करवाई।
19वीं शताब्दी में जर्मनी के भारतीय इतिहास के जानकार ई. हॉल्ट्श के प्रयासों से शिलालेखों का यह ख़ज़ाना सामने आया। सरकारी पुरालेखवेत्ता के रूप में नियुक्त होने के बाद, उन्होंने इन शिलालेखों को मंदिर से कॉपी किया और उन्हें सन 1887 में दक्षिण भारतीय पूरालेख की वार्षिक रिपोर्ट में प्रकाशित किया।आज चोल राजवंश द्वारा बनवाए गए बेहतरीन मंदिरों के रुप में बृहदीश्वर मंदिर, ऐरावतेश्वर मंदिर और गंगैकोंडचोलिस्वरा मंदिर मौजूद हैं, जो यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल हैं।
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