तमिलनाडु के सेलम ज़िले के देहाती इलाक़े में स्थित अत्तूर क़िले को एक ऐतिहासिक स्मारक के रुप में वैसा बड़ा स्थान हासिल नहीं है, जो अमुमन इस तरह के स्मारकों को मिला करता है। इसके बावजूद ये छोटा-सा क़िला एंग्लो-मैसूर युद्ध सहित मैसूर की कई महत्वपूर्ण घटनाओं का गवाह रहा है।
अत्तूर का इतिहास
पौराणिक सूत्रों के अनुसार कलयुग के दौरान तीर्थगिरी ने एक राजवंश की स्थापना की थी जिसकी कमान अनंतगिरी को सौंपी गई थी। अनंतगिरी के नाम पर ही अत्तूर का नाम पड़ा था। इतिहासकारों का ये भी मानना है कि अत्तूर कोंगु नाडु का हिस्सा हुआ करता था जिस पर संगम युग (प्रथम-चौथी सदी) में चेर राजवंश का शासन हुआ करता था।
अत्तूर पश्चिमी घाट पर स्थित है। पहली सदी में ये रोमन व्यापार-मार्ग पर हुआ करता था जो भारत के पूर्वी तट पर अरिकमेदु बंदरगाह से लेकर पश्चिमी तट पर मुजिरिस तक फैला हुआ था। इस व्यापारिक मार्ग की वजह से ये क्षेत्र बहुत संपन्न था।
10वीं सदी के आते-आते अत्तूर, चोल साम्राज्य के अधीन हो गया और फिर यहां 15वीं सदी में विजयनगरम साम्राज्य का शासन हो गया। सन 1565 में तालिकोट के युद्ध के बाद जब विजयनगरम साम्राज्य बिखर गया तब मदुरै के नायक शासक, जो विजयनगरम के सूबेदार हुआ करते थे, बाद में वही यहां के शासक बन गए।
क़िले की शुरुआत
16वीं सदी के अंतिम वर्षों में पड़ोसी साम्राज्यों और निकट के तटीय इलाकों में यूरोपीय ताकतों के बढ़ते प्रभाव की वजह से नायक शासकों को अपनी सीमाओं की सुरक्षा करने की ज़रुरत महसूस हुई। उन्होंने क़िले बनवाने शुरु किए, जिनमें से अत्तूर का क़िला भी एक था।
माना जाता है कि इस छोटे से क़िले का निर्माण रामचंद्र नायकर ने सन 1580-1650 के दौरान करवाया था। रामचंद्र नायकर मदुरै नायकों के मातहत एक ज़मींदार था और उसका संबंध गट्टी मुडलियार राजवंश से था। तारामंगलम में केंद्रित उसका साम्राज्य हाल ही तक सेलम, करुर, ईरोड और कोयम्बटूर ज़िले तक फैला हुआ था।
ये क़िला लगभग आयताकार है और प्राकृतिक रुप से ये बहुत सुरक्षित था क्योंकि पूर्व में वशिष्ठ नदी थी, पश्चिमी दिशा में खंदकें और बाक़ी दोनों तरफ़ खाईयां थीं। गारा-चूने के पत्थरों और ईंटों से बने इस क़िले की दीवारें तीस फ़ुट ऊंची और 30 फ़ुट चौड़ी थीं। क़िले में एक हरम और एक दरबार भी होता था। छत खंबों पर टिकी हुई थी और मेहराबें बहुत नुकीली हुआ करती थीं। क़िला एक जलाशय की तरफ़ खुलता था, जो इसकी ख़ासियत थी। इस जलाशय से ही क़िले के भीतर एक कुंड में पानी जाता था।
सन 1641 में यह क़िला मैसूर के शासक कांतिरेव नरसा राजा ओड़ेयर के अधीन आ गया जिसने गट्टी मुडलियारों के कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था। सन 1667 में डोड्डा(विशाल) देव राजा ओड़ेयर नें बाक़ी क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया और अत्तूर का नाम बदलकर अत्तूर-अनंतगिरी रख दिया गया। सन 1761 में हैदर अली ने तत्कालीन ओड़ेयर शासक को सत्ता से बेदख़ल कर आसपास के क्षेत्रों को अपने कब्ज़े में ले लिया।
एंग्लो-मैसूर युद्ध
सन 1764 में बक्सर का युद्ध हारने के बाद तत्कालीन मुग़ल बादशाह शाह आलम-द्वितीय ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी दे दी। इसके अलवा उसने तोहफ़े में निज़ाम शासित उत्तरी क्षेत्र भी कंपनी को दे दिए थे। निज़ाम ने अपने क्षेत्र इस शर्त पर देने स्वीकार किए कि उनके भाईयों में से एक भाई को गुंटूर में नियुक्त किया जए और उन्हें (निज़ाम) को सालाना सात लाख रुपये दिए जाएं।
इन शर्तों पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को अमल करना पड़ा, क्योंकि वह निज़ाम का इस्तेमाल हैदर अली के ख़िलाफ़ करना चाहती थी जो दक्षिण भारत में ताक़तवर होता जा रहा था। निज़ाम को अंग्रेज़ों ने सेना रखने की इजाज़त दे दी और उसकी सेना की मदद के लिए कर्नल जोसेफ़ स्मिथ की कमान में अंग्रेज़ सैनिक हैदराबाद भेजे। रास्ते में कर्नल स्मिथ को हैदर अली के साथ निज़ाम की गुप्त वार्ता की भनक मिली ,उसी के बाद कंपनी ने हैदराबाद की तरफ़ और सैनिकर रवाना किए।
सन 1767 में जैसे ही पहला एंग्लो-मैसूर युद्ध शुरु हुआ, कंपनी की फ़ौज और निजाम, आसफ़ जाह-द्वितीय तथा हैदर अली की संयुक्त सेना के बीच चूहे-बिल्ली का खेल शुरु हो गया। 23 फ़रवरी सन 1768 में, युद्ध में एक मोड़ तब आया जब कंपनी ने निज़ाम के साथ गुपचुप संधि कर ली और नतीजतन निज़ाम युद्ध में हैदर अली को छोड़कर वापस अपने महल वापस चला गया।
धोखा खाने के बाद हैदर अली ने अपने 18 साल के बेटे टीपू सुल्तान की कमान में एक सैनिक टुकड़ी भेजी और मैंगलोर जैसे कुछ क्षेत्रों पर फिर कब्ज़ा कर लिया। हैदर अली ने बैंगलोर और इसके आसपास के इलाक़ों पर हमला किया लेकिन उसे भारी नुकसान उठाना पड़ा। उसे मद्रास कौंसिल के प्रतिनिधि वुड को अत्तूर क़िला देना पड़ा। हालांकि एक साल बाद, हैदर अपनी फ़ौज को फिर से संगठित करके, धीरे-धीरे बढ़त बनाकर, मद्रास के फोर्ट जॉर्ज के दरवाजे तक जा पहुंचा। 29 मार्च सन 1769 को हुई मद्रास संधि के तहत उसे अत्तूर क़िला वापस मिल गया। इस संधि की वजह से पहला एंग्लो-मैसूर युद्ध समाप्त हो गया। अत्तूर क़िला उन कुछ क्षेत्रों में से था जिसे हैदर अली ने दोबारा हासिल किया था। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और उसके स्थानीय सहयोगियों के बढ़ते प्रभाव पर नज़र रखने के लिहाज़ से ये क़िला हैदर अली के लिए बहुत महत्वपूर्ण था।
ओड़ेयर और हैदर अली के शासनकाल में क़िले में कोई ख़ास बदलाव नहीं हुए। इसका इस्तेमाल सैनिक छावनी और सुरक्षा बुर्ज के ही रुप में किया जाता था।
क़िले पर अंतिम कब्ज़ा
तीसरे एंग्लो-मैसूर युद्ध के बाद सन 1792 में श्रीरंगपटनम संधि हुई जिसके तहत, अत्तूर और कुछ अन्य क़िले ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को स्थानांतरित कर दिए गए। सन 1799 में चौथे एंग्लो-मैसूर युद्ध के बाद अंग्रेज़ों का मैसूर क्षेत्र पर पूरी तरह नियंत्रण हुआ और तभी क़िले का इस्तेमाल 23 मद्रास की सैन्य टुकड़ी रखने के लिए किया जाने लगा।
लॉर्ड रिचर्ड वैलेस्ली की सिफ़ारिश पर क़िले को एक ऑर्डिनेंस स्टेशन में तब्दील कर दिया गया जो सन 1854 तक एक महत्वपूर्ण सैनिक अड्डे के रुप में इस्तेमाल होता रहा। इसी दौरान अंग्रेज़ों ने यहां बमबारी से सुरक्षित दो प्रकोष्ठ बनवाए। गट्टी मुडलियार दरबार को रोमन कैथलिक चर्च में तब्दील कर दिया गया। क़िले में और सुरक्षा बुर्ज और तोपख़ाने भी जोड़े गए। क़िले में कुछ अंग्रेज़ अफ़सरों के मक़बरे भी थे। क़िले के सैन्य डिपो के समयानुसार आधुनिक बनाया गया।
सन 1858 में जब अंग्रेज़ सरकार ने ईस्ट इंडिया कंपनी से भारत की बागडोर अपने हाथों में ले ली तब अत्तूर सेलम ज़िले का हिस्सा बन गया जो मद्रास प्रेसीडेंसी में आता था। क़िले से सैनिक चले गए। इसके बाद सन 1921 तक क़िले में अतिक्रमण होता रहा और तभी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इसे अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिए।
तब से लेकर अब तक क़िले में मरम्मत के थोड़े बहुत काम होते रहे हैं। हैदर अली के समय दक्षिण-पश्चिमी और पश्चिमी दिशा में क़िले के कुछ हिस्से क्षतिग्रस्त हो गए थे जिनकी मरम्मत का काम अब चल रहा है। लेकिन इस ऐतिहासिक क़िले पर आज भी तोड़फोड़ और अतिक्रमण का ख़तरा मंडरा रहा है।
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