सभी शासक चाहते हैं कि उनके मरने के बाद भी उन्हें याद किया जाय। मध्यकाल में मध्य और पश्चिम भारत के शाही परिवारों को पता चल गया था कि स्मारक एक ऐसी चीज़ हैं जिसके ज़रिये वे अमर हो सकते हैं। ऐसे ही हैं भुज के ख़ूबसूरती से तराशे हुए छातार्दी स्मारक जो गुजरात में कच्छ के शाही परिवार जडेजा की याद दिलाते हैं।
पत्थर के बने ये स्मारक छतरी के आकार के हैं और मध्यकालीन हिंदू साम्राज्य, ख़ासकर राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में स्मारक बनवाये जाते थे जहां शाही परिवारों के सदस्यों का अंतिम संस्कार किया जाता था। भुज के छातार्दी,अपनी ख़ूबसूरत तराश-ख़राश और नक़्क़ाशी की वजह से सबसे ज़्यादा आश्चर्यचकित करनेवाली हैं।
18वीं शताब्दी के अंतिम और 19वीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में निर्मित ये स्मारक नफ़ीस शिल्पकारी के लिये मशहूर हैं। भुज के स्मारक, शहर के मध्य में हमीरसर झील के किनारे पर स्थित हैं। ये स्मारक जडेजा राजपूतों ने बनवाए थे जिन्होंने सन 1147 से लेकर सन 1948 तक कच्छ रियासत पर शासन किया था। मदनसिंहजी विजयराजजी कच्छ रियासत के अंतिम जडेजा राजपूत शासक थे।
कच्छ का इतिहास चार हज़ार साल से भी ज़्यादा पुराना यानी सिंधु घाटी सभ्यता के समय का है। मध्यकाल में ये व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता था। यहां के मांडवी और लखपत बंदरगाहों से ज़ंज़ीबार, मध्य पूर्व देशों और यूनान तक व्यापार होता था।
कच्छ में कई आश्चर्यजनक भवन हैं जो नागा सरदारों, गुजरात के सुल्तानों, जडेजा राजपूतों और अंग्रेज़ों के ज़माने के हैं। जडेजा परिवार का इस क्षेत्र के इतिहास से अटूट रिश्ता रहा है। उन्होंने आईना महल, प्राग महल और कई अन्य महत्वपूर्ण इमारतें बनवाई थीं।
छातार्दी स्मारक लाल बालू-पत्थर के बने हैं। इनमें सबसे प्रभावशाली राव लखाजी का स्मारक है जिन्होंने 18वीं सदी में शासन किया था और जिनका कच्छ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा था। छातार्दी के भीतर कई स्मारकों में शिलाएं लगी हुई हैं । जो उन लोगों की याद दिलाती हैं जिनकी वहां अंत्योष्टि की गई थी।
उस समय प्रत्येक शासक का अंतिम संस्कार उसके सबसे निकट संबंधी की छतरी के पास ही किया जाता था अन्यथा उस जगह किया जाता था जहां उसकी इच्छा रही हो। दिलचस्प बात ये है कि कच्छ के दूसरे अंतिम शासक विजयराजाजी का देहांत सन 1948 में हुआ था उनका अंतिम संस्कार मांडवी में किया गया था क्योंकि मांडवी उन्हें बहुत प्रिय था। यहां उनको समर्पित एक छतरी भी है।
शाही शव-यात्रा की दिलचस्प बात ये थी कि नये शासक और उसका उत्तराधिकारी इस अंतिम-यात्रा में शामिल नहीं होता था। ऐसा क्यों होता था इसे लेकर एक कहानी भी है। सन 1698 में राव रयाधन-द्वतीय का जब निधन हुआ तब उनके भाई और उनके पुत्र राव रयाधन की शव यात्रा में शामिल होने गये थे। इस स्थिति का फ़ायदा उठाकर, उनके तीसरे पुत्र प्रागमलजी ने सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया था।
दुर्भाग्य से सन 2001 के भूकंप में कच्छ की छातार्दी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गईं। कुछ तो पूरी तरह ढ़ह गईं जबकि कुछ आंशिक रुप से क्षतिग्रस्त हो गईं। भूकंप में कई गुंबद गिर गए और स्तंभ, मूर्तियां और अन्य सजावट की चीज़े बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गईं। ध्वस्त होनेवाले स्मार्कों में राव लखाजी का सबसे भव्य स्मार्क भी शामिल था। फिलहाल इस परिसर की मरम्मत चल रही है।
क्षतिग्रस्त होने के बावजूद इन ख़ूबसूरत स्मारकों में इन्हें बनाने वाले शिलपकारों का हुनर अभी भी देखा जा सकता है। कुछ गुंबदों पर नीली टाइल्स लगी हुईं हैं जो ईरानी वास्तुकला से प्रभावित हैं।
प्रत्येक स्मारक पर पारंपरिक रुप से नफ़ीस नक़्क़ाशी की हुई है और इन पर अंकित चित्र दूसरे स्मारकों पर बने चित्रों से भिन्न हैं। स्मारकों में लगीं मूर्तियों में आप पारंपरिक कच्छी वेशभूषा में लोगों को देख सकते हैं। स्मारकों पर फूलदार, षट्कोण और अष्टकोण पैटर्न भी ख़ूब बने हुए हैं।
भुज की छातार्दी कच्छी कारीगरों के हुनर की साक्षी हैं और सन 2001 में आए भूकंप से हुई तबाही के बावजूद इसकी शोभा आज भी झलकती है।
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