हर साल नवंबर के महीने में ओडिशा के लोग एक प्राचीन परंपरा का उत्सव मनाते हैं जो दो हज़ार साल से भी ज़्यादा पुरानी है। इस उत्सव को बाली यात्रा उत्सव कहा जाता है जो कार्तिक पूर्णिमा की सुबह शुरु होता है और एक हफ़्ते तक चलता है। कार्तिक पूर्णिमा अक्टूबर और नवंबर के महीने में पड़ती है। ओड़िया पंचांग के अनुसार इस महिने को साल का सबसे पवित्र मास माना गया है।
इस दिन सुबह सुबह लोग नदियों, तालाबों, जलाशयों और समंदर के तट पर जमा होकर काग़ज़, केले और कार्क की, छाल की नाव बनाकर पानी में छोड़ते हैं। इन नावों को सुपारी, सुपारी के पेड़ के पत्तों, फूलों और दीयों से सजाया जाता है। इस परंपरा को बोइतो (नौका) वंदना कहते हैं और इस वंदना के द्वारा लोग अपने पुरखों को याद करते हैं जो कभी व्यापार के लिए जहाज़ों से बाली और अन्य दक्षिण पूर्व अशियाई देशों की यात्रा पर निकलते थे। इन देशों में मौजूदा समय का जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया में बोर्नियो और श्रीलंका शामिल थे।
व्यापारी, बोइतो (नौकाओं) में महीनों समुद्री यात्रा करके, इन दूर दराज़ के द्वीपों में जाकर व्यापार करते थे। उनके लिए समुद्री यात्रा शुरु करने के लिए कार्तिक पूर्णिमा शुभ दिन माना जाता था। ये वो समय होता है जब उत्तर-पूर्व मॉनसून हवा नवंबर से लेकर फ़रवरी तक चलने लगती हैं और इसकी वजह वे उन द्वीपों पर आसानी से पहुंच जाते थे जहां उन्हें जाना होता था।
बाली यात्रा का उल्लेख उस समय से मिलता है जब ओडिशा कलिंग कहलाता था। समुद्र तट पर स्थित कलिंग में मौजूदा समय के औडिशा के कई बड़े और उत्तरी आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्से आते थे। साहित्य और पुरातात्विक सबूतों से पता चलता है कि मौर्यकाल में कलिंग और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच समुद्री व्यापार होता था जो सम्राट अशोक (तीसरी ई.पू. सदी) के शासनकाल में 14वीं सदी तक जारी रहा।
जावा की समुद्री यात्रा का आरंभिक उल्लेख रामायण के किष्किंधा कांड में मिलता है।
यात्रावंतो यवाद्वीपम सप्त राज्य ओशोभीतम
सुवर्ण रुप्याकम द्वीपम सुवर्ण अकर्ण मंदीतम II (4,40,30)
(वानर सेना के राजा सुग्रीव जब सीता की तलाश में सेना को भेज रहे थे तब उन्होंने सुझाव दिया था कि उन्हें जावा द्वीप में बहुत संघर्ष करना पड़ेगा जो एक ऐसी जगह है जिसके चारों तरफ़ सोने की खान से समृद्ध सात साम्राज्य हैं।)
पहली सदी की किताब “ द पेरिप्लस ऑफ़ द इरिथिरियन सी में “ उड़ीसा के पुराने बंदरगाहों का संभवत: आरंभिक उल्लेख मिलता है । यह किताब समुद्री व्यापार और फ़ारस की खाड़ी, अरब सागर और हिंद महासागर में समुद्री मार्गों के बारे में है । इन बंदरगाहों का ज़िक्र प्लिनी, फाहियान और इत्सिंग जैसे प्राचीन यात्रियों ने किया था।
बाली के सेमबीरन में पुरातत्व संबंधी खोज से पता चलता है कि पहली ईसवी सदी के शुरु होने के समय से ही भारत और इंडोनेशिया के बीच व्यापारिक संबंध थे। सेमबीरन में मिले ख़ास सजावट वाले मिट्टी के भारतीय बर्तन रुप और सजावट के मामले में दक्षिण पूर्व एशिया स्थलों में मिले इस तरह का सबसे बड़ा संग्रह है। इसके अलावा पूर्व जावा और बाली में कई बंदरगाह-स्थलों में मिले अभिलेखों में व्यापारी संघ (बानीग्राम) और विदेशी व्यापारियों का उल्लेख है। इन व्यापारियों में अन्य स्थानों के अलावा कलिंग के व्यापारी भी शामिल थे।
विद्वानों ने खानपान, तौर तरीक़ों, धार्मिक आस्था और शब्दावली के मामले में बाली और उड़ीसा के बीच समानता का अध्ययन किया है। अध्ययन में पता चला है कि इंडोनेशिया के कई स्थानों के नाम दक्षिण ओडिशा के स्थानों के नाम से मिलते जुलते हैं। इंडोनेशिया के साहित्य और मूर्तिकला में रामकथा का उल्लेख मिलता है। रामायण के कई संस्करणों में से जावा की प्राचीन काकविन रामायण, जिसे इंडो-जावा साहित्य का बेहतरीन काम माना जाता है, में कुछ ऐसी घटनाओं का उल्लेख है जो विश्वनाथ खुंटिया ने ओड़िया में लिखित विचित्र रामायण में वर्णित घटनाओं से काफ़ी मिलते जुलते हैं।
कालीदास द्वारा रचित महाकाव्य रघुवंश में धरती और समुद्र पर कलिंग नरेश हेमंगदा की शक्ति का वर्णन कुछ इस तरह किया गया है- “उनकी शक्ति महेंद्र पर्वत के समान है और वह महेंद्र पर्वत तथा समुद्र के स्वामी हैं।” बौद्ध ग्रंथ आर्य मंजूश्री मूलकल्प के अनुसार बंगाल की खाड़ी को कलिंग समुद्र और बंगाल की खाड़ी के द्वीपों को कलिंगाद्रेसु कहा जाता था।
मध्यकालीन ओड़िया साहित्य में ओडिशा की समुद्रीय परंपरा पर कुछ रौशनी डाली गई है। इनमें सरला दास की “महाभारत”, उपेंद्र भंज की “लावण्यवती”, दीनकृष्ण दास की “रसकल्लोल” और नरसिम्हा सेन का “काव्य परिमल” प्रमुख पुस्तकें हैं। साहित्यिक उल्लेख के अलावा उड़िया लोक कथाओं, लोक गीतों और उक्ति परंपराओं में भी इस क्षेत्र में समुद्रीय गतिविधियों का ज़िक्र है। उड़ीसा राज्य के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास को समझने में इस क्षेत्र की जीवंत संस्कृति बहुत मददगार साबित होती हैं।
बेइतो वंदना के दौरान जब लोग अनुष्ठान के रुप में छोटी-छोटी नावें पानी में छोड़ते हैं तब वे सदियों पुराना ये पद गाते हैं- ‘आ, का, मा बई, पान गुआ थोई, पान गुआ तोर, मासिक धरम मोर’। इस पद के अनेक अर्थ हैं और सबसे स्वीकार्य अर्थ ये है कि सुपारी और सुपारी के पेड़ की पत्तियां समुद्र को अर्पित करने से कार्तिक मास के दौरान महीने भर चलने वाली पूजा में आशीर्वाद मिलता है और लंबी समुद्र यात्रा पर जाने वाले परिवार के लोग सुरक्षित वापस आते हैं।
ये परंपरा कब शुरु हुई इसका पता लगाना असंभव है लेकिन सरला दास द्वारा 15वीं सदी में लिखे काव्य “महाभारत” में कार्तिक पूर्णिमा पर सुबह स्नान करने के संदर्भ में आ, का, मा बई शब्द का आरंभिक साहित्यिक उल्लेख मिलता है जिससे पता चलता है कि ये परंपरा कम से कम उस समय तो मौजूद थी। आ, का, मा बई शब्द के अर्थ को लेकर विद्वान एकमत नहीं हैं और इसके अनेकों अर्थ लगाये जाते हैं।
स्थानीय परंपराओं के अनुसार बाली यात्रा तीसरी ई.पू. सदी में शुरु हुई थी। माना जाता है कि तब कलिंग से दो हज़ार परिवार बाली जाकर बस गए थे। इतनी बड़ी संख्या में लोगों के पलायन की वजह या तो कलिंग का युद्द 261 ई.पू.) हो सकता है या फिर बाली के सत्तारुढ़ ब्राह्मणों ने उन्हें बुलाया होगा।
व्यापार के साथ ओडिशा और बाली के बीच सांस्कृतिक आदान प्रदान भी होने लगा और बाली यात्रा उत्सव भी पड़ौसी देशों में मनाया जाने लगा। उदाहरण के लिए थाईलैंड में लोई क्रथोंग (पानी में कमल रुपी नौका छोड़ना) उत्सव हर साल नवंबर में मनाया जाता है। दक्षिण बाली की हिंदू परंपरा मसाकापम केपेसिह के तहत नदी में एक छोटी सी नाव उतारकर ये उत्सव मनाया जाता है।
दिलचस्प बात ये है कि दोनों ही परंपराओं में ये विश्वास किया जाता है कि पानी में नाव छोड़ने से जहां आपके पुण्य का लाभ आपको मिल जाते हैं, वहीं सारे पाप समुद्र में बह जाते हैं। बोइतो वंदना के दौरान जो पद गाया जाता है उसका अर्थ समान है और ये उड़ीसा और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के बीच सांस्कृतिक परंपराओं में समानता को दर्शाता है।
ओडिशा में बाली यात्रा उत्सव बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। सभी नदियों, तालाबों, जलाशयों और समुद्र रंगीन नावों से भर जाते हैं और महिलाएं शंख बजाकर अपने बहादुर पूर्वजों के श्रद्धांजलि अर्पित करती हैं। लोग बड़ी संख्या में इन स्थानों पर जमा होते हैं और पूरा माहौल जादुई सा लगता है। धार्मिक अनुष्ठान के अलावा बाली यात्रा उत्सव के दौरान कटक और पारादीप शहरों में ख़ासतौर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
सन 1992 में बोइतो वंदना नाटकीय अंदाज़ में की गई थी। कलिंग से लेकर दक्षिण पूर्व एशिया तक समुद्री व्यापार मार्ग का पता लगाने के लिए ओडिशा सरकार ने दस नवंबर सन 1992 को पारादीप बंदरगाह से नौसैनिक पाल नौका “आईएनएस वी समुद्र” को बाली रवाना किया था। “बोट टू बाली” नामक इस कार्यक्रम का उद्देश्य कलिंग के गौरवपूर्ण दिनों की याद ताज़ा करना और राज्य में आने वाले सैलानियों के लिए और आधुनिक यात्रा को बढ़ावा देना था। ये यात्रा बहुत यादगार रही और नौका को बाली पहुंचने में 82 दिन लगे। इस प्रयोग का मक़सद सांस्कृतिक आदान-प्रदान तथा व्यापार में एक नया अध्याय जोड़ने के अलावा उड़ीसा और बाली के बीच पर्यटन को बढ़ावा देना था।
ओडिशा में बाली यात्रा उत्सव का क्या मतलब होता है इसका अंदाज़ा कटक में महानदी के तटों पर गड़गड़िया घाट जाकर ही पता लग सकता है। लोग साल भर इसका इंतज़ार करते हैं। उत्सव के दौरान कम से कम एक हफ़्ते तक मेला लगता है। मेले में लगने वाली सैंकड़ों स्टालों में तरह तरह की चीज़े बिकती हैं और शाम को सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। यहां बाली यात्रा उत्सव में बहुत भीड़ जमा होती है।
ये व्यापार मेला इतना बड़ा हो गया है कि सन 2019 में नदी के तट पर 1500 स्टाल लगे थे जिससे राष्ट्रीय हरित धिकरण (National Green Tribunal) की चिंताएं बढ़ गईं थीं। कोविड-19 महामारी की वजह से इस साल इस पारंपरिक उत्सव पर रोक लगा दी गई है लेकिन आशा की जाती है कि जल्द ही महानदी के तट एक बार फिर इस उत्सव की रौशनी से जगमगा उठेंगे।
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