चालुक्य कभी कर्नाटक का महानमत राजवंश हुआ करता था, जो अपने पीछे महान वास्तुशिल्पीय और सांस्कृतिक विरासत छोड़कर गया है। चालुक्य शासनकाल के मंदिरों और वास्तुशिल्प को देखने हज़ारों सैलानी बादामी, ऐहोल और पट्टादकल जाते हैं। लेकिन बसवकल्याण में भी उनके बनाये मंदिर और अन्य भवन भी हैं, जो हालांकि कम ही हैं। 10वीं और 12वीं सदी के दौरान बसवकल्याण चालुक्य राजवंश की राजधानी हुआ करती थी। तब इसे कल्याणी कहा जाता था।
बीदर से क़रीब 80 कि.मी. दूर स्थित बसवकल्याण शहर संस्कृति और इतिहास से भरा पड़ा है। कर्नाटक के बीदर क्षेत्र पर कई राजवंशों का शासन रहा है, जैसे- मौर्य (322-185 ई.पू.), सातवाहन (द्वितीय और तृतीय सदी), वाकाटक (250-500 सदी) बादामी चालुक्य (छठी-8वीं सदी) और राष्ट्रकूट (8वीं-10वीं सदी)।
कल्याणी नगर को पश्चिमी चालुक्य के शासनकाल में ख्याति मिली थी। 10वीं सदी में तैला-द्वितीय ने अपने अधिपतियों को हराकर एक नये साम्राज्य की स्थापना की, जिसे पश्चिमी चालुक्य के नाम से जाना गया। तैला-द्वितीय राष्ट्रकूट राजवंश के शासनकाल में एक सामंत हुआ करता था। 7वीं से लेकर 10वीं सदी तक राष्ट्रकूट दक्कन के सबसे शक्तिशाली राजवंशों में से एक थे। तैला-द्वितीय ने कर्नाटक में मन्यखेता को अपनी राजधानी बनाई, जो पहले राष्ट्रकूट की राजधानी हुआ करती थी। पश्चिमी चालुक्य राजा जयसिम्हा-द्वितीय के शासनकाल के अंतिम वर्षों के दौरान, लगभग सन 1033 के एक शिलालेख में कल्याणी का उल्लेख मिलता है।
तैला-द्वितीय के पुत्र सोमेश्वर-प्रथम के शासनकाल में ही कल्याणी शहर चर्चित हुआ। दक्कन के शासकों ने कल्याणी को अपनी राजधानी बनाने के अलावा कई शहरों को अपनी छावनी बनाई थी। इतिहासकार हेम राय चौधरी के अनुसार, “युद्ध की अनिवार्यता अथवा कुशल प्रशासन के लिये कभी-कभी अन्य शहरों में छावनी बनाने की ज़रुरत पड़ती थी।” सोमेश्वर प्रथम (1042-1068) के शासनकाल में अक्सर युद्ध हुआ करते थे, ख़ासकर मध्यकालीन चोल साम्राज्य से। आंध्र प्रदेश के वेंगी क्षेत्र को लेकर पश्चिमी चालुक्य और चोल के बीच काफी लंबे समय तक लड़ाई चली थी। शायद इसी वजह से सोमेश्वर-प्रथम ने कल्याणी नगर को सुंदर बनाया, इसकी क़िलेबंदी की और मन्यखेता की जगह इसे अपनी राजधानी बनाई। इस राजवंश को कल्याणी चालुक्य भी कहा जाता है, जो कल्याणी राजधानी के नाम पर ही है।
प्राचीन समय में कल्याणी ख़ुशहाल नगर हुआ करता था। चालुक्य के शासनकाल के दौरान, कल्याणी में व्यापार ख़ूब फूला-फला और व्यापारियों के संघ अच्छे से विकसित हुए। इन व्यापारिक संघों का देश-विदेश की व्यापारिक गतिविधियों पर नियंत्रण होता था।
कल्याणी चालुक्य राजा विक्रमादित्य- छठी शासनकाल के दौरान कल्याणी में दो प्रमुख हस्तियां बिलहाना और विज्ञानेश्वर रहते थे। बिलहाना कश्मीर के संस्कृत के प्रसिद्ध कवि थे, जिन्होंने “सौरपंचासीका” नाम की मशहूर प्रेम कविता लिखी थी। विज्ञानेश्वर क़ानूनविद थे, जिन्होंने विधि पर महत्वपूर्ण संधि “मिताक्षरा” की रचना की थी। ये दोनों विक्रमादित्य-छठी के दरबार में थे और उन्होंने अपनी रचनाओं में कल्याणी का वर्णन किया है।
विशाल क़िला कल्याणी की विशेषताओं में एक है, जिसका निर्माण कल्याणी चालुक्य के शासनकाल में हुआ था। क़िले में मिले एक शिलालेख के अनुसार, ये क़िला 10वीं सदी में बनवाया गया था। नगर की रक्षा के लिये ये क़िला सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण था और इसको ऐसी जगह में बनवाया गया था, जो दुश्मनों को दूर से नज़र नहीं आता था। ये क़िला पास आने पर ही नज़र आता था और इसलिये, यहाँ मौजूद सैनिकों को दुश्मन के हमलों को नाकाम करने में आसानी होती थी। क़िले में संतरियों के कमरे और प्राचीरें होती थी, जो उस समय एक असमान्य बात होती थी। आगे आने वाले वर्षों में अन्य राजवंशों ने इस क़िले में कई फेरबदल किये।
कल्याणी के इतिहास में 12वीं सदी महत्वपूर्ण रही थी। इस दौरान सामाजिक-धार्मिक उथल-पुथल की वजह से विस्मयकारी सामाजिक और धार्मिक सुधार हुए। इन सुधारों का उद्देश्य नये मानवीय मूल्यों पर समाज का फिर निर्माण करना था। संत बसवेश्वर इस समय की प्रमुख हस्ती थे।
उत्तर कर्नाटक में बसवन्ना बागेवाड़ी में जन्में बसवेश्वर एक दार्शनिक, कवि, समाज सुधारक और लिंगायत संप्रदाय के प्रचारक थे। लिंगायत संप्रदाय में एकेश्वरवाद पर ज़ोर दिया जाता है और ईश्तलिंगा के रुप में सार्वभौमिक ईश्वर की तरह शिव की पूजा की जाती है। लिंगायत संप्रदाय में किसी भी प्रकार के सामाजिक भेदभाव को नहीं माना जाता है।
कल्याणी संत बसवेश्वर की कर्मभूमि मानी जाती है। संत बसवेश्वर कल्याणी चालुक्यों के शासनकाल में चर्चा में आए। सन 1130 में कल्याणी चालुक्य के सामंत बिज्जल-द्वितीय ने कमज़ोर चालुक्य राजा तैला-तृतीय का तख़्ता पलटकर कल्याणी में कलाचुरी राजवंश की नींव डाली, जिसने 25 साल तक शासन किया। कल्याणी कलाचुरी शासकों की राजधानी हुआ करती थी। बिज्जल-द्वितीय के शासनकाल में ही बसवेश्वर का प्रभाव अपने चरम पर पहुंचा। उन्हें बिज्जल-द्वितीय ने प्रधानमंत्री और मुख्य कोषाध्यक्ष नियुक्त कर दिया। उन्होंने अपनी कविताओं के द्वारा सामाजिक जागरुकता फैलाई। इन कविताओं को वाचन कहा जाता था। बसवेश्वर लिंग, जाति, कर्मकाण्ड और अंधविश्वास के घोर विरोधी थे। ये सामाजिक और धार्मिक बुराईयां उस समय बहुत विद्मान थीं। वह समान समाज के हिमायती थे। उनकी शिक्षा और दृष्टिकोण की वजह से कल्याणी नगर लोगों को आकर्षित करने लगा था। यहां देश के कोने-कोने से लोग आते थे।
उस समय की सबसे अनोखी बात अनुभव मंडप की स्थापना थी, जो बसवेश्वर ने स्थापित किया था। अनुभव मंडप एक ऐसी सामाजिक और धार्मिक अकादमी थी, जहां आध्यात्मिक और दैनिक जीवन से संबंधित विषयों पर चर्चा होती थी। चर्चा में बिना भेदभाव के समाज के किसी भी वर्ग का कोई भी व्यक्ति हिस्सा ले सकता था। इसका नेतृत्व अल्लामा प्रभु करते थे, जो एक प्रसिद्ध कवि, दार्शनिक और लिंगायत आंदोलन के संत थे। इस आंदोलन के प्रमुख व्यक्तियों में प्रभावशाली महिला कवयित्री अक्का महादेवी और बसवन्ना के भतीजे चन्नाबसवन्ना थे। चन्नाबसवन्ना 12वीं सदी के प्रमुख शिव के भक्त (श्रण) तथा लिंगायत संप्रदाय के प्रमुख अनुयायी भी थे।
12वीं सदी में इस आंदोलन की लोकप्रियता इस क़दर बढ़ गई थी, कि कल्याणी सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों का केंद्र बन गया। बसवन्ना का इतना प्रभाव था, कि आज़ादी के बादं संत के सम्मान में, कल्याणी शहर का नाम “बासवकल्याण” रख दिया गया।
कल्याणी चालुक्य के पतन के बाद कल्याणी में राजनीतिक अस्थिरता आ गई। कल्याणी के कलाचुरी शासकों के पतन के बाद देवगिरी के यादवों का कल्याणी पर शासन हो गया। देवगिरी के यादव 12वीं सदी के मध्य में कल्याणी चालुक्य के सामंत हुआ करते थे। 14वीं सदी में कल्याणी पर दिल्ली सल्तनत और बहमनी सल्तनत का कब्ज़ा हो गया। इस तरह कल्याणी पहला स्वतंत्र मुस्लिम साम्राज्य बन गया, जिसकी राजधानी पहले गुलबर्गा और फिर बाद में बीदर हुई। 16वीं सदी में दक्कन की बीदर सल्तनत और फिर बीजापुर सल्तनत का यहां शासन हो गया। सन 1656 में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने कल्याणी पर कब्ज़ा कर लिया। अंत में, यानी 18वीं सदी में ये हैदराबाद के निज़ामों के हाथों में चला गया।
समय के साथ-साथ वो शहर, जो कभी सत्ता और सामाजिक-धार्मिक सुधारों का केंद्र हुआ करता था, क्षीण हो गया। 13वीं और 14वीं सदी में ये एक जागीर बनकर रह गया था। सन 1321 में बसवकल्याणी में तुग़लक़ राजवंश की स्थापना करने वाले गियासउद्दीन तुग़लक़ के एक शिलालेख में उल्लेख है, कि कैसे कल्याणी एक क़स्बा हुआ करता था, जिसपर उलुग़ ख़ां (मोहम्मद-बिन-तुग़लक़) ने कब्ज़ा किया था। 19वीं सदी में कल्याणी हैदराबाद रियासत में एक जागीर हुआ करती थी, लेकिन आज़ादी मिलने के बाद, जब निज़ाम की रियासत का भारत में विलय हुआ, तो कल्याणी भी भारत का हिस्सा बन गया। चूंकि यहां कन्नड भाषा बोली जाती थी, इसलिये सन 1956 में भाषायी आधार पर राज्यों के विभाजन में ये मैसूर और फिर कर्नाटक का हिस्सा बन गया। इस दौरान संत बसवेश्वर के सम्मान में इसका नाम बसवकल्याण रख दिया गया।
आज बसवकल्याण लिंगायतों के महत्वपूर्ण शहरों में से एक है। सन 2012 में संत के सम्मान में बसवकल्याण में बसवन्ना की सबसे ऊंची प्रतिमा बनवाई गई है।
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