महाराष्ट्र में औरंगाबाद शहर को अजंता और ऐलोरा की गुफाओं के लिए जाना जाता है। ये गुफाएं औरंगाबाद में ही हैं। लेकिन जैसा कि नाम से ज़ाहिर है, औरंगाबाद शहर का मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब से भी गहरा नाता है। शहर और मुग़ल शहंशाह के संबंधों का उल्लेख शहर के इतिहास में ख़ूब मिलता है। शहर में मौजूद औरंगज़ेब की पत्नी का “ बीबी का मक़बरा” जहां मुग़लों और शहर के गहरे संबंधों को दर्शाता है वहीं हम यहां औरंगज़ेब की विरासत के रुप में उसके महल के अंश, उसका मक़बरा और पुराने दरवाज़े भी देख सकते हैं।
औरंगज़ेब मुग़ल शहंशाह शाहजहां का तीसरा पुत्र था जिसका जन्म सन 1618 में हुआ था। औरंगज़ेब अपने भाई और सत्ता के जायज़ उत्तराधिकारी दारा शिकोह की हत्या और पिता शाहजहां को आगरा में क़ैद करके सन 1658 में सत्तानशीं हो गया था और बहुत शक्तिशाली बन गया था। लेकिन सत्ता पर काबिज़ होने के बहुत पहले से अन्य मुग़ल शहज़ादों की तरह वह भी सैन्य अभियानों में हिस्सा लेने लगा था। शाहजहां ने उसे सन 1636 में सूबेदार बनाकर दक्कन भेजा था। उस समय अहमदनगर के निज़ाम शाही राजवंश का मुर्तुज़ा शाह-तृतीय शाहजहां के इलाक़ों पर हमले कर रहा था। औरंगज़ेब ने सन 1636 में निज़ाम शाही वंश को ख़त्म कर, सूबेदार के रुप में पहला काम किया था।
सन 1644 में औरंगज़ेब की बहन जहांआरा बेगम आगरा में आग से झुलस गईं थीं लेकिन औरंगज़ेब उसे देखने के लिये फ़ौरन नहीं आ सका था। इससे नाराज़ होकर शाहजहां ने औरंगज़ेब को दक्कन के सूबेदार के ओहदे से बर्ख़ास्त कर दिया।
इस घटना के कुछ समय बाद औरंगज़ेब को शाहजहां ने गुजरात का सूबेदार बना दिया। आने वाले वर्षों में वह बल्ख़, सिंध और मुल्तान का सूबेदार बन गया। सन 1652 में औरंगज़ेब एक बार फिर दक्कन का सूबेदार बना दिया गया और यहीं से औरंगाबाद के साथ उसके संबंधों की नींव पड़ी।
औरंगाबाद को पहले खड़की (पथरीली ज़मीन) कहा जाता था क्योंकि यहां चारों तरफ़ चट्टानें थीं और ज़मीन एकदम बंजर थी। इस शहर की स्थापना मलिक अंबर ने की थी जो इथोपिया से आया एक ग़ुलाम था। 17वीं शताब्दी की शुरुआत में मलिक अंबर ने अहमदनगर दरबार में ख़ूब तरक़्क़ी की। वह निज़ाम शाही का प्रधानमंत्री था और सन 1600 में मुग़ल सेना के हाथों शिक़स्त के बाद भी उसने मुग़ल साम्राज्य के ख़िलाफ़ छापामार युद्ध जारी रखा था।
मलिक अंबर ने खड़की गांव को अपनी नयी राजधानी बनाया क्योंकि ये दौलताबाद दुर्ग के क़रीब था। उस समय दौलताबाद दक्कन की शक्ति का प्रतीक था। अंबर के एक दशक के शासनकाल में ही खड़की घनी आबादी वाले एक शक्तिशाली शहर के रुप में उभरने लगा था। 1626 में मलिक अंबर की मृत्यु के बाद उसके पुत्र फ़तह ख़ान ने सत्ता संभाली। उसने शहर का नाम अपने नाम पर फ़तहनगर रख दिया। लेकिन औरंगज़ेब ने सन 1636 में निज़ाम शाही वंश को उखाड़ फेंका और शहर पर मुग़लों का कब्ज़ा हो गया।
सन 1652 में औरंगज़ेब को जब दूसरी बार दक्कन का सूबेदार बनाया गया, तब उसने फ़तहनगर को अपनी राजधानी बना लिया। वह दक्कन में सैन्य अभियान के लिये यहीं से सेना का संचालन करता था।ऐसा कहा जाता है कि औरंगज़ेब ने इसका नाम बदल कर औरंगाबाद रख दिया था। दस्तावेज़ों और सिक्कों में शहर को ख़ुजिस्ता बुनियाद नाम से जाना जाता था। कुछ विद्वानों का मानना है कि शहर का नाम औरंगाबाद बाद में औरंगज़ेब के सम्मान में रखा गया था।
औरंगज़ेब ने अपना ज़्यादातर समय दक्कन में बिताया। सन 1658 में मुग़ल साम्राज्य का बादशाह बनने के बाद उसने गोलकुंडा और बीजापुर पर अपनी कामयाबी हासिल करने की कोशिशें की। औरंगाबाद शहर एक तरह से अर्ध-शाही राजधानी थी। औरंगज़ेब को वास्तुकला और भवन निर्माण के लिये याद नहीं किया जाता है हालंकि बाक़ी मुगल बादशाहों ने भवन निर्माण में ख़ूब दिलचस्पी दिखाई थी। औरंगज़ेब धार्मिक प्रवृत्ति का था इसलिये उसने लाहौर, बीजापुर, हैदराबाद और दिल्ली में मस्जिदें बनवाईं थीं लेकिन औरंगाबाद के स्मारक में हमें औरंगज़ेब की वास्तुकला में कुछ दिलचस्पी दिखती है।
क़िला अर्क
औरंगज़ेब जब औरंगाबाद का सूबेदार था तब उसने सन 1653 और सन 1658 के दौरान एक शाही महल बनवाया था जिसे क़िला अर्क कहते हैं। महल बनाने के लिये जिस जगह को चुना गया था वो पुराने महल क़िला नौखंडा के पास थी जो मलिक अंबर के शासनकाल में यहां बनवाया गया था। शाही महल में एक शाही मस्जिद थी और शाही निवास थे जो औरंगज़ेब, उसका परिवार और दरबार के लोग इस्तेमाल करते थे। औरंगज़ेब जब भी शहर में हुआ करता था, यहां दरबार भी लगता था।
महल से सारा शहर और हरे-भरे बाग़ तथा फ़लों के बाग़ीचे भी दिखते थे। इन्हें हिमायत बाग़ कहा जाता है। शाही निवास में कई कोठे थे जिनके ऊपर कमरे बने हुए थे जहां से बाग़ दिखाई देते थे। मूल महल के अब बस कुछ हिस्से ही रह गए हैं। इनमें से एक हिस्सा शाही मस्जिद है। दूसरा हिस्सा जो बचा रह गया था वो महल की कोठी वाली इमारत थी जिसमें 20वीं शताब्दी में एक कॉलेज के निर्माण हुआ। तब से यह काफी खंडित हो गया |
महल के पास बने नौबत दरवाज़े के अस्तित्व से समझा जा सकता है कि महल में संगीतकारों के लिये भी कोई जगह रही होगी। दिल्ली दरवाज़ा और मेक्का दरवाज़ा जैसे कई प्रवेश द्वार शुरु में महल के महत्वपूर्ण हिस्से रहे होंगे। बाद के वर्षों में महल को औरंगज़ेब की बेटी ज़ैबउन्निसा के महल के नाम से जाना जाने लगा।
वास्तुकार और इतिहासकार पुष्कर सोहनी, 2016 के अपने एक लेख ‘ऐ टेल ऑफ़ टू इम्पीरियल रेसिडेन्सेस: औरंगज़ेबस आर्किटेक्चरल पेट्रेनेज ’ में बताते हैं कि एक समय महल के परिसर के सुबहदारी का इस्तेमाल दरबार के अधिकारी या सुबहदार करते थे लेकिन अब ये ज़िला कलैक्टर का निवास है।
महल से थोड़ी दूर पर ही बेगमपुरा बाग़ में बीबी का मक़बरा है।
बीबी का मक़बरा
औरंगज़ेब की पहली और प्रमुख पत्नी दिलरास बानू बेगम (जिन्हें मरणोपरांत राबिया-उद-दौरानी के नाम से जाना गया) का मक़बरा औरंगज़ेब ने सन 1660-61 में बनवाया था। विदेशी यात्री ज्यां बैपटिस्टे टैवर्नियर के अनुसार मक़बरा बनाने की शुरुआत सन 1653 में हुई थी। आगरा से वापसी के बाद औरंगज़ेब और उसकी पत्नी ने दक्कन में ताज महल की तरह एक स्मारक बनाने का फ़ैसला किया था। इसका निर्माण कार्य उसके बाद शुरु हुआ था। चूंकि ये स्मारक ताजमहल से काफ़ी मिलता जुलता है इसलिये इसे दक्कन का ताज कहा जाता है। ये बात ग़ौर करने लायक़ है कि जब औरंगज़ेब ने स्मारक बनाने का फ़ैसला किया था तब वह सूबेदार था और इसीलिये ये ताजमहल की तरह भव्य नहीं है।
बहरहाल, स्मारक के निर्माण का श्रेय औरंगज़ेब के पुत्र मोहम्मद आज़म शाह को भी दिया जाता है। दिलरास बानू बेगम का सन 1657 में निधन हो गया था। ये वो साल था जब शाहजहां के चारों पुत्रों के बीच उत्तराधिकार को लेकर सत्ता संधर्ष चल रहा था। इसी वजह से औरंगज़ेब दक्कन छोड़कर आगरा आ गया था। हो सकता है कि जब औरंगज़ेब दक्कन में था तब, भले ही नाम के लिये ही सही, उसके सबसे बड़े पुत्र आज़म शाह की देखरेख में ही दिलरास बानू बेगम का मक़बरा बन रहा हो और शायद इसीलिये इसका श्रेय उसे दिया जाता है।
बीबी का मक़बरा दक्कन में एक महत्वपूर्ण मुग़ल स्मारक है। ये मक़बरा चारबाग़ शैली के बाग़ों के बीच स्थित है। इस बाग़ में कभी सरो, देवदार, ताड़ और आम के पेड़ हुआ करते थे। मक़बरे के ऊपर चारों तरफ़ संगमरमर की जालियां हैं जहां से नीचे राबिया-उद-दौरानी की क़ब्र देखी जा सकती है जो रेशम की चादर से ढ़की रहती है। मक़बरे पर फूल-पत्तियों की नक़्क़ाशी है और संगमरमर के चूने से चित्रकारी की हुई है।
दिलचस्प बात ये है कि मक़बरे का वास्तुकार अताउल्लाह राशीदी था जो उस्ताद अहमद लाहौरी का पुत्र था। अहमद लाहौरी शाहजहां का प्रमुख वास्तुकार था जिसने ताज महल और शाहजानाबाद बनाया था।
औरंगज़ेब ने मराठों के हमलों से सुरक्षा के लिये सन 1682 में औरंगाबाद के चारों तरफ़ दीवार बनवा दी थी। सन 1696 में उसने बेगमपुरा के आसपास भी दीवार बनवाई थी जहां बीबी का मक़बरा है।
ख़ुल्दाबाद और औरंगज़ेब की क़ब्र
औरंगाबाद में ख़ुल्दाबाद नाम का एक छोटा सा शहर है जिसे पहले रोज़ा कहा जाता था। रोज़े का अर्थ स्वर्ग का बाग़ होता है। ये एक पवित्र स्थान था क्योंकि यहां कई सूफ़ी-संत दफ़्न हैं। चूंकि औरंगज़ेब धर्म का संरक्षक था इसलिये उसे यहीं दफ़्न किया गया। औरंगज़ेब की सन 1707 में अहमदनगर में एक सैन्य शिविर में मृत्यु हुई थी। उसकी इच्छानुसार उसे सूफ़ी-संतों के बीच एक साधारण सी क़ब्र में दफ़्न किया गया।
औरंगज़ेब की क़ब्र पर एक पत्थर की फ़रशी लगी थी। उस पर मिट्टी जमा हो गई और वहां पेड़-पौधे उगने लगे थे। सन 1911 में भारत के वायसराय लॉर्ड कर्ज़न ने इस क़ब्र को संगमरमर का बनवाया और इसके चारों तरफ़ संगमरमर की जालियां लगवा दी थीं। इस परिसर में औरंगज़ेब का पुत्र आज़म शाह, हैदराबाद का पहला निज़ाम असफ़ जाह और उसका पुत्र नासिर जंग भी दफ़्न है।
औरंगज़ेब की क़ब्र मामूली सी है जिस पर लोगों का ध्यान कम ही जाता है जबकि बाक़ी मुग़ल बादशाहों की क़ब्रें (मक़बरे) बहुत भव्य हैं। कहा जाता है कि औरंगज़ेब पैग़बर मोहम्मद की इस बात को मानता था कि क़ब्र मामूली सी होनी चाहिये और इसमें कोई तामझाम नहीं होना चाहिये। औरंगज़ेब की क़ब्र सूफ़ी संत शेख़ बुरहान-उद्दीन-ग़रीब की दरगाह के अहाते में ही है। कहा जाता है कि शेख़ बुरहान-उद्दीन-ग़रीब दिल्ली के सूफ़ी संत निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य थे।
औरंगज़ेब को मुग़ल साम्राज्य का आख़िरी शक्तिशाली बादशाह माना जाता है। उसके बाद मुग़ल साम्राज्य बिखरने लगा था। औरंगज़ेब के बाद औरंगाबाद पर अलग अलग शासकों ने राज किया।सन 1724 में असफ़ जाह एक स्वतंत्र असफ़ जाही राजवंश बनाकर हैदराबाद का पहला निज़ाम बन गया। असफ़ जाह को निज़ाम-उल-मुल्क भी कहा जाता था। उसने औरंगाबाद को अपनी राजधानी बना लिया।
लेकिन उसके पुत्र और उत्तराधिकारी निज़ाम अली ख़ान असफ़ जाह-द्वतीय ने मराठों के हमलों की वजह से सन 1763 में औरंगाबाद की जगह हैदराबाद को अपनी राजधानी बना लिया था। बहुत कम लोग जानते हैं कि सन 1795 में मराठों ने बहुत थोड़े समय के लिये औरंगाबाद पर शासन किया था। सन 1795 में मराठों ने खर्दा के युद्ध में निज़ामों को हराकर औरंगाबाद पर कब्ज़ा कर लिया था। उन्होंने यहां सन 1804 तक शासन किया। दूसरे एंग्लो-मराठा युद्ध में अंगरेज़ों की जीत के बाद निज़ामों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की मदद से औरंगाबाद पर फिर कब्ज़ा कर लिया।
अंगरेज़ों के शासनकाल में औरंगाबाद हैदराबाद रियासत का हिस्सा था। सन 1947 में आज़ादी मिलने के बाद औरंगाबाद सन 1960 तक हैदराबाद का ही हिस्सा रहा था। सन 1960 में महाराष्ट्र राज्य के गठन के बाद ये महाराष्ट्र का हिस्सा हो गया।
औरंगाबाद शहर में मौजूद ये कुछ स्मारक मुग़ल शासक औरंगज़ेब की हुक़ुमत के इतिहास के साक्षी हैं।
मुख्य चित्र: ब्रिटिश लाइब्रेरी
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