मध्यप्रदेश की दक्षिणी सीमा के पास, ताप्ती नदी घाटी के पूर्वी किनारे पर जो क्षेत्र है, वह खानदेश कहलाता है।और खानदेश के मैदानी इलाके में 900 फीट ऊँचा उठता एक किला है, जिसे असीरगढ़ के नाम से जाना जाता है। हालांकि असीरगढ़ आज एक भूली बिसरी जगह हो चुकी है लेकिन इसका एक शानदार इतिहास रहा है और यहां कई राजवंशों ने राज किया है।
असीरगढ़ की कहानी को समझने के लिये पहले उसके भूगोल को समझना होगा। हरे-भरे सतपुड़ा पर्वतमाला से घिरे असीरगढ़ को दक्कन का द्वार भी कहा जाता है क्योंकि प्राचीन समय से ही, उत्तरी भारत से दक्कन प्लेटू पहुंचने के लिये, असीरगढ़ होकर ही जाना होता था।
दक्कनी इतिहास के माहिर पुष्कर सोहोनी हमें बताते हैं, “ऐतिहासिक रूप से, असीरगढ़ उन दो मार्गों में से एक था जिनके माध्यम से दक्षिण भारत को उत्तर से पहुँचा जा सकता था। दूसरा था मांडू।” असीरगढ़ ने उत्तर भारत और दकान के बीच प्रमुख व्यापार मार्ग को भी नियंत्रित कर राखा था। “ऊंची पहाड़ी पर बना यह मज़बूत क़िला दूर से ही अपनी उपस्थिति का अहसास दिला देता है। साथ ही आसपास के मैदानी इलाक़ों पर नज़र रखने में भी मदद करता है।”
जहां महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की सीमायें मिलती हैं, मध्य भारत का वही मैदानी इलाक़ा खानदेश कहलाता है। खानदेश के आरंभिक इतिहास के बारे में ज़्यादा कुछ पता नहीं है। लेकिन यह क्षेत्र किसी चौहान शासक के अधीन था। 14वीं सदी की शुरूआत में, अलउद्दीन ने अपने दक्षिणी अभियान के दौरान इस इलाक़े पर क़ब्ज़ा कर लिया था।
उसके बाद की शताब्दी में, दिल्ली सल्तनत के कई राजवंशों ने वक़्त वक़्त पर इस पर शासन किया। सुल्तान फ़ीरोज़ शाह तुग़लक़ (1309-1388) ने मलिक राजा को खानदेश में अपना सिपहसालार नियुक्त किया था।
फ़ीरोज़ शाह की मृत्यू के बाद, मलिक राजा ने ख़ुद को ख़ुदमुख़्तार घोषित कर दिया और खानदेश सल्तनत क़ायम कर दी। उसका राजवंश फ़ारूक़ी राजवंश कहलाया।
असीरगढ़ की कहानी मलिक राजा के बेटे नसीर ख़ान से शुरू होती है। परम्पराओं से पता लगता है कि असीरगढ़ का क़िला स्थानीय मुख्या आसा अहीर ने 14वीं शताब्दी में बनवाया था। लेकिन सन 1399 में उसकी हत्या कर दी गई और क़िले पर नसीर ख़ान ने क़ब्ज़ा कर लिया था। नसीर ख़ान, ख़ानदेश पर हुकूमत करनेवाला दूसरा फ़ारूक़ी शासक था।
नसीर ख़ान ने असीरगढ़ को अपनी पहली राजधानी बनाया। उसके बाद उसने असीरगढ़ से महज़ 25 कि.मी.दूर, अपनी अगली राजधानी बनाई, जिसे आज हम बुरहानपुर सहर के नाम से जानते हैं। फ़ारूक़ी राजवंश ने 200 साल तक असीरगढ़ पर शासन किया। उन्होंने इसमें कई नये भवन बनावाये और इसे काफ़ी मज़बूती दी।
60 एकड़ क्षेत्र में फैला क़िला-परिसर तीन स्तरों मे बंटा हुआ है। सबसे नीचे है मलयगढ़, उसके ऊपर है कमारगढ़ और सबसे ऊपर और सबसे पुराना है असीरगढ़। इमारतों में सबसे खूबसूरत मस्जिद है, जो बुरहानपुर की जामा मस्जिद के डिजाइन में बहुत समान है।
मस्जिद की एक दीवार पर एक इबारत लिखी है जिस पर मस्जिद बनानेवाले यानी आदिल शाह का नाम लिखा है और उनकी वंशावली भी लिखी हुई है। दिलचस्प बात यह है कि यह इबारत दो भाषाओं मे लिखी है..अरबी और संस्कृत में। क़िले में एक ईदगाह और कई कुयें भी बने हुये हैं ताकि पानी कोई कमी न हो।
फ़ारूक़ी के बाद मुग़लों का राज आया। सन 1600-01 में शहंशाह अकबर ने बहादुर ख़ान को हरा कर बुरहानपुर पर क़ब्ज़ा कर लिया। उसके बाद अकबर की नज़रें असीरगढ़ क़िले पर थीं लेकिन राजा उसे छोड़ने के लिये तैयार नहीं था। अकबर ने क़िले पर क़ब्ज़ा कैसे किया, इस बारे में अलग अलग राय है लेकिन यह बात साफ़ है कि मुग़लों ने अपनी ताक़त से क़िले पर क़ब्ज़ा नहीं किया था।
मुग़ल दरबार के इतिहासकारों, अबुल फ़ज़ल और फ़ौज़ी सिरहिंदी के अनुसार क़िले की रक्षा करनेवालों में कोई बीमारी फैल गई थी। इसीलिये उनकी हार हो गई और क़िला मुग़लों के क़ब्ज़े में आ गया। हालांकि मुग़ल दरबार में स्पेन के धर्मप्रचारक जेसुइट जेवियर ने लिखा है कि मुग़ल बादशाह ने क़िले के कमांडर को रिश्वत दे कर क़िले पर क़ब्ज़ा किया था।
असीरगढ़ पर अकबर के क़ब्ज़े की घटना का ज़िक्र, मुख्य द्वार और मस्जिद की एक दीवार पर फ़ारसी भाषा में दर्ज है। यह अकबर की हुकुमत के फैलाव की अंतिम निशानी थी। रणनिती के हिसाब से, असीरगढ़ की स्थिति बहुत महत्वपूर्ण थी। इसीलिये वह मुग़ल हुकुमत का सबसे अहम क़िला बन गया। दरअसल इसी क़िले की वजह से ही मुग़लों को बाद में भी, दकन में अपने पांव फैलाने में मदद मिली। असीरगढ़ , दक्षिण में मुग़लों का मुख्यालय बन गया था। लेकिन बाद में औरंगज़ैब और भी आगे बढ़ गया और उसने सन 1760 में औरंगाबाद को अपनी राजधानी बना लिया।
अकबर ने अपने सबसे छोटे बेटे दानियाल को बुरहानपुर का सूबेदार बना दिया था लेकिन नशाख़ौरी की वजह से 32 की उम्र में ही उसकी मौत हो गई थी। अकबर के बाद उसका बेटा जहांगीर तख़्त पर बैठा।
पुष्कर सोहोनी बताते हैं कि क़िले में अकबर के अलावा ख़ुर्रम (शाहजहां) और औरंगज़ैब के ज़माने के भी अभीलेख मिलते हैं।
ख़र्रम के ज़माने के अभिलेख में लिखा है, “सन 1617 में ख़र्रम को बुरहानपुर का सूबेदार नियुक्त किया।” ख़ुर्रम को दक्कन में लोदी शासकों से निपटने, दक्कन में मुग़ल सल्तनत की सीमाओं को सुरक्षित रखने और उस इलाक़े में मुग़लों का वर्चव क़ायम रखने की ज़िम्मेदारियां सौंपी गईं थीं। ख़ुर्रम की सफलताओं की वजह से, जहांगीर ने उसे शाहजहां का ख़िताब दिया था।
“सन 1622 में जहांगीर ने शाहजहां को क़ंधार का सूबेदार नियुक्त करने की घोषणा कि थी लेकिन शाहजहां ने क़ंधार जाने से इनकार कर दिया था और जहांगीर के ख़िलाफ़ बग़ावत कर थी और अपने भाईयों के विरूद्ध,दिल्ली के तख़्त पर अपना दावा ठोंक दिया था। लेकिन जब आगरा में उसका पीछा किया गया तो वह असीरगढ़ भाग गया। वहां उसने गोपाल दास गौड़ा को क़िले की ज़िम्मेदारी सौंपी और ख़ुद दक्कन की तरफ़ आगे बढ़ गया। आख़िर मुग़ल सेना का मुक़ाबला करते हुये, शाहजहां को हथियार डालने पड़े और सन 1626 में जहांगीर के साथ समझौता भी करना पड़ा था। समझौते के तहत शाहजहां को 10 लाख रूपये का जुर्मना अदा करना पड़ा था और अपने दो बेटों दारा शिकोह तथा औरंगज़ैब को बंधक के रूप में जहांगीर के पास छोड़ना पड़ा था। सन 1627 में जहांगीर की मौत के बाद हालात शाहजहां के पक्ष में चले गये और सन 1628 में वह दिल्ली के तख़्त पर बैठ गया।”
जहां शाहजहां के ज़माने के अभिलेखों में इतिहास की झलक मिलती है, वहीं औरंगज़ैब के अभिलेख बिल्कुल सरल हैं। सन 1656-59 के अभिलेखों में सिर्फ़ इतना दर्ज है कि औरंगज़ैब ने कब अपने पिता शाहजहां को तख़्त से बलपूर्वक बेदख़ल किया और एहमद शाह नज़्म सानी को कब असीरगढ़ क़िले की ज़िम्मेदारी सौंपी।
सन 1712 में औरंगज़ैब के पोते अज़ीम-उश-शान ने मुग़ल सेना के सिपहसालार निज़ाम-उल-मुल्क को दक्कन का सूबेदार नियुक्त कर दिया। निज़ाम-उल-मुल्क ने उसे क़ूबूल तो कर लिया लेकिन जल्द ही कुछ विवाद पैदा हो गये और उसने ख़ुद को सुल्तान घोषित कर दिया और यहीं से आसिफ़ जाह राजवंश की शुरूआत हो गई । बुरहानपुर और असीरगढ़ उसके क़ब्ज़े में आ गये। निज़ाम-उल-मुल्क के बाद उसका बेटा सलाबत जंग (1751-1762) सुल्तान बना।
सन 1760 में सदाशिवराव भाऊ के न्तृतव में, मराठा सेना ने, उदगीर की लड़ाई में, सालाबत जंग को बहुत बुरी तरह मात दी। नतीजे में निज़ाम को भारी क्षतिपूर्ती अदा करनी पड़ी और कई महत्वपूर्ण क़िले पुणे दरबार को सौंपने पड़े जिनमें असीरगढ़, बुरहानपुर, दौलताबाद, बिजापुर और एहमदनगर के क़िले शामिल थे।
खानदेश में मराठों के लिये असीरगढ़ क़िला प्रमुख क़िला हो गया था। उन्होंने वहां 1500 सैनिक तैनात किये थे जिनके खाने-पीने का इंतज़ाम आसपास के 33 गांवों को मिलकर करना होता था। सन 1817 में गवर्नर जनरल फ़्रांसिस राउडन हैस्टिंग्ज़ ने, दौलतराव सिंधिया पर दबाव डालकर असीरगढ़ क़िला अंगरेज़ों को सौंपने के लिये मजबूर कर दिया। अंगरेज़, पुणे, गवालियर और नागपुर के बीच, पिंडारी और मराठा सेना की आवाजाही रोकना चाहते थे| यह काम असीरगढ़ क़िले से ही संभव था।
अंगरेज़ों ने सैनिक और प्रशासनिक कामों के लिये असीरगढ़ क़िले का ही उपयोग किया था। आज़ादी मिलने तक, ब्रिटिश इंडिया के मध्य प्रांतों में,असारगढ़ ही अंगरेज़ों का सबसे शक्तिशाली केंद्र था। यहां मौजूद सैनिकों के बैरक, जेल, चर्च, क़ब्रस्तान और फांसी घर, बताते है कि यह जगह कभी अंगरेज़ों का शानदार फ़ौजी ठिकाना रही होगी। एक ज़माने में असीरगढ़ क़िला शासकों के लिये युद्ध-रणनिती के हिसाब से बहुत फ़ायदेमंद और महत्वपूर्ण था लेकिन आधुनिक तकनीक आने के बाद उसकी उपयोगिता समाप्त हो गई।
आज, जब आप असीरगढ़ जायेंगे तो आपको वहां हर उस शासक के पुनर्निर्माण,क़िलाबंदी और शोषण की निशानियां मिलेंगी । और इन्हीं तमाम कारणों से, बुरहानपुर से 25 कि.मी.की यात्रा, फिर आगे क़िले तक पैदल चढ़ाई, यह तमाम परेशानियां उठाकर, जब वहां पहुँचते हैं तो आपकी तबियत ख़ुश हो जाती है।
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